जोधपुर से 107 किलोमीटर उत्तर में मेड़ता स्थित है। इसके प्राचीन नाम मेड़न्तक तथा मेड़तापुर मिलाते हैं। मध्यकाल में इसे मेदनीपुर भी कहा जाता था। वर्तमान में यह मेड़तासिटी कहलाता है। इसी नाम का एक रेल्वे स्टेशन भी बनाया गया है जो मेड़ता रोड – मेड़तासिटी शाखा लाइन पर स्थित है।
इसका सबसे प्राचीन उल्लेख ई.837 के प्रतिहार सामंत बाउक के शिलालेख में प्राप्त हुआ है। मण्डोर के प्रतिहार सामन्त बाउक के वि.सं. 894 (ई.837) के इस लेख में कहा गया है कि बाउक के 8वें पूर्वपुरुष नागभट्ट ने मेडन्तक को अपनी राजधानी बनाया। यह नागभट्ट राज्जिल का पोता था।
राज्जिल का समय छठी शताब्दी ईस्वी से सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच का है। 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक प्रतिहारों की राजधानी मण्डोर पर चौहानों का प्रभुत्व हो गया था। इसके साथ ही मण्डोर के आसपास के अन्य प्रतिहार शासक चौहानों के अधीन आ चुके थे।
अतः अनुमान किया जाता है कि मेड़ता में भी इस समय तक चौहानों का शासन हो चुका था। ई.1301 में अल्लाउद्दीन खिलजी का प्रतिनिधि ताजुद्दीन मेड़ता का शासक था। इसके बाद किसी समय में मेड़ता पूरी तरह उजड़ गया।
ई.1468 में जोधपुर के राव जोधा के पुत्र दूदा ने मेड़ता का क्षेत्र अपने अधीन किया। ई.1556 तक दूदा के वंशज मेड़ता पर शासन करते रहे। ई.1556 में जोधपुर के राव मालदेव ने इसे जोधपुर राज्य में मिला लिया और दूदा के वंशज जगमाल को मेड़ता का शासक नियुक्त किया।
ई.1563 में पदच्युत राव जयमल अकबर की सहायता से अपने भाई जगमाल को हटाकर पुनः मेड़ता पर अधिकार करने में सफल रहा किंतु शीघ्र ही जयमल और अकबर के सम्बन्ध बिगड़ गये और जयमल को मेड़ता छोड़ना पड़ा।
अकबर के सेनापति ने पुनः जगमाल को मेड़ता का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार ई.1563 से ई.1609 तक यह अकबर के अधीन रहा तथा राव दूदा के वंशज, अकबर के अधीन रहकर इस पर शासन करते रहे। ई.1609 में अकबर ने मेड़ता जोधपुर नरेश सूरसिंह को प्रदान कर दिया। तब से लेकर देश के स्वतंत्र होने तक यह मारवाड़ रियासत (जोधपुर राज्य) का परगना बना रहा।
ई.1468 में जिस समय राव दूदा मेड़ता पर अधिकार करने पहुंचा, उस समय यह उजड़ा हुआ था। अतः प्रतिहारों के अस्तित्व में आने के समय का मेड़ता उस समय तक नष्ट हो चुका था। अनुमान किया जाता है कि यह मुस्लिम आक्रमणों में नष्ट हुआ होगा। 12वीं शताब्दी के आसपास के दो स्तम्भ तथा लक्ष्मी मंदिर के भीतर रखी कुछ मूर्तियां प्राचीन मेड़ता की हैं।
राव दूदा के पुत्र वीरम तथा पौत्र जयमल ने जो निर्माण अपने महल तथा कोट आदि के रूप में करवाये थे, उन्हे ई.1556 में राव मालदेव ने नष्ट करवाकर वहाँ हल चलवा दिया तथा मालकोट के नाम से नये कोट का निर्माण आरम्भ करवाया। इस प्रकार मेड़ता में आज जो भी बड़े निर्माण दिखाई देते हैं, वे गत साढ़े चार वर्षों के भीतर बने हैं। इन भवनों में जो शिलालेख आदि लगे हैं वे इन भवनों के निर्माण के समय के हैं किंतु कुछ शिलालेख नष्ट हो चुके भवनों से उतारे हुए हैं जो बाद में बने भवनों में लगा दिये गये हैं।
सोजतिया दरवाजे की दीवार में फलौदी से लाकर एक लेख लगाया गया है जो राणा करमसी के समय का वि.सं. 1405 कार्तिक सुदि 11 (2 नवम्बर 1348) रविवार का है। एक मंदिर में जोधपुर के राजा सूर्यसिंह (सूरसिंह) के समय का वि.सं. 1659 माघ सुदि 5 (7 जनवरी 1603) शुक्रवार का है। कुछ नवीन जैन मंदिरों में विक्रम संवत 1450 से 1883 (ई.1393 से 1826) तक के लेख युक्त मूर्तियां लगाई गई हैं।
ये मंदिर औरंगजेब के समय में नष्ट किये गये थे किंतु किसी तरह उनकी मूर्तियां छिपा दी गई थीं तथा औरंगजेब के मरने के बाद पुनः नवीन मंदिर बनाकर उनमें स्थापित की गईं। चौपड़ों के मंदिर में जहांगीर के समय का वि.सं. 1677 ज्येष्ठ वदि 5 (11 मई 1620) गुरुवार का लेख है। इसमें कहा गया है कि यह मंदिर चौपड़ा गोत्र के संघपति (संघवी) आसकरण द्वारा बनवाया गया था।
मेड़ता के उत्तर और पश्चिम में छोटे-छोटे तालाब हैं। डागोलाई तालाब के बांध पर महाराजा सिंधिया के फ्रेंच कप्तान डी बौरबोन की कब्र है। इस कब्र के शिलालेख के अनुसार डी बौरबोन 11 सितम्बर 1790 को युद्ध में घायल होकर 18 सितम्बर 1790 को 61 वर्ष की अवस्था में मर गया। मेड़ता की यह लड़ाई मरहटों और राठौड़ों के बीच हुई थी।
प्रसिद्ध भक्त कवियत्री महारानी मीरां का पीहर मेड़ता में था। उनकी एक मनुष्याकार प्रतिमा चारभुजा मंदिर में स्थापित है। महारानी मीरां को मारवाड़ में मीरांबाई कहते हैं। मीरांबाई के कारण मेड़ता की ख्याति पूरे विश्व में है।
मेड़ता में औरंगजेब की बनवाई हुई जामी मस्जिद है जिसकी मरम्मत ई.1807 में धोकलसिंह तथा उसके साथियों ने करवाई थी। मोची मस्जिद में हि.सं. 1086 (ई.1675) का लेख खुदा हुआ है।
मेड़ता प्रतिहारों के काल में एक हरा-भरा क्षेत्र था किंतु उत्तर मध्यकाल आते-आते यहाँ का जलवायु विषम हो गया और वर्षा की कमी के कारण अकाल की स्थाई स्थिति उत्पन्न हो गई। इस स्थिति को इंगित करके किसी कवि ने लिखा है-
पग पूंगल धड़ मेड़ता, उदरज बीकानेर
भूल्या चूक्यो जोधपुर, ठावौ जैसलमेर।
अर्थात् अकाल के पैर पूंगल में, धड़ मेड़ता में तथा पेट बीकानेर में है। जोधपुर तक उसकी पहुंच कभी-कभी ही होती है, जैसलमेर तो उसका स्थाई निवास है।
-इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



