राजपूताने में यह जनश्रुति प्रचलित है कि एक दिन अकबर ने बीकानेर के राजा रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज से कहा कि राणा प्रताप अब हमें बादशाह कहने लगा है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गया है। पृथ्वीराज, भगवान श्रीकृष्ण का भक्त था तथा अपने समय का श्रेष्ठ कवि था। उसने अकबर से कहा कि यह सूचना असत्य है। इस पर अकबर ने कहा कि तुम सत्य सूचना मंगवाकर मुझे सूचित करो। इस पर पृथ्वीराज ने नीचे लिखे हुए दो दोहे बनाकर महाराणा के पास भेजे-
पातल जो पतसाह, बोलै, मुख हूंतां बयण।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत।।
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।।[1]
अर्थात्- (महाराणा) प्रताप यदि (अकबर) को अपने मुख से बादशाह कहें तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे। (अर्थात् यह असंभव है।) हे दीवाण[2] (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार से अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।
इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार भिजवाया-
तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग।।
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण।
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां, वैण तुरक सूं बाद।।[3]
अर्थात्- (भगवान) एकलिंगजी इस शरीर से (प्रतापसिंह के मुख से) तो अकबर को तुर्क ही कहलवायेंगे और सूर्य यथावत् पूर्व दिशा में उदय होता रहेगा। हे राठौड़ पृथ्वीराज! जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये। (राणा प्रताप) सिर पर सांग (भाले) का प्रहार सहेगा क्योंकि अपने बराबर वाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज! तुर्क (बादशाह) के साथ के वचन रूपी विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।
यह उत्तर पाकर पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा में उसका उत्साह बढ़ाने के लिये उसने यह गीत लिखकर भेजा-
नर जेथ निमाणा निलजी नारी,
अकबर गाहक बट अबट।
चोहटै तिण जायर चीतोड़ो,
बेचै किम रजपूत घट।।
रोजायतां तणैं नवरोजै,
जेथ मसाणा जणो जण।
हींदू नाथ दिलीचे हाटे,
पतो न खरचै खत्रीपण।।
परपंच लाज दीठ नह व्यापण,
खोटो लाभ अलाभ खरो।
रज बेचबा न आवै राणो,
हाटे मीर हमीर हरो।।
पेखे आपतणा पुरसोतम,
रह अणियाल तणैं बळ राण।
खत्र बेचिया अनेक खत्रियां,
खत्रवट थिर राखी खुम्माण।।
जासी हाट बात रहसी जग,
अकबर ठग जासी एकार।
है राख्यो खत्री ध्रम राणै,
सारा ले बरतो संसार।। [4]
अर्थात्- जहाँ पर गौरवहीन पुरुष और निर्लज्ज नारियां हैं और जैसा चाहिये वैसा ग्राहक अकबर है, उस बाजार में जाकर चित्तौड़ का स्वामी (राणा प्रताप) रजपूती को कैसे बेचेगा? मुसलमानों के नौरोज[5] में प्रत्येक व्यक्ति लुट गया किंतु हिन्दुओं का स्वामी प्रतापसिंह दिल्ली के उस बाजार में अपने क्षात्रत्व को नहीं बेचता। हम्मीर का वंशधर (प्रताप), प्रपंची अकबर की लज्जाजनक दृष्टि को अपने ऊपर नहीं पड़ने देता और पराधीनता के सुख के लाभ को बुरा तथा अलाभ को अच्छा समझकर बादशाही दुकान पर रजपूती बेचने कदापि नहीं आता। अपने पुरखों के उत्तम कर्त्तव्य देखते हुए आप (महाराणा प्रताप) ने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रक्खा, जबकि अन्य क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व को बेच डाला। अकबर रूपी ठग भी एक दिन इस संसार से चला जायेगा और उसकी यह हाट भी उठ जायेगी परन्तु संसार में यह बात अमर रह जायगी कि क्षत्रियों के धर्म में रहकर उस धर्म को केवल राणा प्रतापसिंह ने ही निभाया। अब पृथ्वी भर में सबको उचित है कि उस क्षत्रियत्व को अपने बर्ताव में लावें अर्थात् राणा प्रतापसिंह की भांति आपत्ति भोगकर भी पुरुषार्थ से धर्म की रक्षा करें।
[1] मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत, महाराणायशप्रकाश, पृ. 87.
[2] उदयपुर के महाराणा, एकलिंगजी को मेवाड़ का राजा और स्वयं को उनका दीवान अर्थात् मंत्री कहते थे।
[3] मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत, महाराणायशप्रकाश, पृ. 88.
[4] मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत, महाराणायशप्रकाश, पृ. 94-95.
[5] नौरोज का उत्सव ईरानी प्रथा के अनुसार प्रत्येक नये सौर वर्ष के प्रारंभ में 1 फरवरदीन से 19 दिन तक मनाया जाता था। यह उत्सव अकबर ने ही अपने राज्य में प्रचलित किया था। अकबर इस दौरान राजपूत राजाओं की तरह कपड़े धारण कर एवं ब्राह्मणों से तिलक लगवा कर शामियाने में बैठ जाता था। इस अवसर पर मीना बाजार लगता था जिसमें हिन्दू व मुसलमान अमीरों की औरतें दुकानें सजाती थीं जिन पर बादशाह तथा उसकी बेगमें खरीददारी करती थीं। रात भर नाच-गाना भी होता था। इस पूरे आयोजन में अकबर ही एकमात्र पुरुष होता था, शेष सब महिलाएं होती थीं।