Saturday, September 21, 2024
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राजस्थान के भित्तिचित्र

राजस्थान के भित्तिचित्र काल, विषय, शैली, रंग संयोजन एवं सामाजिक प्रयोजनों की दृष्टि से अनूठे हैं। इनसे राजस्थान के विभिन्न कालखण्डों की संस्कृति का इतिहास लिखने में सहायता मिलती है।

जो चित्र भित्ति अर्थात् भींत (दीवार) पर बनते हैं, उन्हें भित्तिचित्र कहा जाता है। भित्तिचित्रों को अंग्रेजी में भित्तिचित्रों को फ्रैस्कोभी कहा जाता है।

शैलचित्र

जिस समय मनुष्य ने सभ्यता के डग भरने आरम्भ किए, उसी समय से उसके मस्तिष्क में गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाने का विचार आया। इस कारण भित्तिचित्रों का इतिहास संस्कृति के उषाकाल से ही प्रारम्भ होता है। उस काल के भित्तिचित्रों में पर्वतीय गुफाओं में गेरू मिट्टी से उकेरे गए विभिन्न प्रकार के पशुओं की आकृतियां प्रमुख हैं।

राजस्थान में भी प्राचीन काल के भित्तिचित्रों को जोधपुर से लेकर झालावाड़ तक देखा गया है। मध्यप्रदेश में कैमार की पहाड़ियों में प्रागैतिहासिक काल के चित्र उपलब्ध हुए है। सिंघनपुर (रामगढ़, मध्यप्रदेश) में जंगली पशुओं और उनके शिकार सम्बन्धी चित्र प्राप्त हुए हैं। योगीमारा (मध्यप्रदेश) की गुफाओं में प्रथम शती ईसा पूर्व के कुछ चित्र उपलब्ध हुए हैं। बाघ और अजन्ता की गुफाओं के चित्र संसार प्रसिद्ध हैं।

राजस्थान में भी इस दृष्टि से सर्वेक्षण किया गया है और पुरातत्त्व विभाग ने भरतपुर जिले में बैराठ के समीप भरतपुर नगर से चालीस मील दूर दरनामक स्थान पर, उत्तर पाषाण काल के कुछ भित्तिचित्र होना बतलाया है परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह चित्र न होकर लगातार पानी गिरने से कोई आकृति पत्थर पर स्वतः बन गई है। पाषाण काल के चित्रों में प्रायः शिकार के दृश्य मिलते हैं जबकि नाना प्रकार की आकृतियाँ अंकित निशानों में ऐसा कोई अंकन नहीं हैं।

प्राचीन काल के भित्तिचित्र

पुराकालीन भित्तिचित्रों के बाद भी राजस्थान में चित्रकला का हुआ विकास हुआ किंतु प्राचीन काल की चित्रकला नष्ट हो गई है। राजस्थान में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों में दसवीं शती ईस्वी एवं उसके बाद के चित्र बहुतायत से प्राप्त होते हैं परन्तु उससे पहले के चित्र बहुत कम मिलते हैं। दसवीं शताब्दी इस्वी से पहले के भित्तिचित्र भी बहुत कम संख्या में मिले हैं।

भित्तिचित्रों की मुगल शैली

अकबर और जहांगीर दोनों ने आगरा के लाल किले में मध्य-एशियाई विषयों के चित्र बनवाये थे। इसे मुगल शैली कहा गया।

जयपुर में आमेर के किले में अकबरी मसजिद के सामने के मकबरे में अकबर कालीन अर्थात् सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के भित्तिचित्र पुरातत्त्व विभाग द्वारा खोजे गए हैं। जयपुर में स्थित राजा भारमल की छतरी में भी भित्तिचित्र मिलते हैं। बैराठ के मुगलबाग में जहांगीर काल के सुन्दर चित्र उपलब्ध हुये हैं। इन चित्रों की विशेषता चमकदार जामे, जहांगीरी पगड़ियां, छोटी गर्दन, स्त्रियों के तिलक, उसमें काले फुंदने, चूड़ीदार पजामे, पुर्तगाली ढंग के टोप एवं परियों आदि के चित्रण शामिल हैं।

भित्तिचित्रों की राजपूत शैली

मुगलों के अधीन काम करने वाले राजपूत राजाओं ने भी मुगल चित्रशैली को अपने राज्यों में बढ़ावा दिया किंतु स्थानीय प्रभाव के कारण मुगल चित्रशैली राजपूत राज्यों में आकर अलग ढंग में ढल गई जिसे राजपूत शैली कहा गया।

विभिन्न राजपूत रियासतों के कलाकारों ने अपनी-अपनी कल्पना से इस शैली को अलग-अलग आकार दिए जिनके कारण राजपूत शैली भी किशनगढ़ शैली, मारवाड़ शैली, बीकानेर शैली, बूंदी शैली आदि नामों से जानी गई। इस प्रकार इन कलाकारों ने अपनी अपनी रुचि, सुविधा और उपलब्ध सामग्री के अनुसार प्रत्येक रियासत में एक शैली का विकास किया। फ्रैस्कोशैली के अनुकरण से बनाए गये।

जयपुर के भित्तिचित्र

जयपुर राज्य में सवाई जयसिंह अथवा जयसिंह द्वितीय के समय बड़ी संख्या में भित्तिचित्र बने। इसका कारण संगमरमर के बुरादे और राहौरी की कली की उपलब्धि थी। इनके प्रयोग से चित्र चमकदार और टिकाऊ बन पाता है। भाउपुरा, रैणवाल, जयपुर-मालपुरा सड़क पर जयपुर नगर से 30 मील दूर महाराजा जयसिंह (प्रथम) की धाय की छतरी में 17 वीं शती के चित्र प्राप्त हुए हैं। छतरी की ताकों में जो ऊंट, हाथी, साधु एवं स्त्री पुरुषों से सम्बन्धित लगभग बारह भित्तिचित्र बने हैं जो ग्राम-कला से साम्य रखते हैं।

जयपुर के अधिकांश राजा वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले थे किंतु कुछ राजाओं ने शैव मत को भी प्रश्रय दिया। जयपुर के वैष्णव राजाओं के समय के चित्रों में कृष्ण लीला सम्बन्धी चित्र अधिक मिलते हैं, मच्छी दरवाजे के ऊपर छतरी में राग-रागनियों के चित्र बने हैं। मन्दिरों के बाहर दीवारों पर भी अनेक चित्र बने हैं।

जयपुर नगर में माधोसिंह (प्रथम) के समय के भित्तिचित्र उपलब्ध होते हैं। आमेर के रास्ते में गेटोर की तरफ, ब्रह्मपुरी, में पुण्डरीकजी की हवेली के एक कमरे में कुछ भित्तिचित्र उपलब्ध हैं। उनके विषय बारहमासा, जनानखाने में स्त्रियों द्वारा मद्यपान, सवारी, सवाई जयसिंह और उनके नवरत्नादि हैं। यह कमरा केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित है।

जयपुर नगर की दुसाद्यों की हवेली में दो चित्र श्रीकृष्ण और राधा से सम्बन्धित हैं। जयपुर नगर में पुरानी बस्ती में जंगजीत महादेव के पास सामोद की हवेली में कामसूत्र के चित्र देखे जा सकते हैं। परतानियों के रास्ते में भी एक मकान में बारहमासे के चित्र बने हैं। जयपुर से 30 मील दूर चौमूं की सड़क पर सामोद के महलों में भी अच्छे भित्तिचित्र मौजूद हैं।

जयपुर में भित्तिचित्रों का काम आज भी होता है। आधुनिक काल के भित्तिचित्र कलाकारों में गोवर्धन जोशी, देवकीनन्दन, कृपालसिंह आदि के नाम प्रमुख हैं।

शेखावाटी के भित्तिचित्र

राजस्थान के भित्तिचित्र शेखावाटी की हवेलियों में पूरे वैभव के साथ प्रकट हुए। शेखावाटी की हवेलियों के भित्तिचित्रों को देखने के लिए संसार भर से कलाप्रेम शेखावाटी का भ्रमण करते हैं।

शेखावाटी की हवेलियों में बड़ी संख्या में मुगलकालीन एवं ब्रिटिशकालीन भित्तिचित्र बने हुए हैं। नवलगढ़, रामगढ़, चूरू, फतेहपुर, मंडावा आदि कस्बों में स्थित हवेलियों के चित्र बरूआ ने सेठ आनन्दी लाल पोद्दार स्मारिका ग्रंथ में प्रकाशित किया है। इन चित्रों में ढोला मारू, झूलती नायिकाओं एवं पनिहारियों के चित्र प्रमुख हैं।

अलवर के भित्तिचित्र

अलवर राजमहल में बहुत सुन्दर भित्तिचित्र अंकित हैं जिनमें बेलबूटों के अलंकरण भी सम्मिलित हैं। इन भित्तिचित्रों में काँच की जुड़ाई का काम प्रमुख है। यह काम महाराजा विनयसिंह के शासनकाल में हुआ। अलवर नगर में दीवानजी की हवेली में भी भित्तिचित्र बने हुए हैं जिनमें बख्तावरसिंह की सवारी, हाथियों की लड़ाई एवं झूलती हुई स्त्रियों के दृश्य प्रमुख हैं। इन भित्तिचित्रों पर वारनिश की गई है ताकि इन्हें अधिक चमकीला एवं अधिक समय तक टिके रहने वाला बनाया जा सके।

अलवर से जयपुर के मार्ग में 20 मील दूरी पर राजगढ़ के किले में भी भित्तिचित्र उपलब्ध हुए हैं जो महाराजा वीरेन्द्रसिंह के समय में बने थे। महल की छत में शीशे की कटाई और बेलबूटों का काम है और दीवारों पर भित्तिचित्र बने हैं जिनके विषय कृष्णलीला, सुर-सुन्दरियाँ, पंखा लिए स्त्रियां, कांटा निकालती नायिका, अंगड़ाई लेती नायिकाएं प्रमुख हैं।

मेवाड़ के भित्तिचित्र

मेवाड़ के सबसे पुराने भित्तिचित्र चौर-पच्चासिका के ई.1500 के आसपास के हैं जो पहले मालवा या जौनपुर शैली के समझे जाते थे। महाराणा कुम्भा के महल में 15वीं शती के भित्तिचित्र मौजूद हैं। नगरसेठ की हवेली में भी कामसूत्र के चित्र, अंगड़ाई लेती नायिकाओं के चित्र और हाथियों की लड़ाई के दृश्य उपलब्ध होते हैं।

जगनिवास महल में महाराणा भीमसिंह और दो विदेशी लड़कियों के चित्र मिलते हैं जिनके नाम पर सहेलियों की बाड़ी प्रसिद्ध है। लड़कियों के सिर पर पुर्तगाली ढंग की टोपियां हैं। उदयपुर नगर के अन्य स्थानों में बारैठ की हवेली, दौलतराम तिवाड़ी की हवेली, बापना की हवेली, भाटी गणेशीलाल की हवेली में भी भित्तिचित्र मिले हैं।

जोधपुर के भित्तिचित्र

जोधपुर के मेहरनागढ़ किले में बने भित्तिचित्रों में नायिकाओं के चित्र प्रमुख हैं। दरवाजों के पल्लों पर, और लकड़ी के मठोठों पर वारनिश किये चित्र बने हैं।

बीकानेर के भित्तिचित्र

बीकानेर के जूनागढ़ किले में जो चित्र बने हैं उन सब पर वारनिश की गई हैं। यह काम उस्ता खानदान के कलाकारों की देन है जिस पर मुगल शैली का प्रभाव है। बीकानेर के उस्ताओं ने दीवारों से लेकर ऊँट के चमड़ों एवं कैनवास पर बहुत बारीक काम किया है।

नागौर के भित्तिचित्र

यद्यपि नागौर जोधपुर राज्य के अंतर्गत रहा तथा बहुत कम काल के लिए स्वतंत्र राज्य के रूप में भी रहा किंतु नागौर के भित्तिचित्रों पर बीकानेर शैली का प्रभाव अधिक है। ऊपर की मंजिल की दीवारों पर नहाती हुई और मद्यपान करती रानियों के चित्र हैं। नागौर में मुसलमानों का भी आधिपत्य रहा। इसलिए महल की नीचे की मान्जिल के कक्ष की छत पर अबाबा पहने, मुसलमानी टोपी लगाये, पंखदार स्त्रियों के चित्र देखने को मिलते हैं।

कोटा के भित्तिचित्र

कोटा में झाला की हवेली के चित्र विश्व भर में प्रसिद्धि पा चुके हैं। कला समीक्षक कैरी वैल्व, आर्चर, बैरैट, स्कैल्टन आदि लोगों ने कोटा के भित्तिचित्रों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। इन भित्तिचित्रों में कामसूत्र, पतंग उड़ाती नायिकाओं के चित्र, चिड़ियों को अंगुलियों पर बिठाये स्त्रियों के चित्र और शिकार के चित्र उपलब्ध होते हैं। रसिकबिहारी जी के मंदिर में कामसूत्र के चित्र मिले हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राजस्थान के भित्तिचित्र कला का एक अद्भुत संसार प्रस्तुत करते हैं।

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