जिला मुख्यालय भीलवाड़ा से चार किलोमीटर दूर स्थित सांगानेर दुर्ग का निर्माण अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (ई.1711-34) ने करवाया था।
महाराणा संग्राम सिंह (द्वितीय) ने भी अपने पूर्वजों की तरह मुगलों के पतन में भूमिका निभाई थी और मुगलों से युद्ध की नीति जारी रखी थी। इस कारण महाराणा संग्रामसिंह ने अपनी सेना रखने के लिए में पुराने दुर्गों का जीर्णोद्धा किया तथा नए किले बनवाए। सांगानेर का दुर्ग भी उसी क्रम में बनवाया गया था।
महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने इस दुर्ग के पास एक सैनिक छावनी का भी निर्माण करवाया था जिसमें मेवाड़ की सेना रखी जाती थी। सांगानेर दुर्ग ऊंची चट्टानों पर खड़ा है तथा इसके चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई है। इस कारण यह दुर्ग गिरि दुर्ग श्रेणी एवं पारिघ दुर्ग श्रेणी में आता है।
वर्तमान समय में सांगानेर दुर्ग यद्यपि खण्डहर हो गया है तथापि उसका परकोटा एवं भीतर के कुछ भवन अब भी मजबूत दिखाई देते हैं। अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दियों में यह दुर्ग मेवाड़ राज्य के देवगढ़ तथा मेजा ठिकानों के अंतर्गत आता था। सांगानेर का दुर्ग भीलवाड़ के दक्षिण में स्थित अरावली की चट्टानों पर खड़ा है।
सांगानेर कस्बे में चारभुजा नाथ का चार सौ वर्ष पुराना मंदिर, दो जैन मंदिर तथा रावला चौक में स्थापित गणेशजी की मूर्ति दर्शनीय हैं। इस चौक में पहले माच के ख्याल के उत्सव हुआ करते थे। अब माच-ख्याल की कला लुप्त हो गई है।
होली के अवसर पर गैर तथा दशहरे के अवसर पर रामलीला रावला चौक में आयोजित होती हैं। जयपुर जिले के सांगानेर कस्बे की भांति भीलवाड़ा जिले के सांगानेर में भी किसी समय जुलाहे, छीपे तथा नीलगर बड़ी संख्या में रहते थे और कपड़ों की रंगाई-छपाई का काम बड़े स्तर पर होता था। समय के साथ जुलाहे, छीपे तथा नीलगर उजड़ गए और उनका काम मशीनें करने लगीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता