राजस्थान के पाली जिले में सेवाड़ी नामक एक अत्यंत प्राचीन गांव स्थित है। बारहवीं शताब्दी ईस्वी में इस गांव को शमीपाटी कहा जाता था। इस गांव में स्थित महावीर स्वामी के मंदिर से बारहवीं शताब्दी ईस्वी के दो शिलालेख मिले हैं। इन्हें सेवाड़ी के शिलालेख कहा जाता है।
ई.1107 का शिलालेख
इनमें से पहला शिलालेख तीन पंक्तियों का है। इस शिलालेख को 3′ 6” गुणा 2′ 3/4” के पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है। लेख संस्कृत भाषा तथा देवनागरी लिपि में उत्कीर्ण है। लेख का मूल पाठ इस प्रकार है-
‘सं.1164 चै. सु 6 महाराजाधिराज श्री अश्वराज राज्य श्री कटुकराज युवराज्ये समीपाठीय चैत्ये श्री धर्म्मनाथ देवसां नित्य पूज्यार्थ महसाहणिय पूअविपौत्रेण उत्तिम राजपुत्रैण उप्पल राईन मा गढ आंवल। वि. सलखण जोगादि कुटुंब सम। पद्राडा ग्रामो मेद्रचा ग्रामे तथा छेडड़िया मद्दवडी ग्रामे।। अरहर्ट प्रतिदत्तः जवाहरर्कः।’
इस लेख में कहा गया है कि विक्रम संवत् 1164 की चैत्र शुक्ला 6 (ईस्वी 1107) का महाराजाधिराज अश्वराज चौहान जिसका कि युवराज कटुकराज था, ने महावीरजी के चैत्य को पद्राड़ा, मेद्रचा, छेछड़िया तथा महड़ी गांवों से प्रत्येक रहट से एक हारक (एक डलिया की नाप) यव (जौ) प्रदान करने का आदेश दिया गया है।
इस दान की वैधानिक व्यवस्था महासाणिय उप्पलराक के द्वारा की जाएगी। यदि कोई व्यक्ति इस व्यवस्था को रोकेगा तो वह गौ, स्त्री, और ब्राह्मण की हिंसा के तुल्य पाप होगा। उस काल में साहणिय, अस्तबल का अधिकारी होता था।
इस शिलालेख से ज्ञात होता हे कि महासाणिय अर्थात् मुख्य अस्तबल अधिकारी को दान आदि की व्यस्थाएं सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी दी जाती थी।
ई.1115 का शिलालेख
सेवाड़ी के महावीर मंदिर का दूसरा शिलालेख वि.सं. 1172 (ईस्वी 1115) का है। यह आठ पंक्तियों का लेख है जिसे 2′ 1.25” गुणा 4.5” क्षेत्र में उत्कीर्ण किया गया है। शिलालेख की मुख्य पंक्तियां इस प्रकार हैं-
पंक्ति 4: इतश्चासीत् वि (शु) द्वात्मा यशोदेवो बलाधिपः। राज्ञं महाजनस्यापि सभायामग्रणी स्थितः।
पंक्ति 7: पिता महे (न) तस्येदं समीपाट्यां जिनालये। कारितं शांतिनाथस्य बिंबं जन मनोहरं।।
इस शिलालेख में अणहिल, जिंदराज, अश्वराज और कटुकराज आदि चौहान शासकों, यशोदेव नामक सेनाध्यक्ष (बलाधिप), बाहड़ नामक शिल्पी तथा उसके पुत्र थल्लक के नाम का उल्लेख किया गया है।
इस शिलालेख में सेवाड़ी गांव का नाम शमीपाटी लिखा गया है। इस शिलालेख में बलाधिप के गुणों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर किसी व्यक्ति को बलाधिप नियुक्त किया जाता था।
इस शिलालेख से अनुमान होता है कि थल्लक का पितामह भी चौहान शासकों का विश्वासप्राप्त शिल्पी था जिसने शांतिनाथ की प्रतिमा का निर्माण किया था।
इस शिलालेख में कहा गया है कि शमीपत्तन नामक नगर में महाराजा कटुकराज ने मंदिर के निमित्त जो दान दिया है उसकी अवहेना करने वाला पाप का भागी होगा तथा कामना की गई है कि इस दान को स्थायित्व प्राप्त हो।
सेवाड़ी के शिलालेखों में ऐतिहासिक तत्व
ये दोनों शिलालेख देखने में भले ही बहुत छोटे लगें किंतु इतिहास निर्माण की दृष्टि से अत्यंत महत्व के हैं। इन शिलालेखों से कई बातों की पुष्टि होती है। ये इस बात की पुष्टि करते हैं कि 12वीं शताब्दी ईस्वी में इस क्षेत्र पर चौहानों का शासक था।
शिलालेखों से पुष्टि होती है कि चौहान शासक जैन धर्म के मंदिरों को भी दान देते थे। उस काल में राजदरबार की भाषा संस्कृत थी और लेखन के लिए देवनागरी लिपि प्रयुक्त होती थी।
इन शिलालेखों से इस बात की भी पुष्टि होती थी कि राज्य के सेनाधिकारी यथा सेनापति, अश्वशाला का मुख्य अधिकारी आदि भी दान व्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाते थे। राजा की कामना होती थी कि जो दान वह दे रहा है, वह चिरकाल तक चलता रहे।
उस युग में पाली क्षेत्र के किसान अरहट से सिंचाई करते थे। गौ, स्त्री, और ब्राह्मण की हिंसा को सर्वाधिक गर्हित पाप समझा जाता था। सेनापतियों की नियुक्ति उनके गुणों के आधार पर होती थी। शिल्पियों के परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी राजवंश से जुड़े हुए रहते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सेवाड़ी के शिलालेख पाली क्षेत्र की तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थितियों की महत्वपूर्ण सूचना देते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता