बहुत से विद्वान राजस्थान में कुषाण आधिपत्य का होना स्वीकार करते हैं किंतु इस सम्बन्ध में उनके द्वारा जो तर्क दिए जाते हैं, वे अकाट्य नहीं हैं। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर केवल इतना ही सिद्ध होता है कि राजस्थान के कुछ हिस्से उनके प्रभाव में रहे होंगे।
जिस समय मागध साम्राज्य बिखर रहा था, उस काल में भारत में कुछ विदेशी जातियों ने प्रवेश किया। कुषाण भी इसी काल में भारत में प्रविष्ट हुए। कुषाणों का साम्राज्य शकों एवं पह्लवों के राज्यों की अपेक्षा अधिक विस्तृत था। इतिहासकारों की धारणा है कि उत्तरी राजस्थान का अधिकांश भाग कुषाण साम्राज्य का अंग था।
‘स्टीन’ की मान्यता है कि कुषाणों का राजस्थान पर आधिपत्य कड फिसेज (द्वितीय) के समय ही हो चुका था क्योंकि उसकी मुद्राएं सूरतगढ़ तथा हनुमानगढ़ से प्राप्त हुई थीं। बीकानेर संग्राहलय में रखी हुई मिट्टी की कुषाण कालीन मूतियों पर गान्धार कला का प्रभाव है जो कुषाणों के राजस्थान पर प्रभाव का एक अतिरिक्त संकेत है।
नगरी (चितौड़) से भी कुछ कुषाण कालीन कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं। कनिष्क के सुई विहार अभिलेख (वर्ष 11) से संकेतित है कि भावलपुर तथा उसके आस-पास का क्षेत्र कुषाण साम्राज्य का अंग था। कुषाणों का राजस्थान पर आधिपत्य शक अभिलेखों की सहायता से भी दर्शाया जाता है। शक क्षत्रप नहपान के नासिक और जुनार से प्राप्त अभिलेखों पर क्रमशः 41, 42, 45 और 46 तिथियाँ अकित हैं। इन अभिलेखों और मुद्रा-साक्ष्यों से यह निश्चित है कि राजस्थान के कुछ भागों पर शक क्षत्रप नहपान का अधिकार था।
नासिक अभिलेख की तिथियों को शक संवत् की मानते हुए प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि शक क्षत्रपों ने ‘शक संवत’ की तिथियों का प्रयोग किया था, इसलिये वे कुषाणों के अधीन थे। ज्ञातव्य है कि शक संवत् का प्रारम्भ कनिष्क के राज्यरोहण की तिथि 78 ई. से होता है।
नासिक अभिलेख में उल्लिखित ‘भट्टारक’ का सम्बन्ध कुषाण नरेश हुविष्क से जोड़ा जाता है। कुषाण नरेश हुविष्क कनिष्क की तरह शक्तिशाली नहीं था। इसलिये नहपान उसके अधीन न रहकर एक स्वतंत्र शासक रहा होगा। उस अवस्था में ‘भट्टारक’ उपाधि का आशय नहपान से ही रहा होगा। अर्थात् नासिक अभिलेख में उल्लिखित ‘भट्टारक’ वास्तव में स्वयं नहपान ही था, न कि कोई और।
रैप्सन, मिराशी, सरकार और रायचौधुरी आदि विद्वान शक अभिलेखों की 41, 42 45 एवं 46 तिथियों को शक संवत् की मानते हैं परन्तु इस मत को मानने से कई बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं।
हम जानते हैं कि चष्टन के पौत्र रुद्रदामा (प्रथम) ने सातवाहनों को परास्त करके क्षहरात शकों द्वारा खोये अधिकांश प्रान्तों को जीत लिया था। अन्धो अभिलेख की सहायता से हम जानते हैं कि रुद्रदामा (प्रथम) की प्रथम ज्ञात तिथि शक संवत् का 52वां वर्ष अर्थात् ईस्वी 130 है। इसलिये नहपान की अन्तिम ज्ञात तिथि शक संवत् के वर्ष मानने पर हमें 46 से 52वें (ई.124-130) वर्ष के बीच इन घटनाओं को रखना पड़ता है-
(1) नहपान के शासन का अन्त
(2) क्षहरात सत्ता का अन्तिम रूप से अन्त
(3) चष्टन का क्षत्रप के रूप में शासन तथा महाक्षत्रप के रूप में राज्यारोहण
(4) चष्टन के पुत्र जयदामा का राज्यारोहण और कुछ समय शासन
(5) रूद्रदामा का राज्यरोहण और कुछ समय शासन।
मिराशी और सरकार का मत है कि ये घटनाएं प्रायः समकालिक थीं। इस सम्बन्ध में हमें गोपालाचारी, अल्तेकर और बनर्जी का सुझाव उचित लगता है। उनके अनुसार नहपान के अभिलेखों में प्रदत्त तिथियां उसके शासनकाल के वर्ष हैं। यदि हम अल्तेकर का सुझाव मान लेते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि चूंकि नहपान ने अभिलेखों में शक संवत् की तिथियों का प्रयोग नहीं किया था इसलिये वह एक स्वतंत्र नरेश था। इसलिये कुषाणों द्वारा शकों के माध्यम से राजस्थान पर शासन करने की सम्भावना भी कम हो जाती है। अर्थात् कुषाण राजस्थन पर सीधे ही शासन कर रहे थे न कि शकों के अधीन रहकर।
कुषाणों के राजस्थान पर आधिपत्य का प्रमुख अधार सुई विहार अभिलेख है किंतु यह आवश्यक नहीं है कि जिस व्यक्ति का सिन्ध पर अधिकार रहा हो वह पूरे राजस्थान का भी स्वामी हो। राजस्थान में कुषाण कालीन मुद्राओं की प्राप्ति भी कुषाणों के राजस्थान पर प्रभुत्व का अकाट्य प्रमाण मानी जाती हैं किंतु मुद्राएं एक स्थान से दूसरे स्थान पर व्यापारियों एवं यात्रियों द्वारा भी लाई जा सकती हैं। दूसरे, किसी स्थान पर किसी शासक के सिके मिल जाने से वह क्षेत्र उसके राज्य का भाग नहीं माना जा सकता। जैसे कुषाणों की मुद्राए बंगाल में पाई जाने पर भी वह प्रदेश उनके साम्राज्य का अंग नहीं माना जाता है।
ठीक इसी प्रकार से मूतियों वाले प्रमाण की भी आलोचना की जा सकती है। राजस्थान में गान्धार कला से प्रभावित मूर्तियाँ पाये जाने पर कुछ विद्वान यह मानते है कि इस प्रदेश पर कुषाणों का अधिकार था, किंतु वे यह नहीं जानते कि कुषाणोत्तर काल में जब गान्धार मूर्तिकला शैली अपनी चरम सीमा पर थी उस समय राजस्थान में भी उसे अपनाया गया। अतः इस घटना को राजनीतिक सत्ता का प्रमाण मानना सही नहीं है।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि कनिष्क के पूर्व तथा कनिष्क के समय राजस्थान कुषाणों के साम्राज्य का अंग नहीं था। यह भी कहा जा सकता है कि राजस्थान में कुषाण आधिपत्य कभी नहीं रहा, यद्यपि कुषाण संस्कृति ने राजस्थान की संस्कृति को कुछ सीमा तक प्रभावित अवश्य किया होगा।



