जयगढ़ दुर्ग जयपुर राज्य का सबसे दुर्गम किला था। जयगढ़ दुर्ग का निर्माण, आम्बेर दुर्ग तथा उसमें स्थित राजपरिवार को सुरक्षा देने के लिये सैनिक छावनी के रूप में किया गया था। इस कारण यह दुर्ग आम्बेर दुर्ग से भी अधिक ऊँची पहाड़ियों पर बनाया गया जहाँ से यह दुर्ग आम्बेर दुर्ग की ओर झांकता हुआ सा प्रतीत होता है।
इस दुर्ग में बड़ी संख्या में सैनिक नियुक्त किए गए तथा उनके लिये आवास भी बनाये गये। इस दुर्ग में जयपुर राज्य का विशाल शस्त्रागार तथा आयुध कारखाना बनाया गया।
जयगढ़ दुर्ग के निर्माता एवं नामकरण
निर्माता
मान्यता है कि काकिल देव (ई.1036-39) के समय में इस स्थान को चील का टीला कहा जाता था। काकिल देव ने यहाँ एक गढ़ी बनवाई जो विजयगढ़ी कहलाती थी। विजयगढ़ी को दुर्ग में बदलने का काम राजा मानसिंह प्रथम (ई.1589-1614) ने आरम्भ करवाया।
नामकरण
मिर्जा राजा जयसिंह (ई.1621-1667) ने इस दुर्ग को पूरा करवाया तथा उसी के नाम पर यह जयगढ़ दुर्ग कहलाया। बाद में सवाई जयसिंह (ई.1700-43) ने भी जयपुर नगर की स्थापना से पहले, जयगढ़ में अनेक निर्माण करवाये।
जयगढ़ दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था
जयगढ़ दुर्ग का मार्ग
जयगढ़ दुर्ग तक जाने के लिये दो प्रमुख मार्ग हैं। पहला मार्ग दिलराम बाग से सीधा जयगढ़ की ओर जाता है तथा दूसरा मार्ग आम्बेर महल की घाटी से जाता है। एक मार्ग फूलों की घाटी से बाईं ओर की पहाड़ी से निकाला गया है। आम्बेर दुर्ग से जयगढ़ जाने वाले मार्ग में चार दरवाजे आते हैं। प्रथम दरवाजा हाथी पोल, दूसरा महल का रास्ता, तीसरा ध्रुव पोल तथा चौथा गणेश पोल कहलाता है जो कि जयगढ़ का प्रवेश द्वार है।
जयगढ़ दुर्ग का परकोटा तथा बुर्ज
यह दुर्ग 500 फुट ऊंची पर्वतीय चोटी पर स्थित है। दुर्ग की लम्बाई तीन मील तथा चौड़ाई एक मील के लगभग है। इसके चारों ओर 20 फुट ऊँचा परकोटा बनाया है जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सुरक्षा चौकियों की बुर्जें बनी हुई हैं। इनमें दिवा बुर्ज सबसे ऊंची है। यह परकोटे से लगभग 20-25 फुट ऊँची है। इसके ऊपर जाने के लिये सीढ़ियां बनी हुई हैं। यहाँ चढ़कर प्रहरी मशाल दिखाता था। इसलिये इसे दिया बुर्ज कहते थे।
जयगढ़ दुर्ग का प्रवेश द्वार
जयगढ़ दुर्ग के तीन प्रमुख प्रवेश द्वार हैं- डूंगर द्वार, अवनि द्वार तथा भैंरू द्वार (सागर द्वार)। डूंगर द्वार नाहरगढ़ की ओर, अवनि द्वार आम्बेर स्थित फूलों की घाटी की तरफ तथा भैंरू द्वार सागर नामक जलाशय की तरफ स्थित है।
गुप्तचर सुरंगें
दुर्ग परिसर में कई सुरंगें हैं जिन्हें गुप्तचरी तथा आपात् काल के लिये काम में लिया जाता था।
राजकोष की सुरक्षा
मिर्जा राजा जयसिंह ने इस दुर्ग में राजकोष को संरक्षित किया तथा मीणों को इस दुर्ग की रक्षा के लिये नियुक्त किया। इस राजकोष की जानकारी केवल तत्कालीन महाराजा तथा उसके दो विश्वस्त मंत्रियों को होती थी। राजा को इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिये उन दो मंत्रियों में से किसी एक मंत्री को साथ लेना अनिवार्य होता था। ये मंत्री कच्छवाहा वंश की राजावत, खंगारोत तथा नाथावत आदि प्रमुख शाखाओं में से ही हो सकते थे। दुर्ग के द्वार चौबीसों घण्टे बंद रहते थे। दुर्ग के भीतर क्या हो रहा है, इसकी जानकारी किसी को नहीं हो सकती थी।
राजपुरुषों का बंदी गृह
राजपरिवार के सदस्यों को बंदी बनाये जाने पर, इसी दुर्ग में रखा जाता था। सवाई जयसिंह (द्वितीय) का छोटा भाई विजयसिंह (चीमाजी) राज पद से हटाये जाने और बंदी बनाये जाने के बाद आजीवन इसी दुर्ग में बंदी के रूप में रहा। इस दुर्ग के बारे में विख्यात था कि एक बार जो व्यक्ति इस दुर्ग में बंदी के रूप में पहुंच जाता है, फिर कभी जीवित बाहर नहीं निकलता।
जयगढ़ दुर्ग का स्थापत्य
सवाई जयसिंह के समय के निर्माण
सवाई राजा जयसिंह (द्वितीय) (ई.1700-1743) के शासन काल में जयगढ़ में अनेक निर्माण कार्य हुए। इसकी संरचना काफी कुछ आम्बेर दुर्ग से मिलती-जुलती है। इसमें बहुत से उद्यान, मंदिर, भवन, महल, कूप आदि स्थित हैं। जयगढ़ के प्रमुख भवनों में जलेब चौक, सुभट निवास (दीवाने आम), खिलवत निवास (दीवाने खास), लक्ष्मी निवास, ललित मंदिर, विलास मंदिर, सूर्य मंदिर, आराम मंदिर, राणावतजी का चौक आदि हैं।
जयगढ़ में राम हरिहर मंदिर और काल भैरव के प्राचीन मंदिर हैं। राज परिवार के सदस्यों के मनोरंजन के लिये एक कठपुतली घर भी है। आराम मंदिर के सामने मुगलों की चारबाग शैली का उद्यान है। जयगढ़ के भीतर एक लघु अंतःदुर्ग भी बना हुआ है। पदच्युत राजा विजयसिंह इसी में बंद रहा था।
विजयगढ़ी
दुर्ग का शस्त्रागार विजयगढ़ी कहलाता है। इसी के पास तिलक की बारी है। इसी प्रांगण में दीवा बुर्ज तथा जय बाण हैं। जयगढ़ में ढाली गई 9 अन्य तोपें भी दमदमे में रखी हुई हैं। जयगढ़ में शस्त्रास्त्रों का विशाल संग्रहालय है जिसमें तोपों के अतिरिक्त धनुष-बाण, तलवारें, कटारें, ढालें, रायफलें, बंदूकें, आदि संग्रहीत हैं। इस संग्रहालय में मोटे चमड़े से बना विशालाकाय पात्र, घड़े, कलश, जिरह बख्तर, विशाल ताले, शाही नगाड़े, महाराजा मानसिंह का हाथी का हौदा, शीशा बारूद तथा अन्य वस्तुएं भी हैं।
जयबाण
जय बाण नामक 50 टन भारी तथा 20 फुट लम्बी तोप का निर्माण सवाई राजा जयसिंह द्वारा 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जयगढ़ दुर्ग में ही करवाया गया। यह उस समय पहियों पर स्थित, विश्व की सबसे बड़ी तोप थी। इससे 50 किलोग्राम के 11 इंच व्यास के गोले फैंके जा सकते थे। इसे चलाने के लिये एक बार में 100 किलोग्राम बारूद भरा जाता था। यह 22 मील (लगभग 35 किमी) दूर तक मार कर सकती थी।
जयगढ़ दुर्ग की जल व्यवस्था
जयसिंह के बंगाली वास्तुकार विद्याधर चक्रवर्ती ने इस दुर्ग परिसर में चार बड़े टांके बनवाये जो पूरी तरह से ऊपर से ढके हुए थे। बड़े टांके की लम्बाई 155 फुट, चौड़ाई 138 फुट और गहराई 40 फुट है। इसी प्रकार के दो टांके दुर्ग के उत्तरी-पूर्वी तरफ बनवाये गये।
इन चार टांकों के अतिरिक्त एक खुला टांका भी बनवाया गया। इन टांकों को भरने के लिये पहाड़ों से नहरें बनाई गईं ताकि वर्षा का जल इनमें आ सके। इन नहरों के बीच-बीच में छोटे-छोटे हौद बनाये गए जिनमें वर्षा जल के साथ आने वाला कचरा रुक जाता था तथा साफ जल टांकों तक पहुंचता था।
भारत सरकार ने निकाला खजाना
भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय यह अफवाह उड़ी थी कि भारत सरकार ने जयगढ़ का खजाना अपने कब्जे में ले लिया है तथा उसे मिलिट्री के ट्रकों में भरकर दिल्ली ले जाया गया है किंतु इसकी पुष्टि आज तक नहीं हो सकी है।
जयगढ़ दुर्ग के पीछे की तरफ नाहरगढ़ और जयगढ़ की तलहटी में जगत शिरोमणि मंदिर, मावठा झील तथा आम्बेर कस्बा स्थित हैं।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता