आठवीं शताब्दी ईस्वी से लेकर 12वीं शताब्दी ईस्वी के काल में गुहिलों की कई शाखाएं बन गईं। रावल समरसिंह के समय की ई.1274 की चित्तौड़ प्रशस्ति में गुहिल वंश की अपार शाखाएं होने का उल्लेख है। मुहणोत नैणसी ने गुहिलों की 24 शाखाओं का उल्लेख किया है कर्नल टॉड ने भी गुहिलों की 24 शाखाओं के नाम दिये हैं।
नैणसी तथा टॉड की सूचियों में कई नाम मेल नहीं खाते, इससे अनुमान है कि गुहिलों की 24 से अधिक शाखाएं रही होंगी जिनमें कल्याणपुर, वागड़, चाटसू, मालवा, खेड़, धौड़, काठियावाड़ तथा मेवाड़ के गुहिल अधिक प्रसिद्ध हुए। सिसोदिया शाखा के गुहिलों का एक राज्य सूरत जिले के धरमपुर में स्थापित हुआ। काठियावाड़ में भावनगर, पालीताणा, लाठी, वळा, राजपीपला आदि रियासतें भी गुहिलों की थीं।
महाराष्ट्र में कोल्हापुर, मुधोल और सावंतवाड़ी के राज्य भी मेवाड़ के गुहिलों द्वारा स्थापित किये गये। मालवा में बड़वानी का राज्य भी सिसोदिया गुहिलों का था। मध्यभारत में बड़वानी, रामपुरा, नागपुर तथा थार रेगिस्तान में मारवाड़ क्षेत्र का खेड़ राज्य भी गुहिलों का था जिसे बाद में राठौड़ों ने ले लिया। दक्षिण में तंजौर का भौंसला राजपरिवार भी गुहिलों से निकला था। मद्रास इहाते के उत्तरी हिस्से के विजगपट्टम् जिले में विजियानगरम् नामक बड़ा ठिकाना गुहिलों का ही था।
इस प्रकार गुहिल मेवाड़, काठियावाड़, वागड़, आगरा, मालवा, चाटसू, जयपुर, अजमेर एवं मारवाड़ से लेकर दक्षिण तक के विस्तृत क्षेत्र में फैल गये तथा वे उत्तर भारत की बड़ी शक्ति बन गये। इन गुहिलों में परस्पर किस प्रकार का राजनीतिक सम्बन्ध था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इनमें कुछ शाखाओं के मुखियाओं को शिलालेखों में महाराज उपाधि से सम्बोधित किया गया है अर्थात् वे किसी अन्य बड़े शासक के अधीन रहकर शासन करते थे जबकि कुछ गुहिल शासक पूरी तरह स्वतंत्र थे।
निश्चित रूप से गुहिलों की रावल तथा सिसोदिया शाखाएं सर्वप्रमुख शाखाओं के रूप में स्थापित हुईं जिन्होंने चित्तौड़ पर शासन किया। उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, शाहपुरा एवं नेपाल राजवंश, चित्तौड़ पर शासन करने वाले गुहिलों के ही वंशज थे। मराठों में मान्यता है कि छत्रपति शिवाजी का वंश भी, चित्तौड़ के गुहिलों से ही निकला।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता