Saturday, September 21, 2024
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तारागढ़ दुर्ग (बूंदी)

राजस्थान में तारागढ़ दुर्ग के नाम से दो दुर्ग प्रसिद्ध हैं। पहला दुर्ग अजमेर में है जिसे बीठली दुर्ग भी कहा जाता है तथा दूसरा दुर्ग बूंदी में है जिसे बूंदी दुर्ग भी कहा जाता है।

बूंदी का तारागढ़ दुर्ग , बूंदी नगर से बाहर अरावली की पहाड़ियों में कोटा-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित 182 मीटर की ऊँचाई पर निर्मित है। समुद्र तल से इस दुर्ग की ऊंचाई 550 मीटर है।

दुर्ग के निर्माता

तारागढ़ दुर्ग ई.1354 में बूंदी के चौथे हाड़ा राजा बरसिंह ने बनवाया था। बूंदी के हाड़ा राजा, बूंदी राज्य की स्थापना के समय से ही मेवाड़ के महाराणाओं के अधीन शासक थे।

तारागढ़ दुर्ग का क्षेत्रफल

तारागढ़ का विस्तार पांच मील क्षेत्र में है। मुख्य दुर्ग की लम्बाई 500 मीटर एवं चौड़ाई 300 मीटर है।

दुर्ग प्राचीर

दुर्ग के चारों ओर तिहरा परकोट बना हुआ है। दुर्ग की बाहरी प्राचीर का निर्माण 18वीं सदी के आरम्भ में जयपुर नरेश द्वारा नियुक्त राजा दलेलसिंह ने करवाया था जो करवर का जागीरदार था और जिसे बुद्धसिंह के शासनकाल में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने दो बार बून्दी का राज-पाट सौंपा था और दोनों बार बून्दी के राजा बुद्धसिंह ने उसे निकाल बाहर किया था। दुर्ग के पश्चिमी भाग की प्राचीरें बहुत ऊंची हैं। यहाँ तोपों के लिये मोर्चे भी बने हुए हैं।

भीम बुर्ज

भीम बुर्ज को चौबरज्या भी कहते हैं। यहाँ महाबला नामक तोप रखी हुई है। यह बुर्ज गोलाकार है तथा दो मंजिला है। इसके अंदर सीढ़ियां बनी हुई है।। इसमें बारूद और हथियार रखे जाते थे। इस बुर्ज के दक्षिण-पूर्व में दो मंजिली छतरियां बनी हुई हैं।

गढ़-पैलेस

जिस पहाड़ी पर तारागढ़ दुर्ग खड़ा है उसके निकट की दूसरी पहाड़ी पर गढ़ पैलेस बना हुआ है। यह राजस्थान के राजप्रासादों में विशिष्ट स्थान रखता है। इसमें अनेक हाड़ा राजाओं ने गढ़ पैलेस में महलों का निर्माण करवाया जो आज भी दर्शनीय है। प्रत्येक महल पर सम्बन्धित महाराव का नाम लिखा हुआ है। छत्र महल, अनिरुद्ध महल, रतन महल, फूल महल, बादल महल, उम्मेद महल भी महत्वपूर्ण हैं। इन महलों में रतन गुम्मट, दरीखाना, दीवान ए आम और चित्रशाला प्रमुख निर्माण हैं। दीवाने आम का निर्माण महाराजा रत्निंहस ने करवाया।

दूधा महल

बूंदी दुर्ग का सबसे प्राचीन निर्माण दूधा महल है।

जीवरखा महल

जीवरखा महल एक मंजिला है। इस महल में हाड़ाओं का खजाना रखा जाता था। यह बाहर से काफी भव्य दिखता है। महल में कांच की अद्भुत कारीगरी की गई है। इसका निर्माण राव रामसिंह (ई.1821-1889) ने करवाया।

महलों के लिये प्रवेश मार्ग

नगर की दिशा से महल में प्रवेश करने के लिये नाहर के चौहटे तथा रावल होते हुए भारी-भरकम हजारी गेट तक पहुंचते हैं। इससे पहले राजा उम्मेदसिंह के घोड़े हंजा की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। इससे आगे शिव प्रसाद नामक हाथी की प्रतिमा बनी हुई है। यह हाथी शाहजहाँ ने राजा छत्रसाल को दिया था। महाराव छत्रसाल ने उस हाथी के मर जाने पर उसकी यह प्रतिमा बनवाकर यहाँ लगवाई।

हथिया पोल

हाथी-घोड़े की प्रतिमाओं से आगे चलने पर कुछ सीढ़ियां चढ़कर एक के बाद एक क्रमशः दो दरवाजे आते हैं। दूसरे दरवाजे के पास हस्ति युग्म खड़ा है। इस द्वार को सत्रहवीं शताब्दी में राजा रतनसिंह (ई.1608-31) ने बनाया था। इस द्वार को हथिया पोल कहा जाता है। हथियापोल की बनावट, प्लास्टर तथा छत की सजावट अत्यंत अनूठी है।

रतन दौलत दरीखाना

हथिया पोल के दूसरी ओर रतन दौलत दरीखाना है। इसी भवन में बून्दी नरेशों का राजतिलक होता था। कर्नल टॉड ने भी इसी भवन में अवस्यक राव राजा रामसिंह को सिंहासन पर बैठाया था। 

छत्रमहल

रतन दौलत दरीखाना के आगे रावराजा छत्रसाल द्वारा करवाया गया विस्तार कार्य है। छत्रमहल का निर्माण महाराव छत्रसाल ने ई.1644 में करवाया। यह सभी महलों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें दो बड़े हॉल हैं। छत्रमहल चौक के पास एक भवन में रामसिंह के समय के ज्योतिष एवं खगोल विद्या के उपकरण रखे हैं। पानी के बड़े बर्तन में कांसे का छेददार कटोरा है। यह एक प्रकार का काल मापक यंत्र है। पूरा कटोरा एक घंटे में डूबता है। इसके पास के एक कक्ष में सुन्दर चित्र बने हुए हैं। छत्र महल में हाथी दांत के बारीक काम वाले दरवाजे बने हुए हैं।

रंग विलास

दरीखाना के दूसरी तरफ रंग विलास है जहाँ छोटा किन्तु सुन्दर उद्यान लगा हुआ है। यहीं चित्रशाला तथा अनिरुद्ध महल बने हुए हैं।

अनिरुद्ध महल

अनिरुद्ध महल ई.1679 में महाराजा अनिरुद्धसिंह ने बनवाया था, बाद में इसे जनाना महल बना दिया गया।

बादल महल और फूल महल

बादल महल और फूल महल स्थापत्य की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। बादल महल की ऊंचाई काफी है।

उम्मेद महल

उम्मेद महल तथा उसकी चित्रशाला का निर्माण महाराव उम्मेदसिंह ने ई.1749-73 के बीच करवाया। इसमें 18वीं सदी ईस्वी के बने चित्र हैं। इनमें धार्मिक, ऐतिहासिक एवं शिकार के समय की घटनाएं नीले एवं हरे रंगों में दर्शाई गई हैं। एक कौना रेलिंग लगाकर सुरक्षित किया गया है, जहाँ ई.1804 में राजर्षि उम्मेदसिंह की देह शांत हुई थी।

मंदिर

महाराव विष्णुसिंह ने किलाधारीजी के मंदिर को पक्का बनवाया एवं चावण्ड दरवाजे के बाहर का परकोटा एवं दरवाजा भी बनवाया।

जलाशय

तारागढ़ दुर्ग परिसर में कोई प्राकृतिक जलाशय नहीं है, इसलिये दुर्ग परिसर में पांच विशाल कृत्रिम जलकुण्ड बनाये गये हैं। इन टांकों में वर्षा का जल एकत्रित किया जाता था जो वर्ष भर जल की आपूर्ति करते थे। वर्षा जल को कुण्ड में पहुंचने से पहले सिल्ट ट्रैप से होकर बहना होता था ताकि टांकों में मिट्टी नहीं भर सके। दुर्ग के नीचे नवलसागर नामक तालाब स्थित है।

बूंदी महलों के भित्तिचित्र

बूंदी के राज महलों में बने भित्तीचित्र राजस्थान की चित्रकला में विशिष्ठ स्थान रखते हैं। यहाँ के चित्रकारों ने जीवन के विविध पक्षों, आखेट, युद्ध एवं अन्य प्रसंगों के साथ-साथ प्रकृति चित्रण पर विशेष जोर दिया है। प्रकृति चित्रण में चित्रकारों ने आकाश को विभिन्न स्वरूपों में चित्रित किया है, जिसमें सूर्योदय-सूर्यास्त, चांदनी रात तथा ऋतुओं के अनुसार परिवर्तित होते रंगों को दर्शाया गया है। स्वच्छ नीलवर्ण आकाश, मेघाच्छादित आकाश, आंधी तथा तूफानों को प्रकट करता आकाश आदि को बहुत ही कुशलता से चित्रित किया गया है।

स्वच्छ मौसम को प्रदर्शित करने वाले आकाश के अतिरिक्त उमड़-घुमड़ कर गहराई घटाओं में चमचमाती बिजलियां, कतारबद्ध होकर उड़ते पक्षी तथा सूर्य की किरणों में स्वर्णिम होते बादलों के बिखरे इन्द्रधनुषी रंगों को बहुत सुन्दर विधि से संयोजित किया गया है। पतझड़, बसन्त एवं अन्य ऋतुओं के भाव प्रकट करते आसमान के साथ वर्षा का भी बहुत प्रभावशाली चित्रण किया गया है। आसमान की छत्रछाया में धरातल के विभिन्न स्वरूपों को चित्रकारों ने रंगों की भिन्नता से प्रकट किया है।

आकाश को छूती हुए पहाड़, दूर तक के वृक्ष तथा गुफाएं, झरने और घाटियों में बहती हुई नदियां देखने वालों को प्रकृति के विस्तार का आभास देती हैं। भूमि की बनावट में भी अनेक प्रकार के रंगों का समावेश हुआ है। कहीं सावन के मीठे मूंगिया रंग तो कहीं कोमल घास के सुवापंखी रंग और कहीं पहाड़ियों के बादामी रंग तथा कहीं शुष्क रेतीली भूमि के पीले व अन्य रंगों के मिश्रण लुभावने लगते हैं।

विभिन्न प्रकार की चट्टानों को सफेद एवं भूरे रंगों से इस प्रकार चित्रित किया गया है कि उनमें चट्टानी चमक का आभास होता है। धरातल की हरियाली की ऊँचाई-निचाई, धूप-छांव तथा जल बताने के लिए विशिष्ठ रंगों के शेड दिए गए हैं। भूमि पर शांत खड़े वृक्षों से गले मिलती हुई लताओं को फलों तथा पत्तों से सुसज्जित किया गया है।

वृक्षों में आम के वृक्ष अधिक बनाए गए हैं तथा जामुन, शीशम, नीम, बड़, पीपल आदि वृक्ष बनाए गए हैं। वृक्ष-गुल्मों के साथ-साथ केले के पत्ते भी अपनी बाहें फैलाए चित्रित किए गए हैं। चम्पा-चमेली एवं अन्य लताओं की डालियां बनाई गई हैं। कहीं आसमान को छूते खजूर तथा ताड़ के वृक्ष बनाए गए हैं।

पहाड़ियों, मैदानों एवं वृक्षावलियों में पशु-पक्षियों के विचरण को विशेष प्रकार से प्रदर्शित करना बूंदी शैली की विशेषता है। उन्मुक्त विचरण एवं जल क्रीड़ा करते हाथियों के झुण्ड, अपने शिकार पर आक्रमण की मुद्रा में झपटते सिंह, निश्चल भाव से कुलांचे मारते मृग, चालाक लोमड़ियां, चीते, बाघ, बघेरे, खरगोश, जंगली सूअर, बंदर आदि वन्यजीवों को प्रचुरता से चित्रित किया गया है।

वृक्षों पर फल-फूलों के साथ अनेक प्रकार के पक्षी बनाए गए हैं जिनमें मुख्यतः मोर, तोते, कोयल, पपीहा तथा अनेक प्रकार की रंग-बिरंगी चिडियाएं बनाई गई हैं। सर्प के साथ मोर को चित्रित करना इस शैली की विशिष्टता है। मयूरों को मुण्डेर पर बैठकर या विशाल वृक्ष की चोटी पर चढ़कर आसक्ति भाव में मेघों को निहारते हुए दिखाया गया है। छतों पर विभोर होकर मोर तथा मोरनियों को रिझाते हुए मोर भी दिखाए गए हैं।

जलीय वनस्पति एवं जल जीवों का चित्रण बहुत ही स्वाभाविक रूप से किया गया है। झरना, तालाब, नदी तथा नालों के जल में कमल प्रदर्शित किए गए हैं। पानी के किनारे गहरी हरी घास तथा पौधे रंगीन फूलों के साथ चित्रित किए गए हैं। नीले, पीले तथा गुलाबी रंग के खिले-अधखिले फूल तथा उन पर मण्डराते भंवरे, तितलियां और कमल-पत्र अंकित किए गए हैं।

छिछले जल में अलसाए सारस के जोड़े गरदन मोड़कर चोंच से पंखों को खुजलाते हुए बनाए गए हैं। इसी तरह पानी की सतह पर गतिशील छोटे पक्षी, बत्तखें तथा हंस, जलक्रीड़ा करते हुए अंकित किए गए हैं। स्वचछ पारदर्शी जल में विभिन्न मुद्राओं में मछलियों, कछुओं तथा मगरमच्छों का सजीव अंकन किया गया है।

जलाशयों में लाल रंग की नौका तथा श्वेत वस्त्रों में केवट की प्रतीक्षा का चित्रण किया गया है। जल की गति को प्रदर्शित करने के लिए धीमी-धीमी लहरें, उत्ताल तरंगें तथा तट पर झाग अंकित किए गए हैं।

मनुष्य का प्रकृति के साथ तादात्म्य प्रकट करने के लिए मोर को दाना चुगाती विरहिणी, मेघों के रूप से अपने प्रियतम के आगमन के सकुन मनाती प्रतीक्षारत, तरू कुंजों में छिपती-छिपाती प्रियजन को खोजती अभिसारिका और विशाल वृक्ष की डाल पर फूलों की छड़ी लिए झूलती प्रमोदित एवं विभिन्न पशु-पक्षियों के साथ संदेश का आदान प्रदान करती नायिकाओं को दर्शाया गया है।

प्रेतों ने बनाया इन महलों को

ई.1820 में कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी डायरी में इन महलों के बारे में लिखा कि राजपूताना के समस्त रजवाड़ों में जिन्हें अपने-अपने सुंदर महलों का गर्व है, बूंदी का महल श्रेष्ठ माना जाना चाहिये। ई.1886 में भारत आये ब्रिटिश लेखक रूडयार्ड किपलिंग ने इन महलों के बारे में लिखा है- ये महल मानव द्वारा नहीं अपितु प्रेतों द्वारा बनाये गये लगते हैं।

दुर्ग पर आक्रमण

मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने ई.1449-59 के बीच तीन बार बूंदी के तारागढ़ दुर्ग पर आक्रमण किये। महाराणा कुंभा का भी बूंदी दुर्ग पर कुछ समय के लिये अधिकार रहा। ई.1493 में माण्डू के सुल्तान ने बूंदी पर आक्रमण किया किंतु उसे असफलता हाथ लगी। जहांगीर के शासन काल में शहजादा खुर्रम जो बाद में शाहजहाँ के नाम से बादशाह बना, बूंदी के दुर्ग में कुछ समय के लिये रहा। वह बूंदी नरेश राव रतनसिंह और उनके पुत्र माधोसिंह के आतिथ्य सत्कार से काफी प्रभावित था।

जब वह आगरा के तख्त पर बैठा तो रतनसिंह ने बूंदी राज्य से काटकर कोटा राज्य का निर्माण करवाया तथा राव माधोसिंह कोटा का प्रथम राजा बना। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने भी कुछ समय के लिये बूंदी दुर्ग पर अधिकार किया। कुछ समय के लिये कोटा राव भीमसिंह ने भी बूंदी दुर्ग पर अपना अधिकार रखा। मराठों ने भी बूंदी दुर्ग पर कई बार आक्रमण किये।

सूर्य गुम्बज

तारागढ़ के निकट सूर्य गुम्बज नामक एक बहुत सुन्दर छतरी बनी हुई है। एक सौ बीस फुट के घेरे वाली यह छतरी 16 खम्भों पर टिकी है।

सूर्यमल्ल मीसण की दृष्टि में दुर्ग

सीस बुरज्यां सामनी इम तोपां अल्लो।

कोट संजोड़ा तीर कस, जाली समजल्लो।।

अर्थात् बूंदी के शिखर पर गर्वीला दुर्ग खड़ा है। बुर्जों के ऊपर तोपें चढ़ी हुई हैं। जिसके कोट, कंगूरे और बुर्ज देखते ही बनते हैं। कमर में तरकष है और जालियां लगी हैं। यह तारागढ़ राजपूतों की शान है।

चौबेज्यों किलो अभंग, कंगूरे घणा सुघट्ट।

बाषाणै जग्गात महं, सारा चारण भट्ट।।

अर्थात् दुर्ग भंग नहीं होने वाला है। इसके कंगूरे बड़े सुंदर हैं। संसार के सारे चारण-भाट इस दुर्ग की प्रशंसा करते हैं।

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