भू-वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तरी गोलार्ध में स्थित अफ्रीका का सहारा रेगिस्तान, अरब देशों का अरबी रेगिस्तान, पाकिस्तान का सिंध रेगिस्तान तथा राजस्थान का थार मरूस्थल वस्तुतः एक ही मरूस्थल के भाग हैं।
राजस्थान प्रांत को तीन बड़े भू-प्रदेशों में विभक्त किया जा सकता है। राजस्थान के ठीक मध्य में उत्तर से दक्षिण तक अरावली पर्वत शृंखला है जिसके पूर्व में यमुना एवं उसकी सहायक नदियों के मैदान हैं तथा पश्चिम में थार का महान रेगिस्तान है।
थार मरूस्थल का निर्माण आज से हजारों साल पहले इस क्षेत्र में स्थित समुद्र को अरावली पर्वत शृंखला पर होने वाली वर्षा के पानी द्वारा लाई गई मिट्टियों तथा सरस्वती नदी की धाराओं द्वारा लाई गई बालुकाओं द्वारा किया गया है।
पौराणिक आख्यान
वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि भगवान राम के काल में इस खेत्र में द्रुमकुल्य नामक सागर लहराता था जिसमें राक्षसों के समूह छिपे हुए थे। समुद्र की प्रार्थना पर भगवान राम ने अपने अग्निबाण से दु्रमकुल्य सागर सुखा दिया जिससे यह पूरा क्षेत्र मरूस्थल बन गया।
रामचंद्रजी का काल ई.पू. 5000 माना जाता है। इस आधार पर यह मान्यता बनती है कि मरूस्थल बनने की घटना तभी घटी होगी।
कुछ पुराण थार मरूस्थल का निर्माण होने की घटना रामचंद्रजी के पूर्वजों के समय की बताते हैं। महाभारत के वन पर्व सहित अनेक पुराणों में इक्ष्वाकुवंशी राजा कुवलाश्व द्वारा धुंधु नामक राक्षस के वध की कथा मिलती है। यह कथा रेगिस्तान के उद्भव की ओर संकेत करती है।
धुंधु राक्षस समुद्र के किनारे धरती में छिपकर सोता था। वह प्रलयकाल की अग्नि के समान पश्चिम दिशा को घेरकर सोता था। राजा कुवलाश्व ने उसे मारकर धुंधुमार की उपाधि धारण की।
कुछ भारतीय पुराणों के कथानक थार मरूस्थल के बनने की घटनाओं का अलग-अलग प्रकार से उल्लेख करते हैं। ऐसे ही एक पौराणिक उपाख्यान के आधार पर कहा जाता है कि ई.पू. 534 से ई.पू. 520 के मध्य अनेक नदियों ने अपने रास्ते बदले और अनेक नई झीलों एवं तालाबों आदि का निर्माण हुआ तथा कच्छ भूमियों की उत्पत्ति हुई।
भू-वैज्ञानिक अन्वेषण भी ई.पू. 500 के आसपास पृथ्वी पर एक भयंकर जलवायु विषयक तूफान आने के संकेत देते हैं किन्तु इस तूफान का रेगिस्तान के निर्माण से कोई सम्बन्ध है, अथवा नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं है।
थार मरूस्थल
राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में विस्तृत थार मरूस्थल अरावली पहाड़ियों के उत्तर-पश्चिमी ढाल के 480 से 608 किलोमीटर तक फैला हुआ है। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 15 इंच से 20 इंच तक रहता है।
विस्तार की दृष्टि से राजस्थान का यह भूभाग शेष प्राकृतिक भागों से काफी बड़ा है। प्रदेश का 61.11 प्रतिशत क्षेत्र इसी भाग में है तथा प्रदेश की कुल जनसंख्या का 40 प्रतिशत भाग इस भाग में रहता है।
इस भाग में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, चूरू, नागौर, जोधपुर जैसलमेर, बाड़मेर तथा जालोर जिले आते हैं। थार रेगिस्तान विश्व का सर्वाधिक सघन बसावट वाला रेगिस्तान है। आकार की दृष्टि से थार रेगिस्तान विश्व का 18वें नम्बर का सबट्रोपिकल रेगिस्तान है।
पश्चिमी रेतीला मैदान
राजस्थान के थार मरूस्थल को भूगोलवेत्ता इस क्षेत्र को पश्चिमी रेतीला मैदान कहते हैं। इसे दो मुख्य उप-इकाइयों में बांटा जा सकता है-
(1) रेतीला शुष्क मैदान
इसके पुनः दो भाग किये जाते हैं- (अ) मरूस्थली (ब) बालुकास्तूप मुक्त प्रदेश।
(2) अर्द्ध-शुष्क मैदान
इसे राजस्थान बांगर भी कहते हैं। इसके पुनः चार भाग किये जा सकते हैं- (अ) लूनी बेसिन अथवा गोड़वार प्रदेश (ब) आन्तरिक प्रवाह का मैदान अथवा शेखावाटी प्रदेश), (स) नागौरी उच्च प्रदेश (द) घग्घर प्रदेश।
विभाजक रेखा
रेतीले शुष्क मैदान और अर्द्ध-शुष्क मैदान को विभाजित वाली रेखा 25 सेण्टीमीटर वाली वर्षा रेखा है।
रेतीला शुष्क मैदान
यह क्षेत्र थार रेगिस्तान का हिस्सा है। इसमें जैसलमेर जिला, बीकानेर जिले का पश्चिमी भाग, गंगानगर जिले का दक्षिणी भाग, बाड़मेर जिले का उत्तरी भाग, जोधपुर जिले की फलौदी तहसील का पश्चिमी भाग सम्मिलित है। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 10 सेंटीमीटर से 20 सेंटीमीटर के बीच रहता है। ग्रीष्म में औसत तापमान 320 से 360 सेंटीग्रेड रहता है।
मरूस्थली
मरूस्थली प्रदेश कच्छ की खाड़ी से पाकिस्तान की सीमा के सहारे-सहारे राजस्थान से होते हुए पंजाब तक बालुकास्तूपों से आच्छादित है। इस प्रदेश में बालुकास्तूप एक विशिष्ट भू-आकृतिक लक्षण है।
राजस्थान के रेतीले शुष्क मैदान में स्थित मरूस्थली बीकानेर, जैसलमेर, चूरू, पश्चिमी नागौर और बाड़मेर के दो-तिहाई पश्चिमी भाग में विस्तृत है। पश्चिम में और आगे यह रेतीली और शुष्क मरूस्थली थार मरूभूमि कहलाती है।
मरूस्थली प्रदेश में विशाल रेत के फैलाव के साथ चट्टानी परिव्यक्त शिलाएं मौजूद हैं। उत्तर-पश्चिम में जुरासिक के विस्तृत कुछ ऊँचे उठे भाग और इयोसीन चट्टानें, मुख्यतः चूना-पत्थर की चट्टानें जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, चूरू और गंगानगर जिलों में पायी जाती हैं।
बाड़मेर, जालौर, जैसलमेर तथा अन्य क्षेत्रों में जहाँ परिव्यक्त शिलाएं सतह पर अनावृत हैं, उनसे इस क्षेत्र की अपर्दित स्थलाकृति दिखायी देती है।
स्तूपों के आकार, रूप, वायु दिशा और वनस्पतिक आवरण के आधार पर इन्हें साधारणतः तीन वर्गों में रखा जाता है- (क) पवनानुवर्ती बालुकास्तूप (ख) बरखान अथवा अर्द्ध-चन्द्राकार बालुकास्तूप (ग) अनुप्रस्थ बालुकास्तूप।
पवनानुवर्ती बालुकास्तूप
ये स्तूप मैदानी भाग के दक्षिणी तथा पश्चिमी भाग में पाये जाते हैं किन्तु बाड़मेर और जैसलमेर जिलों में ये अधिकतर दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार के स्तूपों में लम्बी धुरी वायु की दिशा के समानान्तर होती है।
बरखान (अर्द्ध-चन्द्राकार बालुकास्तूप)
ये मरूस्थली के उत्तरी भाग में देखे जाते हैं। ये प्रायः शृंखलाबद्ध मिलते हैं तथा गतिशील होते हैं।
अनुप्रस्थ बालुकास्तूप
ये मरूस्थली प्रदेश के पूर्वी तथा उत्तरी भागों में पाये जाते हैं। ये स्तूप वायु की दिशा के समकोण में बनते हैं। ये स्तूप अर्द्ध-शुष्क भाग में स्थिर हैं।
बालुकास्तूप मुक्त प्रदेश
मरूस्थली से लगा हुआ भू-भाग बालुकास्तूप मुक्त प्रदेश जैसलमेर के चारों ओर लगभग 65 किलोमीटर क्षेत्र में पोकरन तहसील के आधे भाग पर, फलौदी तहसील के पश्चिमी ओर दक्षिणी भागों पर फैला है।
चूना पत्थर और बलुआ पत्थर चट्टानें इस क्षेत्र में अनावृत हैं। जैसलमेर नगर जुरासिक बालू पत्थरों से निर्मित चट्टानी मैदान पर स्थित है। जैसलमेर के उत्तर में तथा पोकरन के दक्षिण में जिन्हें यहाँ रन कहते हैं, कई प्लाया झीलें बेसिनों में मिलती हैं।
अर्द्धशुष्क मैदान (बांगर)
अरावली के पश्चिमी किनारे से लेकर रेतीले शुष्क मैदान की सीमा तक लगभग 75,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अर्द्धशुष्क मैदान अथवा बांगर का क्षेत्र है। उत्तर-पूर्व में शेखावाटी क्षेत्र तथा दक्षिणी-पूर्वी भाग में लूनी अर्द्ध-शुष्क मैदान का विस्तार है।
इस क्षेत्र के उत्तर में घग्घर नदी का नदी अपनी कई सहायक नदियों के साथ फैली है जिसमें जोधपुर एवं बाड़मेर जिलों के अधिकांश भाग तथा पाली, जालौर और सिरोही जिले के पश्चिमी भाग स्थित हैं।
इस क्षेत्र में वर्षा अनिश्चित, असमान तथा तूफानी होती है। वर्षा का वार्षिक औसत 20 से.मीटर से 40 से.मीटर रहता है। ग्रीष्म ऋतु में तापमान 320 से 360 सेंटीग्रेड रहता है। इस क्षेत्र में श्रीगंगानगर, बीकानेर, बाड़मेर व जोधपुर का अधिकांश भाग, चूरू, सीकर, झुंझुनूं, पाली तथा नागौर जिले व जालोर का पश्चिमी भाग आता है।
बांगर को चार लघु भू-आकृतिक विभागों में बांटा जा सकता है-
(क) लूनी बेसिन (गोडवार प्रदेश)
अजमेर की दक्षिणी-पश्चिमी अरावली श्रेणी से लूनी नदी निकलकर दक्षिण-पश्चिम की तरफ बहती है जिसमें अरावली के तीव्र उत्तरी-पश्चिमी ढालों पर बहने वाली कई छोटी-छोटी नदियाँ इसके बांये किनारे पर आकर मिलती हैं।
लूनी तथा इसकी सहायक नदियाँ जोधपुर जिले के दक्षिणी-पूर्वी भाग, पाली, जालौर और सिरोही जिलों में बहती है। लूनी प्रवाह क्षेत्र 34866.4 वर्ग किलोमीटर के अलावा पश्चिमी राजस्थान का शेष क्षेत्र आन्तरिक प्रवाह का क्षेत्र है।
लूनी नदी और उसकी सहायक खारी एवं जवाई नदियों के दक्षिण की ओर के स्थलाकृतिक इंगित करते हैं कि प्रारम्भिक भूआकृति क्रियाएं जलोढ़ थीं जिन्होंने इस क्षेत्र की परतदार चट्टानों को काटा है परंतु वर्तमान में वायु क्रियाएं अधिक प्रभावी हैं। दक्षिण-पश्चिम हवाओं ने जलोढ़ मैदानों और पहाड़ी ढालों के विपरीत बालू का जमाव कर दिया है।
ला टाउच ने लिखा है कि पश्चिमी राजपूताना की बालू दक्षिणी-पश्चिमी झंझाओं द्वारा लाई जाती है। यह झक्कड़ वर्ष के अधिकतर महीनों में रेगिस्तान के आर-पार चलते हैं।
कोई भी जिला इनसे मुक्त नहीं है, सिवाय उन क्षेत्रों के जो अरावली श्रेणी के पदीय क्षेत्रों में स्थित हैं अथवा उन क्षेत्रों के जहाँ अनेक छोटी-छोटी नदियां पहाड़ी क्षेत्रों से नीचे उतरती है। यद्यपि उनमें जल, वर्ष की थोड़ी अवधि में ही बहता है किन्तु ये उस बालू को जो उड़कर उसमें आ जाती है, बहा सकने में सक्षम होती हैं।
इस क्षेत्र की स्थलाकृतियों में पहाड़ियां तीव्र ढालों वाली तथा विस्तृत कांपीय मैदान मिलते हैं। पश्चिमी कांपीय मैदान और पादगिरि के दक्षिणी पश्चिम भाग वायु द्वारा लाई गई बालू के जमावों से ढके हुये हैं। इस क्षेत्र में लूनी नदी की दो मुख्य सहायक नदियां- खारी एवं जवाई बहती हैं। यह धारायें अधःसतहीय चट्टानों के गुम्बदीय संरचनात्मक प्रवृति के अनुरूप बहती हैं।
अरावली शृंखला के पदीय और लूनी नदी के बीच का क्षेत्र पर्याप्त उपजाऊ है किन्तु पश्चिम में और आगे कांपीय दोमट कई स्थानों पर थार में रेतीली मिट्टी में बदल जाती है।
(ख) आन्तरिक जल प्रवाह का मैदान (शेखावाटी)
बांगर क्षेत्र में राजस्थान की उत्तरी-पूर्वी सीमा तक लूनी बेसिन के उत्तर में आंतरिक जल प्रवाह का मैदान विस्तृत है। इसकी पूर्वी सीमा 50 सेंटीमीटर की वर्षा-रेखा से निर्धारित होती है।
अरावली श्रेणी इस प्रदेश में दक्षिण से उत्तर तक फैली है जो इसे दो भागों में विभाजित करती है। एक तरफ उत्तर में शेखावाटी रेतीले मरूस्थल भूभाग तथा दूसरी तरफ, दक्षिण व दक्षिण-पूर्व में जयपुर के उपजाऊ मैदान हैं। इन दोनों के बीच अरावली श्रेणी प्राकृतिक सीमा बनाती है।
शेखावाटी भू-भाग की स्थलाकृति उबड़-खाबड़ बालुकास्तूपों द्वारा परिलक्षित होती है। यहाँ पवनानुवर्ती बालुकास्तूपों का केंद्रीयकरण अधिक दिखाई देता है जो इस भू-भाग की विशेषता है। शेखावाटी भूभाग के कस्बों के समीप बालुकास्तूपों की संख्या एवं आकार बढ़ता जाता है।
यहाँ बालुका स्तूप बरखान प्रकार के हैं जबकि अन्य क्षेत्रों में पवनानुवर्ती प्रकार के हैं। कुछ स्थानों पर निम्न भू-भाग में चूनेदार अधःस्तर अनावृत है। फलस्वरूप कच्चे तथा पक्के कुओं का निर्माण सुविधाजनक है। ये कुएं स्थानीय भाषा में जोहर कहलाते हैं।
इस क्षेत्र में केवल एक मौसमीय नदी बहती है जिसे कान्तली कहते हैं। यह नदी चूरू जिले में प्रवेश करते ही लुप्त हो जाती है। इस प्रकार यह भू-भाग या तो अंतर्वर्ती जलप्रवाह का क्षेत्र है अथवा नदियों से रहित है।
(ग) नागौरी उच्च प्रदेश
यह प्रदेश दक्षिण-पूर्व में अतिआर्द्र लूनी बेसिन तथा उत्तर-पूर्व में शेखावाटी शुष्क अन्तर्वर्ती मैदान के बीच में विस्तृत है। इसकी स्थलाकृति, अन्तर्वर्ती जलप्रवाह क्रम, नमकीन झीलों एवं चट्टानी व पहाड़ी धरातल के कारण विशिष्ट है।
यह प्रदेश बंजर ओर रेतीला है क्योंकि मिट्टी में सोडियम क्लोराइड (नमक) पाया जाता है। परवतसर के अलावा कुछ छोटी पहाड़ियां नावां तहसील में जो अजमेर तक विस्तृत है, पाई जाती हैं। नागौर, मण्डवा और मेड़ता के समीपवर्ती क्षेत्र बालुकास्तूपों से मुक्त हैं।
इस प्रदेश की समुद्रतल से औसत ऊंचाई 300 मीटर से 500 मीटर है। भू-दृश्य कई निम्नगर्तों से परिपूर्ण हैं। कई छोटे-छोटे बेसिन जयपुर-जोधपुर कांठी के समीप पाये जाते हैं। इस प्रदेश की महत्वपूर्ण नमक की झीलें सांभर, डेगाना, कुचामन और डीडडवाना हैं।
(घ) घग्घर का मैदान
यह मैदान गंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों के तीन-चौथाई भागों पर विस्तृत है। इस मैदान का निर्माण सरस्वती, चौतांग तथा सतलज नदियों द्वारा हिमालय-पदस्थली के शिवालिक से लाकर जमा की हुई जलोढ़ सामग्री से हुआ है।
अब ये सभी नदियां अब विलुप्त हो गई हैं और जलोढ़ सामग्री अनेक स्थानों पर वायु द्वारा लाई रेत से पूर्णतः ढक गई है। इसलिये अब यह एक रेतीला मैदान है जिसमें बालुकास्तूप और छोटी बालू की पहाड़ियां छितरी हुई हैं। इनमें से कुछ बालुका स्तूप गतिशील हैं किन्तु अधिकांश बालुकास्तूप स्थिर हो गये हैं।
इस मैदान में सरस्वती नदी की बची हुई क्षीण धारा बहती है जिसे अब घग्घर कहते हैं। इस नदी के पाट को नाली कहते हैं। इस पाट में साफ, चिकनी, काली एवं कठोर मिट्टी मिलती है। घग्घर नदी सरस्वती के बहुत से प्राचीन बहाव क्षेत्रों में से किसी एक बहाव पथ का अनुसरण करती हुई अनूपगढ़ के निकट थार मरूस्थल में विलीन हो जाती है।
वर्षा
थार रेगिस्तान में अरावली से लेकर ज्यो-ज्यों पश्चिम की ओर चलते हैं, वर्षा कम होती जाती है। कुछ स्थानों पर तो कई-कई वर्ष तक वर्षा नहीं होती। थार रेगिस्तान का जो क्षेत्र भारत में स्थित है, उसमें जुलाई और अगस्त में बंगाल की खाड़ी से आने वाले मानसून से वर्षा होती है।
यह मानसून अपनी यात्रा के अंतिम चरणों में पश्चिम अथवा पश्चिम-उत्तर-पश्चिम की ओर घूमकर रेगिस्तानी जिलों में पहुंचता है। उसके कारण तेज हवाएं चलती हैं तथा हल्की से भारी वर्षा होती है। गर्मी की ऋतु यहाँ तक कि वर्षा ऋतु में भी झक्कड़ गरज के साथ आंधी एवं उग्र चक्रवात होते हैं।
थार के साहित्य में इस वर्षा के बहुत से संदर्भ मिलते हैं-
घर में नोड़ी, मीह आयों डोड़ीं।
जिन्ड ते मकड़ों मींह आयों तकड़ों।
करड़ में घोबाटो मींह आयो घाटो।
बस बस डे मींह वसण जा डींह।।
रेगिस्तानी वनस्पतियां
थार मरूस्थल में हल्की वर्षा से ही उत्तम किस्म की घासें पैदा हो जाती हैं। इस कारण पशुपालन व्यवसाय को पनपने में सहायता मिलती है। यहाँ उत्पन्न होने वाली घासों में भुरुट घास का पहला स्थान है। इसके साथ ही धामन, माकड़ा, गंठीली व फुलेर आदि घासें भी पैदा होती हैं।
थार रेगिस्तान का सम्पूर्ण क्षेत्र उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वनों द्वारा आच्छादित है। इस क्षेत्र के वनों में कांटेदार वृक्ष, झाड़ियां एवं बरसाती घास उत्पन्न होती है। इन वनों में खेजड़ी, रोहिड़ा, कैर, खींप, कूमट, फोग, धामण, सेवण आदि वनस्पतियां प्रमुखता से पायी जाती हैं।
थार रेगिस्तान में बड़ी संख्या में ऐसी वनस्पतियां मिलती हैं जिन्हें सब्जी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। बहुत सी सब्जियां साल भर नहीं मिलतीं इसलिए उन्हें सुखाकर रख लिया जाता है।
पशुपालन
थार मरूस्थल में ऊँट, बकरी, भेड़ एवं गाय बड़ी संख्या में पाले जाते हैं। इन सभी पशुओं का दूध पीने के काम आता है। ऊँट, बकरी एवं भेड़ के बाल ऊन के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इन पशुओं के चमड़े से मानव उपयोग की विविध सामग्री बनाई जाती है।
चूंकि इस क्षेत्र में कई-कई साल तक अकाल एवं सूखा पड़ता है इसलिए हजारों पशुपालक अपनी भेड़ों एवं ऊँटों को लेकर मालवा की तरफ चले जाते हैं जो कि भारत के मध्यप्रदेश प्रांत में स्थित है।
परिवहन
थार मरूस्थल में आजादी के पहले तक सड़कमार्ग एवं यातायात के साधन विकसित नहीं हो सके। रेतीले धोरों में घोड़ों एवं बैलगाड़ियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता था। अतः उन्नीसवीं सदी के अंत तक जनसामान्य एवं व्यापारी आवागमन एवं परिवहन के लिए ऊँट एवं ऊँटगाड़ों का उपयोग करते थे।
इस क्षेत्र में मानव के बसने से पहले ही ऊँट का अधिवास हुआ। सभ्यता के आरम्भिक काल में इस क्षेत्र में आकर बसने वाले मानव ने गहन मरूस्थल में घूमने वाले ऊँट की महत्ता एवं उपयोगिता को समझकर उसे पकड़कर पालतू बनाया होगा।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता