शाहाबाद दुर्ग, कोटा-शिवपुरी-ग्वालियर राजमार्ग पर, एक विशाल पर्वत शृंखला की तलहटी में, कूनू नदी के बाएं तट पर स्थित है तथा जिला मुख्यालय बारां से 80 किलोमीटर दूर है। यह राजस्थान तथा भारत के सुदृढ़तम दुर्गों में से एक है। प्राकृतिक दुर्गमता की दृष्टि से यह, रणथम्भौर दुर्ग के पश्चात् दूसरा महत्वपूर्ण किला माना जाता है। शाहाबाद तहसील की सीमाएं कई स्थानों पर मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले के कौलारस परगने की सीमाओं को छूती हैं।
दुर्ग की श्रेणी
यह दुर्ग एक ऊँचे पर्वत पर बना है। इस कारण यह गिरि दुर्ग की श्रेणी में आता है। इसके दो ओर कुण्डाखेह नामक पानी का झरना एक प्राकृतिक खाई का काम करता है तथा तीसरी ओर एक तालाब है। तीन तरफ से जल से घिरा हुआ होने के कारण यह औदुक दुर्ग की श्रेणी में आता है। जिस समय इसका निर्माण हुआ था, उस समय इसके चारों ओर घना जंगल था, जिसके कारण यह ऐरण दुर्ग की श्रेणी में आता था।
शाहाबाद दुर्ग के निर्माता
इस दुर्ग के निर्माता रणथंभौर के चौहान शासक हम्मीर के पुत्र जसराज के वंशज थे। जसराज का वंशज सारंगदेव ग्यारहवीं शताब्दी में इस तरफ आया तथा उसने इस क्षेत्र पर शासन कर रहे धनेड़िया राजपूतों को परास्त करके इस क्षेत्र पर अधिकार किया। उसकी राजधानी शाहाबाद दुर्ग से दो किलोमीटर दूर सहजनपुर में थी। उसके वंशज जगमणिदेव मुकुटमणि ने शाहाबाद की पुरानी बस्ती के खण्डहरों पर चैत्र बदि 3 मंगलवार संवत् 1577 (ई.1521) को शाहाबाद के प्रसिद्ध दुर्ग की स्थापना की।
दुर्ग तक पहुंचने का मार्ग
शाहाबाद कस्बे से पश्चिम की ओर लगभग दो किलोमीटर पहाड़ी मार्ग पर चलने के पश्चात् किले का मुख्य द्वार आता है।
दुर्ग का स्थापत्य
यद्यपि यह दुर्ग भीतर से खण्डहर एवं वीरान है परन्तु दुर्ग के बाहर का परकोटा सुरक्षित है। यहाँ स्थित पुरावशेषों में शाहाबाद का किला, बादल, महल, जामा मस्जिद, थानेदार नाथूसिंह की छतरी तथा दो बावड़ियां मुख्य हैं। दुर्ग परिसर में स्थित समस्त दस मंदिर अब भग्नप्रायः हैं, जिनमें से कई मूर्तियां हटा ली गई हैं।
सामान रहित किले का तोपखाना अभी भी मौजूद है। दो बारूदखाने अच्छी स्थिति में हैं, जिनमें से एक पूरी तरह से बन्द है तथा दूसरा खुला हुआ है। रियासती काल में किले की बुर्जों पर अठारह तोपें लगी रहती थीं, जिनमें से 19 फुट लम्बी नकलवान तोप बड़ी विख्यात थी। शाहाबाद किले की बावड़ी का जल कभी नहीं सूखता।
बावड़ी के भीतरी कक्षों में लगे किवाड़ न तो गले-सड़े हैं और न ही कहीं से टूटे हैं। किवाड़ों में लगे ताले भी इसके निर्मल जल में ऊपर से साफ दिखाई देते हैं। लोक किम्वदन्ती है कि इन कक्षों के भीतर विपुल धन-सम्पत्ति रखी है तथा इस खजाने की बीजक शिवपुरी या झालावाड़ में है, परन्तु आज तक किसी ने इन्हें नहीं देखा है।
चौहान राजा इन्द्रमन द्वारा निर्मित बादल महल अब भी विद्यमान है। यह महल शाहाबाद की विशिष्ठ वास्तु-शिल्प का परिचायक है। इसका द्वार विशाल, भव्य एवं अलंकृत है। किसी समय दरवाजे के साथ ऊँचे प्लेटफार्म पर दोनों ओर बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं लगी हुई थीं। शाहाबाद के निवासी इन्हें अललपंख कहकर पुकारते थे। अललपंख पंख-युक्त हाथी होता है जो अपने चारों पैरों तथा सूंड में पांच छोटे-छोटे हाथी लेकर उड़ता हुआ दिखाया गया है।
ये दोनों मूर्तियां अब यहाँ से निकालकर कोटा जिला कलक्टर कार्यालय में स्थापित कर दी गई हैं। शाहाबाद की जामा मस्जिद, राजस्थान की बड़ी मस्जिदों में से एक मानी जाती है। इस मस्जिद की मीनारों को लोग सुरही कहकर पुकारते हैं। ये मीनारें लगभग 150 फुट ऊंची हैं तथा प्रत्येक मीनार के ऊपर एक-एक छतरी बनी हुई है। ये मीनारें कई मील दूर से दिखाई देती थीं।
शाहाबाद दुर्ग का इतिहास
8वीं शती में इस भू-भाग पर धनेड़िया राजपूतों का अधिकार था। शाहाबाद की बस्ती 9वीं-10वीं शताब्दी ईस्वी में बसी हुई प्रतीत होती है। कहा जाता है कि जिस समय कोटा में साठ घर भी नहीं थे, तब शाहाबाद में साठ हजार मनुष्यों की बस्ती थी। इसके प्रमाण आज भी दूर दूर तक फैले खण्डहरों, पुरानी हवेलियों, महलों, गढ़ और शहरपनाह में मिल जाते हैं।
ई.1000 में शाहाबाद एक व्यवस्थित नगर था तथा यहाँ एक किला मौजूद था। उस समय शाहाबाद, मालवा क्षेत्र का एक स्वतंत्र राज्य था। रणथम्भौर के प्रतापी शासक हमीर के पुत्र जसराज के वंशज सारंगदेव ने सावरगढ़ से आकर ई.1408 में धनेड़िया राजपूतों से इस भू-भाग को छीनकर अपना राज्य स्थापित किया तथा कुनू नदी के किनारे पर स्थित सहजनपुर को अपनी राजधानी बनाया जो वर्तमान शाहाबाद से दो मील दूर था।
तारीखे राज कोटा में सहजन नगर बसने का उल्लेख इस प्रकार हुआ है- ‘‘ई.1300 में राजा हम्मीर वाले रणथंभौर बहिफाजत मीर मोहम्मद बागी अलाउद्दीन खिलजी के मुकाबिले पर मारा गया तो उसके बेटे जसराज ने कदीम दारुल हुकूमत से मफरूर होकर सावरगढ़ में हुकूमत कायम की और उसकी औलाद के बाद दीगरे नरपाल देव जिसने नयागीलड़ा का किला तामीर किया, सरीदेव, रोपाल, किशनदेव, दलधर दन्तदेव, गंगधीर ने वहाँ राज किया। उसके बेटे सारंगदेव ने सावरगढ़ को छोड़कर वि.सं.1464 (ई.1408) में मौका शाहाबाद से दो मील जनूब में नदी कोनू के बायें किनारे उस पहाड़ की ढलवान सतह पर जिस पर शाहाबाद वाके है, सारंगपुर उर्फ संजीपुर कस्बा आबाद करके दारूल हुकूमत करार दिया और धनेड़िये राजपूतों को जो ई.800 से यहाँ बूद-व-वाश रखते थे, इस परगने से खारिज किया।’’
सारंगदेव का बेटा मारंगदेव, और उसका उदयाचल और फिर बीरनदेव और बीरभान राजा हुए। बीरभान से यह किला कदीम धनेड़ियों ने फिर से छीन लिया किंतु बीरभान के पुत्र जाचकदेव ने ई.1438 में अपने नाना बुन्देलखण्ड के राजा की सहायता से इस दुर्ग को पुनः हस्तगत कर लिया।
जाचकदेव का पुत्र उदयभान हुआ जिसका पुत्र ताराचन्द तथा उसका पुत्र मुकटमन मशहूर हुए। सारंगपुर के इसी मुकटमन जिसका पूरा नाम जगमणिदेव मुकुटमणि था, ने पुरानी बस्ती के खण्डहरों के स्थान पर ई.1521 में शाहाबाद के प्रसिद्ध दुर्ग की स्थापना की तथा सहजनपुर के स्थान पर शाहाबाद को अपनी राजधानी बनाया।
मुकुटमणि के समय में शाहाबाद में हम्मीरवंशियों का चौहान राज्य और राजधानी अच्छी तरह से व्यवस्थित हो गई थी। चौहानों के शासन काल में शाहाबाद का नाम कुछ और रहा होगा, क्योंकि शाहाबाद नाम मुगलों द्वारा दिया गया। मुकुटमणि के समय शेरशाह सूरी ने शाहाबाद पर आक्रमण किया। शाहाबाद के निकट थाना नामक स्थान की पहाड़ियों पर मुकुटमणि ने शेरशाह की सेनाओं का सामना किया।
मुकुटमणि की शक्ति देखकर शेरशाह ने संधि का प्रस्ताव भेजा। संधि सम्पन्न हो जाने के पश्चात् शेरशाह ने इस स्थान का नाम सुलेहाबाद रखा। बाद में इसे शेरशाह के पुत्र के नाम पर सलीमाबाद कहा गया। कहा जाता है कि सलीमाबाद बिगड़कर सल्लाबाद हो गया। औरंगजेब के समय सल्लाबाद को शाहाबाद कहा जाने लगा।
मुकुटमणि के पश्चात् जगन शाहाबाद का राजा हुआ। मुगल स्रोतों के अनुसार शाहाबाद का राजा मुगलों का मनसबदार हो गया था। मुगल दरबार में जगन के बड़े पुत्र प्रतापमन द्वारा गुस्ताखी करने से उसे गद्दी का हकदार नहीं रहने दिया गया और उसका छोटा भाई जगतमन शाहाबाद का राजा हुआ। जगतमन का पुत्र चित्रमन और उसका पुत्र इन्द्रमन हुआ। इन्द्रमन शाहाबाद का अन्तिम प्रतापी नरेश था।
इन्द्रमन शाहाजहाँ और औरगजेब के काल में मुगलों का मनसबदार था। समकालीन मुगल इतिहास ग्रन्थों में अनेक स्थान पर इन्द्रमन धंधरे के नाम का उल्लेख मिलता है। मुगल दरबार में इन्द्रमन धंधेरे का महत्व इसी बात से आंका जा सकता है कि जब उसके समकालीन कोटा नरेश जगतसिंह का मनसब 2000 जात, 1500 सवार था, तब इन्द्रमन धंधरे का मनसब 4000 जात एवं 3000 सवार का था।
सामूगढ़ के युद्ध में इन्द्रमन धंधेरा औरंगजेब के साथ था। इन्द्रमन औरंगजेब की सेना में दाहिनी ओर, चम्पतराय बुन्देला तथा भगवन्तसिंह हाड़ा के साथ था। इसी इन्द्रमन ने शाही दरबार में अर्जुन गौड़ की हत्या की तथा शाहाबाद में सावन-भादों, शीशमहल और इन्द्रपोल का निर्माण करवाया। औरंगजेब के एक अधिकारी मकबूल दरोगा ने शाहाबाद दुर्ग में एक मस्जिद का निर्माण करवाया जो राजस्थान की सबसे बड़ी मस्जिद मानी जाती है।
शाहाबाद का भू-भाग, बुन्देलखण्ड का ही भाग है। यहाँ बुन्देलखण्डी भाषा बोली जाती है। शाहाबाद के धंधेरा शासकों के, बुन्देलखण्ड के बुन्देल शासकों से विवाह सम्बन्ध होते थे। शाहजहाँ के समय में जुझारसिंह बुन्देला के साथ इन्द्रमन ने भी मुगल सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया था।
शाहजहाँ ने इसी कारण से कर न चुकाने का बहाना लेकर उससे शाहाबाद छीन लिया तथा मुगल साम्राज्य में मिला लिया। इंद्रमन को नारनौल के किले में बन्दी बनाया गया। बाद में उसके ससुर चम्पतराय ने शाहजहाँ से सिफारिश करके उसे मुक्त करवाया और मध्यप्रदेश में सहरा नामक स्थान जागीर में दिलवाया।
शाहजहाँ ने इन्द्रमन से छीनकर शाहाबाद अपने विश्वस्त विट्ठलदास गौड़ को वतन के रूप में दिया लेकिन औरंगजेब के समय विद्रोह करने पर गौड़ फौजदार से शाहाबाद पुनः छीनकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। बाद में किसी समय यह पुनः इन्द्रमन के वंशजों को दे दिया गया। इन्द्रमन के पश्चात् सुन्दरभान, सुजानराय, दलपतराय, पन्जमसिंह तथा गोपालसिंह शाहाबाद के राजा हुए। मल्हारराव सिंधिया ने गोपालसिंह से शाहाबाद दुर्ग छीन कर अपने पुराहितों को रहने के लिये दे दिया।
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मराठे, नर्बदा पार करके मध्यप्रदेश तक बढ़ आए। सिन्धिया के सेनापति और नरवर के हाकिम मराठा ब्राह्मण खाण्डेराव ने मुगल अधिकारियों को हराकर शाहाबाद दुर्ग पर अधिकार कर लिया। खाण्डेराव से इसे ई.1714 में कोटा के महाराव भीमसिंह (प्रथम) ने जीत लिया। महाराव भीमसिंह के पश्चात् शाहाबाद दुर्ग, कोटा राज्य एवं खाण्डेराव और उसके वंशजों के पास आता-जाता रहा।
अन्त में कोटा के फौजदार झाला जालिमसिंह ने ई.1779 में शाहाबाद को जीतकर तथा सिन्धिया को इसका हरजाना देकर, शाहाबाद को कोटा राज्य का हिस्सा बना दिया। झाला जालिमसिंह ने शाहाबाद का किला खाण्डेराव के पुत्र मेघसिंह से छल से जीता था।
कहते हैं कि कोटा वालों ने मेघसिंह और उसके सामन्तों को कुण्डाखोह नामक स्थान पर गोठ के भोजन के लिए आमंत्रित किया। जब वे सब भोजन करने में व्यस्त थे, तब जालिमसिंह के सेनापति एवं बडौरा के जागीरदार अनवर खां ने सेना सहित शाहाबाद के किले में कूद कर, किले पर अधिकार कर लिया।
कोटा में यह कहावत विख्यात है कि ब्राह्मणों ने लड्डओं के लालच में शाहाबाद का राज्य खो दिया। खाण्डेराव के पास एक तोप थी जिसे नवलवान कहा जाता था। यह तोप आज भी इस दुर्ग में देखी जा सकती है।
शाहाबाद झाला जालिमसिंह ने जीता था, अतः ई.1838 में उसके पौत्र मदनसिंह के समय में पृथक झालावाड़ राज्य का निर्माण होने से शाहाबाद, झालावाड़ राज्य में चल गया। तब से ई.1899 तक शाहाबाद दुर्ग झालावाड़ राज्य के अधीन रहा।
ई.1899 में जब झालावाड़ से कुछ परगने वापस कोटा राज्य के पास आए तब शाहाबाद दुर्ग पुनः कोटा राज्य में चला आया और तब से ई.1949 तक (राजस्थान बनने तक) कोटा राज्य में रहा। राजस्थान बनने के बाद ई.1949 से 1991 तक यह दुर्ग कोटा जिले में रहा। ई.1991 में कोटा जिले में से कुछ हिस्सा पृथक करके बारां जिला बनाया गया और यह दुर्ग बारां जिले में चला आया।