Saturday, October 12, 2024
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कोटा दुर्ग

कोटा दुर्ग चौहानों के प्रमुख दुर्गों में से एक है। यह चम्बल नदी के तट पर बना हुआ है तथा गढ़-पैलेस के नाम से विख्यात है। कोटा दुर्ग निर्माण के समय चम्बल नदी की लहरें दुर्ग के परकोटे तक आती थीं किंतु दुर्ग निर्माण के बहुत समय बाद जब कौटा बैराज का निर्माण हुआ, तब चम्बल नदी और कोटा दुर्ग के बीच कुछ दूरी हो गई, वहाँ अब सड़क बनी हुई है।

कोटा दुर्ग की स्थापना

कोटा दुर्ग की स्थापना बूंदी राज्य के राव देवा के पुत्र जैतसिंह ने कोटिया भील पर विजय प्राप्त करने के बाद गुलाब महल के रूप में की। गुलाब महल अब कोटा गढ़ का हिस्सा है।

कोटा दुर्ग की श्रेणी

यह एक स्थल दुर्ग है जिसमें राज परिवार तथा उससे सम्बद्ध परिवारों के रहने एवं रियासती शासन व्यवस्था को चलाने के लिये महलों एवं कार्यालयों का निर्माण किया गया था। यह भारतीय एवं मुगल शैली के मिश्रण से बना हुआ है।

दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था

कोटा का गढ़-पैलेस, विशाल परकोटे से घिरा हुआ है। गढ़ की अपेक्षा इसका परकोटा आनुपातिक रूप से अधिक विशाल है तथा 10 किलोमीटर की परिधि में निर्मित है। कर्नल टॉड ने लिखा है कि आगरा के किले को छोड़कर किसी भी किले का परकोटा इतना बड़ा नहीं है जितना कि कोटा गढ़ का।

महाराव माधोसिंह (ई.1631-48) से पहले इस दुर्ग का परकोटा पाटनपोल, कैथूनीपोल और भिलवाड़ी तक बना हुआ था। माधोसिंह ने परकोटे का विस्तार करवाना आरम्भ किया। महाराव रामसिंह (ई.1696-1707) के काल में परकोटे का विस्तार रामपुरा तक किया गया। आगे चलकर महाराव उम्मेदसिंह (प्रथम) (ई.1770-1819) ने परकोटे का विस्तार लाडपुरा तक किया। इस परकोटे में सूरजपोल, किशोरपुरा गेट, पाटलपोल, लाडपुरा एवं कैथूनीपोल नामक छः विशाल दरवाजे हैं।

दुर्ग का स्थापत्य

कोटा दुर्ग का विशाल परकोटा तथा ऊँचा दरवाजा, मुगल स्थापत्य से प्रभावित जान पड़ता है। दुर्ग में ब्रजनाथ मंदिर, जैतसिंह महल, माधोसिंह महल, बड़ा महल, कंवरपदा महल, केसर महल, अर्जुन महल, हवा महल, चन्द्र महल, बादल महल, जनाना महल, दीवाने आम, हाथियापोल, दरबार हॉल, भीम महल, बारादरी और झाला हवेली दर्शनीय हैं। अंग्रेजों के समय बनी ब्रिटिश रेजीडेंसी भी दुर्ग परिसर में स्थित है।

महाराव उम्मेदसिंह (द्वितीय) (ई.1889-1940) के समय में गढ़-पैलेस के महलों का पुनर्निर्माण हुआ। जनाना महल पांच मंजिला बनाया गया है। इन महलों तक बनी सीढ़ियां इस प्रकार की हैं कि पहिये वाली कुर्सी या पालकी में बैठकर ऊपर जाया जा सकता था। राजमहल में मुगलकला के समान कांच एवं चूने की कारीगरी की गई है। सफेद चूने में नीले, हरे, एवं कत्थई रंग के कांच की जड़ाई का काम देखते ही बनता है।

कांच की कारीगरी में मीनाकारी, डाक की जड़ाई और गोलों के कांच की जड़ाई का कार्य बेजोड़ है। लक्ष्मी भंडार के तिवारी, अर्जुन महल एवं बड़ा महल की दीवारों पर बनाये गये भित्तिचित्र कोटा चित्रशैली के आकर्षक नमूने हैं। गढ़ परिसर में स्थित झाला हवेली में बने भित्तिचित्रों के बारे में कार्ल खण्डालवाला ने कहा था कि यहाँ के भित्तिचित्र एशिया में अपनी सानी नहीं रखते। यहाँ से कुछ चित्र दीवार से प्लास्टर सहित निकालकर दिल्ली के राष्ट्रीय कला दीर्घा में सुरक्षित रखे गये हैं।

कोटा के भित्तिचित्रों में शिकार के चित्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। लघु चित्रों में तत्कालीन सामंती संस्कृति का पूर्ण भव्यता के साथ चित्रण किया गया है। प्रेम के चित्रों में प्रेमियों की मनोदशा दर्शाने वाले भाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। चित्रों की पृष्ठभूमि में प्रकृति का सुंदर चित्रण किया गया है। हाथियों के दंगल, रानियों द्वारा पोलो का खेल एवं शिकार के दृश्य, नारी एवं पुरुष चित्रण, दरबारी राग-रंग, कृष्ण लीला, अवतार चित्रण, शाही सवारी के दृश्य, श्रीनाथजी की झांकी, अंगड़ाई लेती नायिका आदि के चित्र कोटा चित्रों की विशेषता है।

राव माधोसिंह संग्रहालय

कोटा दुर्ग में स्थापित राव माधोसिंह संग्रहालय रियासती संस्कृति का प्रतिबिम्ब है। राव माधोसिंह ट्रस्ट द्वारा संचालित इस संग्रहालय में पालकियां, हौदे, अस्त्र-शस्त्र, जलघड़ी, सवारी के उपयोग में आने वाली वस्तुएं, मृत पशुओं का संग्रह, ज्योतिष के उपकरण सहित विविधि सामग्री प्रदर्शित की गई है।

प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान

कोटा दुर्ग के अंदर प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की कोटा शाखा स्थित है। इस शाखा का कार्य कोटा राज्य के सरस्वती पुस्तकालय तथा झालावाड़ राज्य के पुस्तकालयों से पाण्डुलिपियां के स्थानांतरण से आरम्भ हुआ। इसमें अधिकांश ग्रंथ संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के हैं। यह संग्रह पुराण साहित्य के संग्रह के लिये प्रसिद्ध है।

कोटा में वल्लभ संप्रदाय के मथुरेशजी का स्थान होने से इस संग्रह में स्रोत साहित्य तथा वल्लभ मत का अणुभाष्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। सान्द्रकुतूहल नाटक, कीर्ति कौमुदी, नृसिंह चम्पू आदि संस्कृत रचनायें भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

हवामहल

गढ़ पैलेस के मुख्य प्रवेश द्वार के निकट हवामहल बना हुआ है। इसका उद्घाटन समारोह ई.1864 में महाराव रामसिंह (द्वितीय) द्वारा करवाया गया था। अतः अनुमान होता है कि यह भवन महाराव रामसिंह द्वितीय (ई.1827 से 1865) की अवधि में बना। यह भवन हिन्दू स्थापत्य कला का अच्छा उदाहरण है।

यह जयपुर के हवामहल जितना सुन्दर तो नहीं है किन्तु निर्माण में उससे साम्य रखता है। इसमें दो और तीन कमरों के आगे और पीछे खुले बरामदे, दीर्घा, छज्जे युक्त झरोखे, स्वर्ण कलश युक्त छतरियां, बारीक खुदाई के काम वाले गवाक्ष (बालकनी) तथा ऊपर चढ़ने के लिए घुमावदार सीढ़ियां बनी हुई हैं।

आज से सवा सौ वर्ष पूर्व महल के किवाड़ों पर किया गया चित्रांकन आज भी बहुत सुन्दर दिखाई देता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ई.1951 में हवामहल में पुरातत्व संग्रहालय आरम्भ किया गया था। ई.1995 में यह संग्रहालय ब्रजविलास भवन में स्थानान्तरित किया गया।

राजकीय संग्रहालय

ई.1995 में कोटा दुर्ग के ब्रजविलास भवन में राजकीय संग्रहालय की स्थापना की गई। इस संग्रहालय में प्रागैतिहासिक काल से लेकर रियासती युग तक की ऐतिहासिक सामग्री संग्रहित की गई है। यह सामग्री मानव सभ्यता के सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विकास यात्रा की कहानी कहती है। यह सामग्री कोटा, बून्दी एवं झालावाड़ जिलों से प्राप्त की गई है। हाड़ौती क्षेत्र में लगभग सवा सौ वर्ष पहले सी. एस. हैक्ट ने बून्दी के इन्दरगढ़ क्षेत्र से पाषाण कालीन एवं क्वार्टजाइट से निर्मित कुछ उपकरण खोजे थे जो भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में रखे गये हैं।

इस प्रकार कुछ अन्य सामग्री भी दूसरे संग्रहालयों को चली गई। ई.1946 में कोटा में ही एक संग्रहालय खोला गया ताकि क्षेत्र से प्राप्त सामग्री को यहीं रखा जा सके। ई.1951 में महाराजा भीमसिंह (द्वितीय) ने कोटागढ़ महल में बने हवामहल का एक भाग संग्रहालय हेतु उपलब्ध कराया। अतः संग्रहालय वहाँ स्थानान्तरित कर दिया गया। जब मूर्तियां तथा अन्य सामग्री काफी बढ़ गई तथा नया स्थान छोटा पड़ गया। अतः ई.1995 में संग्रहालय ब्रजविलास भवन में आ गया।

कोटा के समीप चंद्रसेन नामक स्थान पर शतुर्मुर्ग के चालीस हजार वर्ष प्राचीन अण्डशतक मिले हैं जिन्हें रेखांकन से सजाया गया है। प्रागैतिहासिक चित्र की यह उल्लेखनीय उपलब्धि है। कोटा अंचल से प्राप्त अर्वाचीन एवं प्राचीन संस्कृति के अवशेषों, मूर्तियों, शिलालेखों, सिक्कों, अस्त्र-शस्त्र, परिधान, हस्तलिखित ग्रंथ, स्वतंत्रता संग्राम के प्रसंग तथा हाड़ौती चित्र शैली के चित्रों को संग्रहालय में नवीन रूप देकर सजाया गया है।

पुरातत्व दीर्घा में प्रगैतिहासिक, आद्यैतिहासिक एवं ऐतिहासिक कालों से सम्बन्धित सामग्री, पाषाण उपकरण, मृद्पात्र खण्ड, मृणमूर्तियां एवं अन्य सामग्री दर्शायी गई है। इस दीर्घा में मानव की भोजन संग्रह की अवस्था एवं भोजन उत्पादन की स्थिति के दो तैलचित्र भी प्रदर्शित किए गए हैं।

मुद्रा दीर्घा में आहत मुद्राएं, कुषाण एवं इण्डो ससैनियन शासकों की मुद्राएं, प्रतिहार एवं चौहान शासकों की मुद्राएं, तुर्की सुल्तानों एवं मुगल बादशाहों के सिक्के, कोटा, बूंदी, झालावाड़, जयपुर, भरतपुर, करौली एवं टोंक रियासतों के सिक्के प्रदर्शित किए गए हैं।

प्रतिमाओं को छः दीर्घाओं में प्रदर्शित किया गया है। इनमें दरा (जिला कोटा) से प्राप्त गुप्कालीन पाषाण मूर्तियां, ख्यातिनाम तंत्रिका पट्टिका (झल्लरी वादक), प्रमाणिका, नंदी तथा कलात्मक प्रस्तर खंड दर्शनीय हैं। शैव प्रतिमा दीर्घा में शिव के विभिन्न स्वरूपों से युक्त प्रतिमाएं, लकुलीश, अंधकासुर वध, शिव तांडव, शक्ति, गणेश, कार्तिकेय एवं भैरव प्रतिमाएं प्रदर्शित की गई हैं।

संयुक्त देव प्रतिमा दीर्घा में योगनारायण, हरिहर, पितामह तथा मार्तण्ड प्रतिमाएं प्रमुख हैं। वैष्णव प्रतिमा दीर्घा में विष्णु के दशावतार (वाराह, वामन एवं नरसिंह अवतार आदि) प्रतिमा सहित विष्णु के 24 स्वरूपों से सम्बन्धित प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। मातृकाएं एवं दिक्पाल दीर्घा में वराही, वैष्ण्वी, ब्राह्मणी, चामुण्डा आदि मातृकाओं, अग्नि, वरुण, वायु, कुबेर एवं यम आदि दिग्पालों की प्रतिमाएं प्रदर्शित की गई हैं। जैन प्रतिमा कक्ष में जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं रखी गई हैं।

ऐतिहासिक कक्ष में 10वीं से 19वीं शताब्दी तक के शिलालेख एवं ताम्रपत्र प्रदर्शित हैं। इसी दीर्घा में 18वीं-19वीं शताब्दी की तोड़दार बंदूकें, अस्त्र-शस्त्र, पत्थर वाली बन्दूकें, कोटा, बूंदी एवं उदयपुर की कटारें, छुरियां, तलवारें, ढालें, भाले, धनुष, तीर एवं जिरह बख्तर प्रदर्शित किए गए हैं। कोटा शासकों के परिधान, चोगा, मोरगर्दनी, चोगा मखमल सुरमई, पश्मीना, बागा मखमल, केसरिया भी प्रदर्शित हैं।

कोटा दुर्ग में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की घटनाएं चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित की गई हैं। हस्तलिखित ग्रंथ दीर्घा में वाणमोत्सन चंद्रिका, गीतापंचरत्न, गीता सूक्ष्माक्षरी भागवत, कल्प सूत्र, विष्णु सहस्रनाम आदि प्रमुख ग्रंथ हैं। चित्रकला दीर्घा में 17वीं से 19वीं शताब्दी के लघु चित्रों को दर्शाया गया है। संग्रहालय परिसर में मौखरी वंशीय वि.सं.295 के बड़वा ग्राम से प्राप्त यूप स्तंभ एक चबूतरे पर प्रदर्शित किए गए हैं।

यहाँ संग्रहित सामग्री में मूर्तियों का संग्रह सर्वार्धिक महत्वपूर्ण है। बाड़ौली से प्राप्त शेषशायी विष्णु, केसवाड़ा से प्राप्त मंडप स्तम्भ, ओगाढ़ शाहबाद से प्राप्त विष्णु प्रतिमाएं हरनाबाद से प्राप्त नवग्रह फलक, काम्पूजी से प्राप्त विष्णु-महेश्वर मूर्ति, द्वार-स्तम्भ आदि प्रमुख हैं। 18वीं-19वीं सदी के अपूर्ण चित्रों में बहुत ही रोचक चित्रण दर्शाया गया है। एक हाथी ने दूसरे हाथी पर अपना दांत गड़ाकर उसे लहूलुहान कर दिया है। दूसरा भी हार मानने को तैयार नहीं है। वह झुककर शत्रु-हाथी के पैर में सूंड डालकर पटखनी देने का प्रयास कर रहा है।

कोटा दुर्ग के भित्तिचित्र

कोटा दुर्ग स्थित लक्ष्मी भण्डार की भित्तियों पर बने आलों में चतुर्भज विष्णु एवम् अवतारों का चित्रण प्राप्त हुआ है। जलप्लावन के समय का मत्स्यावतार चित्र बहुत ही सुन्दर बनाया गया है। जल के भीतर का भाग मछली के आकार में तथा ऊपर का भाग चतुर्भुज विष्णु रूप में अंकित किया गया है।

नील वर्ण में चित्रित विष्णु, सृष्टि के रक्षण में संलग्न हैं। वराह अवतार में वराह का एक पैर पीछे तथा एक पैर आगे की ओर उठा हुआ है। नील वर्ण की इस मूर्ति में वराह के चारों हाथों में आयुध हैं। नृसिंह अवतार में भगवान आधे सिंह एवं आधे नर रूप में हिरण्याकश्यप का वध कर रहे हैं। पीत-वस्त्र-धारी भगवान सिंहासन पर विराजमान हैं जबकि हिरण्याकश्यप हरे रंग का बनाया गया है।

बड़े महल के ऊपर के कक्ष में शेषशैया पर शयन मुद्रा में विष्णु चित्रित हैं। लक्ष्मीजी भगवान के चरण चाप रही हैं तथा गरुड़ नमस्कार की मुद्रा में हैं। दूसरे पैनल में भगवान गरुड़ पर सवार होकर आकाश में गमन कर रहे हैं। इस चित्र में विष्णु श्याम वर्ण में तथा गरुड़ नीले रंग में चित्रित हैं। राजमहल की भित्तियों के आलों में बने एक चित्र में चारभुजाधारी विष्णु के समक्ष शिव और ब्रह्मा को हाथ जोड़े हुए दर्शाया गया है।

एक दूसरे चित्र में चारभुजाधारी विष्णु धरती पर खड़े हैं। एक अन्य चित्र में विष्णु दत्तात्रेय रूप में चित्रित हैं। एक चित्र समुद्र मंथन की पौराणिक कथा पर आधारित है जिसमें एक ओर शिव और ब्रह्मा तथा दूसरी ओर दो राक्षसों को चित्रित किया गया है।

नीचे समुद्र में भगवान कच्छप का रूप धारण किए हुए हैं जिनकी पीठ पर समुद्र मंथन हो रहा है। इस चित्र के निकट ही नृसिंह तथा वराह अवतारों के और चित्र बने हुए हैं। वराह रूपधारी भगवान ने अपने विशाल दांतों पर मेदिनी को उठा रखा है तथा हिरण्याक्ष नामक राक्षस का वध कर रहे हैं। यहीं भगवान का एक चित्र मत्स्यावतार रूप में तथा एक चित्र गरुड़गामी मुद्रा में चित्रांकित है।

कोटा दुर्ग अभिलेखागार

सूरजपोल स्थित झाला हाउस में पुरालेख कार्यालय स्थापित है जिसे पुरालेखागार भी कहा जाता है। रियासतकालीन तिमंजिले भवन में कोटा राज्य का 300 वर्ष पुराना रिकॉर्ड उपलब्ध है। यहाँ उपलब्ध रिकॉर्ड में तत्कालीन प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, राजस्व, सिंचाई, लगान, शिक्षा, चिकित्सा, रेलवे, सरहद विवाद, भू-प्रबन्ध, पुलिस, विद्युत, लोक निर्माण सम्बन्धित महत्वपूर्ण रिकॉर्ड उपलबध है।

रियासत कालीन निज खर्च, दफ्तर हिसाब, देस अटाला, कारखानाजात (निर्माण सम्बन्धी), तोपखाना, नजराना पटेल, बागर घास, त्यौंहार आदि से सम्बन्धित अभिलेखीय समग्री दो वरकी पन्नों तथा बहियों में उपलब्ध है। अभिलेखागार में उपलब्ध रिकॉर्ड पूर्व में प्राचीन गढ़ परिसर में स्थित झाला हवेली में था, जिसे बाद में वर्तमान भवन में स्थानान्तरित कर दिया गया। किसी समय में यह रिर्काड भंडार व्यवस्था के रूप में था।

सरकार की केन्द्रीयकरण योजना के तहत कोटा से अधिकांश रिकॉर्ड बीकानेर अभिलेखागार में स्थानान्तरित कर दिया गया। शेष रिकार्ड लगभग चार हजार बस्तों तथा साढ़े तीन हजार बहियों में भवन के विभिन्न कक्षों में टांडों पर सुव्यवस्थित रखा है। बीसवी सदी की प्रशासनिक रिपोर्ट्स भी यहाँ उपलब्ध हैं। कोटा के राव माधोसिंह के कार्यकाल (ई.1631-1648) से उपलब्ध अभिलेखीय सामग्री हाड़ौती भाषा के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू भाषाओं में भी उपलब्ध है। हाड़ौती अभिलेख मूलतः हाडौती लिपि में उपलब्ध हैं, जिन पर गुजराती का प्रभाव है। राजस्थान की लिपियों में हाड़ौती लिपि को सबसे कठिन माना जाता है।

पुरालेखागार में संग्रहित अभिलेख पूर्णतः व्यवस्थित किया हुआ है, जिसे शीघ्र एवं सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। भवन की प्रत्येक मंजिल में रखे रिकॉर्ड का संक्षिप्त विवरण दीवार पर लिखा गया है। प्रत्येक मंजिल की प्रत्येक टांड (रेक) पर उसका क्रमांक एवं उसमें रखी सामग्री का विवरण चार्ट पर दर्शाया गया है। प्रत्येक बस्ते पर विषय सामग्री एवं संवत् की पर्ची चिपकी हुई है, जिसकी एक प्रति बस्ते के अंदर भी रख दी गई है। अभिलेखागार शोधार्थियों को अध्ययन की सुविधा उपलब्ध करवाता है तथा फोटो प्रतिलिपियां भी प्रदान करता है। केन्द्र में समय-समय पर विचार गोष्ठियां, प्रदर्शनियां एवं व्याख्यान आदि आयोजित किए जाते हैं।

छीपों की चांदनी

कोटा दुर्ग के भीतर एक नष्ट प्रायः प्राचीन मंदिर स्थित है। इस मंदिर का अब केवल रत्नगृह ही शेष बचा है। इस गृह की छत एक ही शिलाखण्ड से बनी हुई है। छत के भीतरी हिस्से में सुन्दर बेल-बूंटे उत्कीर्ण हैं। यह मंदिर छीपों की चांदनी कहलाता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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