भीलवाड़ा जिले के जहाजपुर कस्बे में स्थित जहाजपुर दुर्ग का प्रारम्भिक निर्माण परवर्ती मौर्यों द्वारा करवाया गया। इस क्षेत्र में गुहिलों की सत्ता का प्रसार होने से पहले परवर्ती मौर्य शासकों का ही शासन था। समय के साथ मौर्य शासक इतिहास के नेपथ्य में जाते चले गए और गुहिल शासक अपनी शक्ति का विस्तार करते चले गए।
जहाजपुर दुर्ग लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है तथा चारों ओर से दोहरी प्राचीर से घिरा हुआ है। बाहरी प्राचीर में बुर्ज बनी हुई हैं। वर्तमान दुर्ग महाराणा कुंभा का बनाया हुआ है। दुर्ग परिसर में सर्वेश्वरनाथ का मंदिर तथा कुछ जलाशय बने हुए हैं। सोलहवीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा ई.1572 में इसे स्वर्गीय महाराणा उदयसिंह के दूसरे नम्बर के पुत्र जगमाल को दे दिया जो अपने बड़े भाई महाराणा प्रताप का विरोधी होकर अकबर के दरबार में रहता था।
वस्तुतः महाराणा उदयसिंह ने अपने द्वितीय पुत्र जगमाल को ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया था किंतु मेवाड़ी सरदारों ने उसे हाथ पकड़कर सिंहासन से उतार दिया तथा उदयसिंह के बड़े पुत्र प्रतापसिंह को अपना महाराणा स्वीकार किया। इसलिए जगमाल नाराज होकर अकबर के दरबार में जाकर रहने लगा।
अकबर ने जगमाल को चित्तौड़ का दुर्ग दिया किंतु मेवाड़ी सरदारों ने जगमाल को महाराणा मानने से मना कर दिया। इस पर वह अकबर के दरबार में चला गया और अकबर ने उसे जहाजपुर दुर्ग दे दिया।
चारणों की ख्यातों में महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्ति सिंह के बारे में भी यही लिखा है कि वह भी अकबर के दरबार में रहता था किंतु शक्तिसिंह का अकबर के दरबार में जाकर रहना संदिग्ध लगता है।
18वीं शताब्दी ईस्वी में शाहपुरा के राजा ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1806 में कोटा के फौजदार झाला जालिमिंसंह ने जहाजपुर दुर्ग पर अधिकार किया किंतु ई.1819 में मेवाड़ ने पुनः यह दुर्ग अपने अधीन किया। रख-रखाव के अभाव में अब यह दुर्ग क्षतिग्रस्त एवं खण्डहर होता जा रहा है।