बाड़मेर जिले की शिव तहसील के कोटड़ा गांव में, किराड़ू के परमार शासकों द्वारा निर्मित एक लघु दुर्ग स्थित है जिसे कोटड़ा दुर्ग कहते हैं।
कोटड़ा दुर्ग एक छोटी पहाड़ी पर बना हुआ है जो चारों ओर से रेगिस्तान से घिरी हुई है। इस कारण यह दुर्ग मरु-दुर्ग की श्रेणी में आता है। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण इसे गिरि-दुर्ग अथवा पार्वत्य दुर्ग श्रेणी में भी रखा जा सकता है। इस दुर्ग की गिनती मारवाड़ के नवकोटों में होती है।
कोटड़ा दुर्ग के चारों ओर बने परकोटे में बड़ी-बड़ी आठ बुर्ज बनी हुई हैं। दुर्ग की प्राचीर एवं बुर्जों में सैनिक नियुक्त रहते थे जिनके लिए पक्के मोर्चे भी बने हुए हैं।
कोटड़ा दुर्ग में उपलब्ध एक शिलालेख में वि.स. की तिथि का उल्लेख है जिसमें से केवल तीन अंक 123 पढ़ने में आते हैं। इस लेख का अंतिम अंक मिट गया है। इससे अनुमान किया जाता है कि यह दुर्ग विक्रम संवत 1230 से 1239 की अवधि में परमार शासक आसलदेव ने बनवाया था। यह भी संभव है कि दुर्ग आसलदेव के समय से भी पुराना हो और आसलदेव ने उसमें कुछ निर्माण करवाए हों।
कोटड़े के किले में एक कलात्मक झरोखा है जिसे स्थानीय भाषा में मेड़ी कहते हैं। मेड़ी भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। मान्यता है कि इस मेड़ी को जोधपुर के सामंत गोवर्धन खींची ने बनवाया था।
कोटड़ा दुर्ग परमारों द्वारा बनवाया गया था किंतु बाद में इस क्षेत्र से परमारों का शासन हट गया। उनके बाद इस क्षेत्र पर चौहानों का शासन हुआ और चौहानों के बाद राठौड़ों ने इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। जब रेगिस्तानी क्षेत्रों में मुस्लिम गवर्नरों का अधिकार हुआ तब कुछ परमारों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया गया। सूमरा मुसलमान परमारों के ही वंशज अनुमानित होते हैं। वर्तमान समय में सूमरा मुसलमानों का क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया है।
कोटड़ा दुर्ग की आकृति जैसलमेर के सोनार दुर्ग जैसी है। यह दुर्ग बाड़मेर से लगभग 65 किलोमीटर दूर स्थित है तथा सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। कोटड़ा दुर्ग में एक मेड़ी भी है जिसे मारवाड़ रियासत के महाराजा विजयसिंह के खजांची गोरधन खींची ने अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में बनवाया था।
किले में पीने का ‘सरगला’ नामक कुआं भी है। मारवाड़ में सरगला कुआं उसे कहते हैं जो धरती में काफी गहराई तक खुदा हुआ होता है तथा जिसका पानी कभी समाप्त नहीं होता। कोटड़ा किसी समय जैन सम्प्रदाय की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था।
राजस्थान में कोट, कोटा, कोटड़ा, कोटड़ी नाम से कई कस्बे एवं गांव मिलते हैं। कोट का आशय दुर्ग के चारों ओर खिंची हुई प्राचीर से होता है। कोट से ही कोटा शब्द का निर्माण हुआ है। कोटड़ा का आशय लघु दुर्ग से होता है तथा कोटड़ी का आशय उस छोटी जागीर से होता है जो किसी जागीरदार द्वारा अपने पुत्रों में विभक्त कर दी जाती थी।
बाड़मेर जिले में सर्वाधिक संख्या में छोटी-छोटी कोटड़ियां मिलती हैं। ये कोटड़ियां इस क्षेत्र के राठौड़ जागीरदारों द्वारा अपने पुत्रों में बांटी गई थीं। कोटड़ी के अधीन प्रायः कोई किला नहीं होता था। यहाँ के जागीरदार अपनी प्रजा से कर वसूल करते थे तथा किसी बड़े जागीरदार या राजा के अधीन सैनिक के रूप में सेवा करते थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता