हरसोलाव गांव, गोटन से जोधपुर जाने वाले सड़क मार्ग पर स्थित है। कहा जाता है कि आज से लगभग 1000 वर्ष पहले रूण गांव से आये हरसाराज टाडा ने इस स्थान पर छड़ी रोप कर अपना परिवार बसाया जिसने आगे चलकर एक गांव का रूप ले लिया।
हरसोलाव गांव चाम्पावत राजपूतों की जागीर में था। इस गांव के जागीरदारों के पास कुल 12 गांवों की जागीर थी जिसमें हरसोलाव, कुचेरा, बोडवा, सेधणी तथा जोधपुर जिले का बिसलपुर गांव सम्मिलित थे। पांच गांव पंजाब में थे।
हरसोलाव का चाम्पावत जागीरदार बलवन्तसिंह (ई.1591 में जन्म एवं ई.1644 में मृत्यु) बड़ा प्रसिद्ध हुआ। वह जोधपुर बीकानेर, बून्दी तथा चित्तौड़गढ़ राज्यों में सामंत रहा। उसकी मृत्यु ई.1644 में अमरसिंह राठौड़ के पक्ष में लड़ते हुए आगरा के लाल किले में हुई। बलवंतसिंह की स्मृति में आगरा में एक छोटी छतरी बताई जाती है।
बलवन्तसिंह के बारे में कई किवदंतियां प्रचलित हैं। एक बार उसने मध्य प्रदेश में किसी के पास अपनी मूंछ का बाल गिरवी रखा किंतु असमय मृत्यु हो जाने से उसे छुड़ा नहीं सका। उसकी चौथी पीढ़ी के ठाकुर सूरतसिंह ने बलवन्तसिंह का कर्जा पटाकर उसकी मूंछ का बल छुड़वाया और उस बाल का अन्तिम संस्कार करवाया।
बलवंतसिंह का पहला अन्तिम संस्कार आगरा में हुआ था। दूसरे अंतिम संस्कार की कहानी इस प्रकार बताई जाती है कि बलवन्तसिंह ने किसी व्यक्ति को कोई वचन दिया था किंतु अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हो जाने से बलवंतसिंह अपना वचन पूरा नहीं कर सका। अतः बलवंतसिंह ने दुबारा जन्म लिया तथा अपना वचन निभाते हुए देबारी घाटी में मुगलों से लड़कर शहीद हुआ। वहाँ भी उसकी स्मृति में एक चबूतरा बना हुआ है। उसका दूसरा अंतिम संस्कार वहीं हुआ।
हरसोलाव की खानों से निकलने वाला लाल इमारती पत्थर नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। टाडों की खान से निकलने वाला गुलाबी पत्थर जोधपुर के छीतर पत्थर जैसा है। गांव के प्राचीन एवं नवीन भवनों एवं स्मारकों के निर्माण में दोनों प्रकार का पत्थर प्रयुक्त हुआ है।
प्रस्तर की उपलब्धता के कारण गांव में अनेक शिल्पी रहते हैं जो स्थापत्य एवं शिल्पकला के अच्छे ज्ञाता हैं। हरसोलाव में एक पुराना दुर्ग, गणेश मंदिर, जैन मंदिर तथा रामचन्द्र गुर्जर की छतरी दर्शनीय है। इन भवनों में प्रस्तर पर बारीक कलात्मक कटाई की गई है। हरसोलाव में बनी अनाज पीसने की हाथ की चक्कियां तथा जूनियां भी दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं।
-इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



