मधुपुरगढ़ के अब अवशेष ही देखे जा सकते हैं। इसका निर्माण कोटा महाराव मुकुंदसिंह ने अरावली पर्वत शृंखला में कोटा से मालवा जाने वाले मार्ग पर करवाया था। यह कोटा से 35 किलोमीटर दूर तथा कोटा-झालावाड़ मार्ग पर मण्डाना से 4-5 किलोमीटर दूर वनप्रांतर में स्थित है।
यह दुर्ग अरावली पर्वत शृंखला से मालवा की तरफ जाने वाले मार्ग को रोककर खड़ा है। यहाँ से प्राप्त वि.सं.1791 के शिलालेख में इस दुर्ग को मधुपुरगढ़ कहा गया है। कालांतर में इसे मधुकर गढ़ के नाम से जाना जाता था। अब दुर्ग लगभग नष्ट हो गया है तथा उस काल के कुछ मंदिर ही बच गए हैं। स्थानीय लोग इसे मंदरगढ़ कहते हैं।
जब मुगल साम्राज्य के अस्ताचल की ओर बढ़ जाने पर राजपूत रियासतें अरक्षित रह गईं तथा मराठों ने राजपूताना रियासतों को रौंदना आरम्भ किया तब मालवा की सीमा पर स्थित कोटा राज्य ने मराठों को इस क्षेत्र में आने से रोकने के लिये इस दुर्ग का निर्माण करवाया।
मालवा से कोटा आने का एक मार्ग मुकुंदरा की पहाड़ियों से होकर आता था, वहाँ भी महाराव मुकुंदसिंह ने सघन अरावली पर्वत माला की नाका-बंदी करवाकर मुकुंदरा गढ़ का निर्माण करवाया था ताकि कुछ सैनिकों को वहाँ भी तैनात रखा जा सके।
इस दुर्ग तक जाने का मार्ग अत्यंत संकरा है तथा पहाड़ियों के बीच होकर जाता है। यहाँ एक विशाल झील भी स्थित है जिसके कारण यह जलदुर्ग की तरह दिखाई देता है। इस दुर्ग की प्राचीर के अवशेष आज भी दिखाई देते हैं। मानव बस्ती पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। घरों के स्थान पर पत्थरों के ढेर एक बहुत लम्बे क्षेत्र में फैले हुए हैं।
मंदिरों में देव-प्रतिमाएं आज भी विद्यमान हैं जिनमें से कुछ की नियमित रूप से पूजा भी होती है। यहाँ बने हुए घर तथा मंदिर खींची चौहानों के काल के हैं जबकि गढ़ के अवशेष हाड़ा चौहानों के काल के हैं। कुछ मंदिरों की प्रतिमाएं खींची चौहान शासकों के काल से भी पुरानी हैं।
झील के किनारे कुछ सतियों के चबूतरे बने हुए हैं।एक चबूतरे पर वि.सं.1791 का शिलालेख लगा है। इसमें कहा गया है- ‘‘श्री प्रेमपुर जी संवतु 1791 ब्रषम पोस सुदी 4 वार मंगलवार के दिन मधुपुरगढ़ महारानी महारावजी श्री दुरजनसालजी पाती साही महान साही जा को हजूरी दली।’’
ई.1761 में कोटा और जयपुर की सेनाओं के बीच जब भटवाड़ा का युद्ध हुआ तो मल्हारराव होलकर इसी मार्ग से होकर कोटा राज्य की सीमा में आया तथा कुछ समय तक मधुपुर गढ़ में रहा। यहीं से कोटा महाराव का कर्मचारी राय अख्यराज पंचोली होलकर को भटवाड़ा के मैदान तक ले गया।
ई.1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से समझौता करने के बाद जब राजपूताना की रियासतें मराठों के आक्रमणों के भय से मुक्त हो गईं तब यह दुर्ग अप्रासंगिक हो गया होगा तथा खाली कर दिया गया होगा क्योंकि यहाँ सैनिक नियुक्त रखने का कोई लाभ नहीं रह गया था। तब से यह दुर्ग खण्डहर में बदलता चला गया होगा।