महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं और उपदेशों से प्रभावित होकर बहुत से लोगों ने भिक्षुव्रत ग्रहण कर बौद्ध संघ में सम्मिलित होना प्रारम्भ कर दिया था। इससे प्राचीनकाल की चतुर-आश्रम व्यवस्था को भारी आघात लगा, क्योंकि स्त्री और पुरुष, किशोर आयु में ही सांसारिक जीवन का परित्याग कर भिक्षुओं के काषाय वस्त्र धारण कर विहारों में निवास करने लग गये। बौद्ध विहारों को राजा, श्रेष्ठि एवं गृहस्थ उदारतापूर्वक दान देते थे जिसके कारण देश के विभिन्न नगरों में अनेक वैभवपूर्ण विहार स्थापित हो गये।
ये विहार शिक्षा के भी महत्वपूर्ण केन्द्र थे, जिनमें आचार्य और उपाध्याय अध्यापन का कार्य किया करते थे। आर्यों के आचार्य कुलों अथवा गुरुकुलों का स्थान अब विहारों ने ले लिया। प्राचीनकाल में आचार्यकुल का स्वरूप एक परिवार के समान होता था, जिसमें गुरु और शिष्यों के बीच पिता-पुत्र जैसा सम्बन्ध रहता था किन्तु बौद्ध विहारों में यह सम्भव नही था, क्योंकि उनमें शिक्षा प्राप्त करने वाले भिक्षुओं या विद्यार्थियों की संख्या सैकड़ों अथवा हजारों में होने लगी। भिक्षुओं को अपने भोजन आदि के लिए भैक्षचर्या की भी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि बौद्ध विहार प्रायः अत्यन्त समृद्ध तथा धन-धान्य से पूर्ण हुआ करते थे।
इन विहारों में विद्यार्थी सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। उनके अध्यापन के लिए बड़ी संख्या में उपाध्याय और शिक्षक नियत होते थे। उन्हें उन नियमों का पालन करना पड़ता था, जिनका प्रतिपादन विनय पिटक में किया गया है। नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों तथा श्रावस्ती और वल्लभी विहारों का उत्कर्ष इसी प्रकार हुआ था। बौद्ध शिक्षण संस्थानों की सम्पूर्ण व्यवस्था बौद्ध भिक्षुओं के हाथों में रहती थी, चाहे वह छोटा बौद्ध संघ हो अथवा बड़ा। संघों, विहारों तथा विश्वविद्यालयों का प्रबन्ध किसी विशिष्ट विद्वान् के निर्देशन में होता था, जो संघ के सदस्यों के मतों से भिक्षुओं में से चुना जाता था। ऐसा प्रबन्धक अपने ज्ञान और विद्वता में अग्रणी होता था। नालन्दा विश्वविद्यालय, जो पहले बौद्ध संघ था कालान्तर में शिक्षण संस्था के रूप में विश्व भर में विख्यात हुआ।
राजस्थान में बौद्ध धर्म
यद्यपि महात्मा बुद्ध राजस्थान की तरफ कभी नहीं आये किंतु मगध के कतिपय मौर्य राजाओं द्वारा बौद्ध धर्म अपना लिये जाने के कारण बौद्ध धर्म मगध से लेकर तक्षशिला, काबुल तथा कांधार होता हुआ काफिरीस्तान (बैक्ट्रिया) तक पहुंच गया इसलिये स्वाभाविक ही था कि इस मार्ग में पड़ने राजस्थान में भी बौद्ध धर्म अपने पैर जमाता। राजस्थान में बौद्ध धर्म मौर्य साम्राज्य के उत्थान (चौथी शताब्दी ई.पू.) से लेकर गुप्त साम्राज्य के पतन (पांचवी शताब्दी ईस्वी) तक विद्यमान रहना अनुमानित किया जा सकता है। यह समय इससे कुछ पूर्व से लेकर कतिपय बाद तक भी हो सकता है।
राजस्थान में बौद्ध स्मारक
महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् उनकी भस्म से पूरे भारत में 84 हजार स्तूप बनाये गये जिनमें से कुछ राजस्थान में भी निर्मित हुए। उनके बाद बड़ी संख्या में बौद्ध मंदिर, मठ, गुफाएं, चैत्य आदि भी बने। बहुत से शिलालेख भी समय-समय पर लगाये गये। राजस्थान में अब कोई स्तूप नहीं मिलता है किंतु तीन स्थानों पर बाद्ध स्तूपों के अवशेष पहचाने गये हैं।
राजस्थान में अनेक स्थलों पर हुई पुरातत्व की खुदाई में बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं तथा कई स्थानों पर बौद्ध धर्म के उल्लेखनीय प्राचीन स्मारक, गुफाएं तथा शिलालेख मिले हैं। बौद्ध भिक्षुओं ने जो पात्र उपयोग किये, उनके टुकडे़ भी बड़ी संख्या में मिले हैं। यह समस्त पुरातात्विक सामग्री विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित है। इनकी उपस्थिति के कारण यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि राजस्थान के जन मानस पर बौद्ध धर्म का प्रभाव अत्यंत व्यापक और गहरा था।
अशोक कालीन स्मारक
राजस्थान में मौर्य कालीन सभ्यता के सबसे पुराने अवेशष बैराठ से प्राप्त हुए हैं। इस कारण इसे बैराठ सभ्यता भी कहा जाता है। यह जयपुर से 75 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में, लाल रंग की अरावली पहाड़ियों के बीच एक गोलाकार घाटी के मध्य में स्थित है। ये पहाड़ियाँ ताम्र धातु की उपस्थिति के लिये प्रसिद्ध हैं। यहाँ स्थित पहाड़ियों में भीम की डूंगरी, गणेशगिरि की गुफाएं तथा बिजार की पहाड़ी अधिक प्रसिद्ध हैं। महाभारत काल में भी विराटनगर एक प्रमुख स्थान था। पाण्डु पुत्रों ने अपने वनवास का अंतिम वर्ष अज्ञातवास के रूप में यहीं व्यतीत किया था। इस क्षेत्र से पुरातात्विक सामग्री का विशाल भण्डार प्राप्त हुआ है।
भब्रू शिलालेख
विराटनगर की भब्रू पहाड़ी से मौर्य सम्राट अशोक का एक शिलालेख मिला है जिसे ई.1840 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (कलकत्ता) को स्थानांतरित कर दिया गया। इस शिलालेख का पता ई.1840 में कप्तान बर्ट ने लगाया था। कैप्टेन किटोई ने इसका लिथोग्राफ तैयार किया। यह शिलालेख इस दृष्टि से विलक्षण है कि अशोक के समस्त शिलालेख शिलास्तम्भों पर अंकित हैं किंतु भबू्र शिलालेख शिलाखण्ड अथवा शिलाफलक पर अंकित है।
इसमें अशोक ने मुनि-सुत्त, श्रेनागत भयानि, उपत्तिस्पेही एवं राहुलो वादसुत्त आदि सात बौद्ध ग्रन्थों से चुनकर सात उपदेश सम्बन्धी गद्यांश भिक्षुओं और श्रमणों के अध्ययन एवं मनन हेतु अंकित कराये हैं। यह पहाड़ी आजकल निर्जन है किंतु निश्चित रूप से उस काल में इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु रहते होंगे, इसीलिये इस शिलालेख को यहां लगाया गया होगा।
भीमजी की डूंगरी का शिलालेख
बैराठ से लगभग डेढ़ किलोमीटर उत्तर-पूर्व में भीमजी की डूंगरी के नीचे एक अस्पष्ट शिलालेख दिखाई देता है। यह शिलालेख रूपनाथ (सासाराम, बिहार) स्थित शिलालेख का बैराठ संस्करण कहा जा सकता है। इसका पता ई.1871-72 में कार्लाइल ने लगाया था। खुदा हुआ खण्ड 17 फुट ऊंचा और पश्चिम से पूर्व तक 24 फुट लम्बा है। उत्तर से दक्षिण यह 15 फुट लम्बा है। इसका सम्पादन डॉ. बुलहर और सेनार्ट ने किया था। इस शिलालेख में अशोक ने यह स्वीकार किया है कि उसने उपासक अवस्था में बौद्ध धर्म प्रचार के लिय अधिक प्रयत्न नहीं किया।
संघ में प्रवेश होने के एक वर्ष बाद से उसने बौद्ध धर्म का प्रचार करना आरम्भ किया। धर्म प्रचार के लिये किया गया सच्चा प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता है और ऐसे प्रयत्न का फल सबको समान रूप से मिलता है, चाहे वे धनी हों या निर्धन। इस शिलालेख में अशोक ने अपने धर्म का प्रचार राज्य के समस्त कोनों में होने की आशा व्यक्त की है और इस कार्य के लिये अपने राज्य के अधिकारियों को भी प्रोत्साहित किया है
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दो स्तरों में हैं अवशेष
बीजक की पहाड़ी तथा भीमजी की डूंगरी के शिलालेखों को पढ़कर ही दयाराम साहनी यहां के टीलों की खुदाई कराने का निर्णय लिया था। लगभग 20-25 फुट की गहराई तक खुदाई किये जाने पर बौद्ध कालीन सामग्री दिखाई देने लगी। लगभग 27 फुट नीचे खुदाई करने पर चैत्य (बौद्ध मंदिर) के अवशेष प्राप्त हुए। दोनों स्तर सीढ़ियों से जुड़े हुए हैं।