Saturday, October 12, 2024
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भानगढ़ दुर्ग

अलवर जिले में सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित भानगढ़ दुर्ग तीन तरफ पहाड़ियों से घिरा हुआ है। सम्पूर्ण दुर्ग मतबूत प्राचीर से घिरा हुआ है जिसे दोनों तरफ की पहाड़ियों से जोड़ा गया है।

भानगढ़ दुर्ग का स्थापत्य

भानगढ़ दुर्ग की मुख्य प्राचीर में प्रवेश द्वार पर हनुमानजी विराजमान हैं। इसके पश्चात बाजार प्रारंभ होता है, बाजार समाप्त होने के बाद त्रिपोलिया द्वार आता है जिसके भीतर प्रवेश करके राजमहलों तक पहुंचा जा सकता है। महल की सीढ़ियों के पास भोमियाजी का स्थान है। दुर्ग को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित किया गया है तथा खुदाई की गई है।

मंदिर

भानगढ़ दुर्ग परिसर में भगवान सोमेश्वर, गोपीनाथ, मंगला देवी और केशव राय के मंदिर स्थित हैं। इन मंदिरों की दीवारों और खम्भों पर की गई सुंदर खुदाई की गई है। मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी अवस्था में हैं किंतु उनमें देव प्रतिमाएं नहीं हैं। सोमेश्वर महादेव मंदिर का शिवलिंग आज भी बना हुआ है। इस मंदिर में सिंधु सेवड़ा तांत्रिक के वंशज आज भी पूजा पाठ कर रहे हैं।

बावड़ी

दुर्ग परिसर में स्थित सोमेश्वर मंदिर के बगल में एक बाबड़ी है जिसमें निकटवर्ती गांवों के लोग नहाने आते हैं।

भानगढ़ दुर्ग का इतिहास

भानगढ़ दुर्ग को आमेर के राजा भगवंत दास ने ई.1573 में बनवाया था। भानगढ़ के बनने के बाद यह दुर्ग एवं नगर, लगभग तीन शताब्दियों तक आबाद रहा। ई.1613 में आम्बेर नरेश भगवंतदास का पुत्र माधोसिंह ने इस दुर्ग को अपना ठिकाना बनाया। माधोसिंह के बाद उसका पुत्र छत्रसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ।

छत्रसिंह के पुत्र अजबसिंह ने भानगढ़ से थोड़ी दूरी पर अजबगढ़ बनवाया और वहीं रहने लगा। ई.1665 में छत्रसिंह के वंशज हरिसिंह ने भानगढ़ की गद्दी संभाली। यह समय औरंगजेब के शासन का था। उसके दबाव में आकर हरिसिंह के दो बेटे मुसलमान हो गए, जिन्हें मोहम्मद कुलीज एवं मोहम्मद दहलीज के नाम से जाना गया।

इन दोनों भाइयों के मुसलमान बनने एवं औरंगजेब की शासन पर पकड़ ढीली होने पर जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने इन्हे मारकर भानगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा माधोसिंह के हिन्दू वंशजों को गद्दी दे दी।

भानगढ़ दुर्ग के सम्बन्ध में किंवदन्तियां

दुर्ग के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियां कहीं जाती हैं। कहा जाता है कि भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती बेहद सुंदर थी। एक बार वह अपनी सखियों के साथ बाजार गई तथा इत्र की एक दुकान पर पहुंची। जब वह इत्र खरीद रही थी, तब सिंधु सेवड़ा नाम के एक व्यक्ति की दृष्टि उस पर पड़ी।

सिंधु सेवड़ा काले जादू का महारथी था। उसने राजकुमारी को वश में करने के लिये इत्र की बोतल पर काला जादू कर दिया। एक विश्वशनीय व्यक्ति ने राजकुमारी को इसकी जानकारी दे दी।

राजकुमारी रत्नाकवती ने उस इत्र के बोतल कोएक पत्थकर पर पटक दिया। बोतल टूट गई और सारा इत्र उस पत्थर पर बिखर गया। इसके बाद वह पत्थर, उस तांत्रिक सिंधु सेवड़ा के पीछे चल पड़ा और तांत्रिक को कुचल कर मार डाला। मरने से पहले तांत्रिक ने श्राप दिया कि इस किले में रहने वाले सभी लोग जल्दी ही मर जायेंगे।

वे दोबारा जन्म नहीं ले सकेंगे और उनकी आत्माएं इस किले में भटकती रहेंगी। इस घटना के कुछ दिन बाद भानगढ़ और अजबगढ़ के बीच युद्ध हुआ जिसमें भानगढ़ दुर्ग में रहने वाले सभी लोग मारे गये। राजकुमारी रत्नावती भी शाप से नहीं बच सकी और उनकी भी मौत हो गयी। कहा जाता है कि वे आत्माएं आज भी इस दुर्ग में घूमती हैं। इस कारण सूर्यास्त के बाद इस दुर्ग में किसी को प्रवेश नहीं करने दिया जाता।

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