Saturday, July 27, 2024
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वैदिक धर्म के मोक्ष से अलग निर्वाण व्यवस्था

वैदिक धर्म में कर्मकाण्डों के माध्यम से मोक्ष की कामना की गई थी तथा कर्मकाण्डों की अधिकता के कारण जनता उनसे तंग आ गई थी किंतु बुद्ध का धर्म कर्मकाण्डों की आवश्यकता से मुक्त था। केवल सत्कर्म, सदाचार तथा सहिष्णु जीवन यापन करके निर्वाण प्राप्ति का मार्ग दिखाया गया था। बुद्ध के बताये हुए नियम इतने सरल थे कि इनका पालन करना सर्वसाधारण के लिए अधिक कठिन नहीं था।

इस कारण निर्धन, अपमानित, शोषित लोग ब्राह्मण धर्म की कठोर अनुशासन व्यवस्था को छोड़कर बुद्ध धर्म की सरल धर्म व्यवस्था में आने लगे। बहुत से राजाओं ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और उन्होंने बौद्ध संघों तथा विहारों को भोजन और वस्त्र की निःशुल्क व्यवस्था की। बौद्ध भिक्षुओं के संगठन को बौद्ध संघ कहते हैं। संघ के भिक्षु विहारों (मठों) में रहते थे और घूम-घूम कर अपने धर्म का उपदेश लोगों को देते थे। संघ के भिक्षुओं के अनुशासन के लिए कुछ नियम भी थे जो शुद्ध आचरण के हों और जिनमें नैतिक बल हो।

प्रारम्भ में बुद्ध ने स्त्रियों को संघ में प्रविष्ट होने की आज्ञा नहीं दी परन्तु बाद में शिष्यों के आग्रह पर उन्हें भी आज्ञा मिल गयी। इन स्त्री सदस्यों को कड़े नियमों का पालन करना पड़ता था, परन्तु इनका प्रवेश संघ के लिए अच्छा नहीं हुआ कयोंकि कालान्तर में इनके कारण संघ में भ्रष्टाचार फैल गया। संघ ने बौद्ध धर्म के प्रचार में बहुत सहायता पहुंचाई।

त्रिरत्न

बुद्ध, धर्म तथा संघ को ‘त्रिरत्न’ के नाम से पुकारा गया। जब भिक्षु लोग अपनी दैनिक प्रार्थनाएं करते थे तो उन्हें तीनों की वन्दना करनी पड़ती थी-

बुद्धं शरणं गच्छामि।

धम्मं शरणं गच्छामि।

संघं शरणं गच्छामि।।

बौद्ध संगीतियाँ

संगीति का अर्थ है सम्मेलन अथवा धर्मसभा। बौद्ध धर्म के विकास में चार बौद्ध संगीतियों का बहुत महत्व है। पहली बौद्ध संगीति बुद्ध के निर्वाण के कुछ समय उपरान्त राजगृह के निकट हुई। इसमें बुद्ध के उपदेशों का संकलन किया गया। दूसरी बौद्ध संगिती बुद्ध के निर्वाण के सौ वर्ष उपरान्त वैशाली में हुई।

इसमें बौद्धों में आपस में मतभेद हो गया। जिन लोगों ने परम्परा एवं नियमों को ही अपनाया, वे ‘स्थविर’ कहलाये। बौद्ध धर्म की तीसरी संगीति अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में हुई। इसमें बौद्ध धर्म के अनुयायियों में दो वर्ग हो गए। प्रगतिवादी तथा सुधारवादी बौद्धों के वर्ग ने स्वयं को ‘महायान’ के नाम से पुकारा और जो वर्ग प्राचीन बौद्ध धर्म का अनुयायी बना रहा उसे ‘हीनयान’ के नाम से पुकारा। इस प्रकार बौद्ध धर्म में हीनयान तथा महायान नाम के दो सम्प्रदाय हो गये।

 हीनयान तथा महायान

 ‘यान’ का शाब्दिक अर्थ ‘सवारी’ होता है किंतु यहां पर यान का अर्थ ‘मार्ग है। ‘हीन’ का अर्थ होता है निम्न। अतः हीनयान का शब्दिक अर्थ हुआ निम्न मार्ग। इस शब्द का प्रयोग महायान सम्प्रदाय के अनुयायियों ने अपने विपक्षियों के लिए किया। ‘महा’ का अर्थ होता है बड़ा। अतः महायान का शाब्दिक अर्थ हुआ बड़ा मार्ग।

हीनयान तथा महायान में बड़ा सैद्धन्तिक अन्तर है। हीनयान सम्प्रदाय बौद्ध धर्म के प्राचीन स्परूप को मानता है परन्तु महायान सम्प्रदाय उसके संशोधित तथा परिवर्तित स्वरूप को मानता है। हीनयान सम्प्रदाय वाले कट्ठरपन्थी होते हैं और बौद्ध धर्म के कठोर नियमों का पालन करने पर बल देते हैं परन्तु महायान सम्प्रदाय वाले सुधारवादी होते हैं और बौद्ध धर्म के कठोर नियमों को सरल बनाने के पक्षपाती होते हैं जिससे बौद्ध धर्म अधिक लोकप्रिय तथा जनसाधारण का धर्म बन जाये।

हीनयान सम्प्रदाय वाले केवल अपने ही उद्धार के लिए प्रयत्नशील रहते हैं परन्तु महायान सम्प्रदाय वाले अपने साथ-साथ अन्य लोगों के कल्याण के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं। हीनयान सम्प्रदाय वाले ईश्वर के अस्तित्व तथा पूजा-पाठ में विश्वास नहीं करते परन्तु महायान सम्प्रदाय वाले बुद्ध को परमात्मा मानते हैं और बुद्ध के साथ बोधिसत्वों की भी पूजा करते हैं। बोधिसत्व उन लोगों को कहते हैं, जो बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग का अनुसरण करते हैं।

हीनयान सम्प्रदाय वाले बुद्ध को महापुरुष मानते हैं और उनकी पूजा करने के पक्ष में नहीं हैं परन्तु महायान सम्प्रदाय वाले उन्हें सर्वशक्तिमान देवता के रूप में देखते हैं और बुद्ध की पूजा करने के पक्ष में हैं। महायान सम्प्रदाय के अनुयायी मूर्ति पूजक होते हैं और बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियों की पूजा करते हैं परन्तु हीनयान सम्प्रदाय वाले मूर्ति पूजक नहीं होते। महायान सम्प्रदाय में जीवन का अन्तिम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति था, परन्तु हीनयान सम्प्रदाय में जीवन का अन्तिम लक्ष्य अर्हृत पद की प्राप्ति था।

अर्हृत उस भिक्षु को कहते हैं जिसे निर्वाण प्राप्त हो जाता है। कालान्तर में महायान सम्प्रदाय में तन्त्र-मन्त्र का भी प्रचार होने लगा। हीनयान सम्प्रदाय के ग्रन्थ पालि भाषा में लिखे गए हैं, परन्तु महायान सम्प्रदाय वालों ने संस्कृत में भी ग्रन्थ रचना की है।

वज्रयान

जब देश में शैव एवं शाक्त आदि वामाचारी मतों का प्रचार हो गया जिनमें तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोने, साधना-सिद्धियां, चमत्कार आदि का बोलबाला था तब बौद्ध भी वाममार्गी प्रभाव से अछूते नहीं रहे। इस प्रभाव के कारण बौद्ध धर्म की महायान शाखा में से ‘वज्रयान’ नामक एक और शाखा विकसित हुई।

इन लागों ने विनय के नियमों को भंग कर दिया और अनैतिक कर्मों में लिप्त रहने के नियम बना डाले। फलतः तन्त्र-मन्त्र के विषय में ग्रन्थ लिखे गए और बौद्ध भिक्षु सरल सन्यासी न रह कर तन्त्र विद्या के प्रवीण तान्त्रिक हो गए। वज्रयानियों ने वामाचारियों के पांच मकारों- मीन, मांस, मदिरा, मुद्रा तथा मैथुन को अपना लिया। बौद्ध-केन्द्रों में तन्त्र-मन्त्र तथा झाड़-फूंक की शिक्षा दी जाने लगी।

आजीवक सम्प्रदाय

बौद्ध धर्म में आजीवक सम्प्रदाय भी विकसित हुआ जो नियति की अटलता में विश्वास करता था।

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