जहाँ आज कुचामन बसा हुआ है, वहाँ किसी समय कुचबन्धियों की ढाणी थी। शाहजहाँ के शासनकाल में कुचामन मारोठ के गौड़ों के अधीन था। हिराणी, मीठड़ी, लिचाणा, मारोठ तथा अन्य स्थानों से मिले शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
औरंगजेब ने गौड़ाटी का पूरा क्षेत्र राठौड़ रघुनाथसिंह को दे दिया। ई.1727 में जोधपुर नरेश अभयसिंह ने रघुनाथसिंह के पौत्र जालिमसिंह को कुचामन की जागीर बख्शी। वैब ने 1725 से लेकर 1893 के कुचामन के ठाकुरों की सूची दी है।
जालिमसिंह के बाद सभासिंह ठाकुर हुआ जिसने ई.1757 से शासन किया। उसके उत्तराधिकारी सूरजमल ई.1793 तक, शिवनाथसिंह 1827 तक तथा रणजीतसिंह 1857 तक गद्दी पर बेठे। ई.1857 में केशरीसिंह कुचामन का ठाकुर हुआ।
वैब ने इसे महान वृद्ध बताया है जो अंग्रेजी हुकूमत का सहायक था। जब वैब पहली बार कुचामन से गुजरा तब केशरीसिंह अपनी राजधानी से कुछ मील आगे आकर उससे मिला एवं यथोचित सम्मान दिया। केशरीसिंह ने अपनी चार पीढ़ियों से वैब को मिलवाया।
वैब लिखता है- ‘चार पीढ़ी के प्रत्येक प्रतिनिधि में से प्रत्येक के अलग-अलग हिन्दू नाम थे जो शेर के सूचक थे…….. यह ठाकुर ऊदावत शाखा का है तथा दरबार में द्वितीय श्रेणी के सामन्तों से भी काफी अधिक है। कुचामन एक भूम है जो कुछ महत्वपूर्ण मामलों को छोड़कर आन्तरिक रूप से पूर्ण स्वतंत्र है। जोधपुर राज्य में मात्र कुचामन ठाकुर को ही मुद्रा चलाने की अनुमति प्राप्त है।’
केशरीसिंह का दादा शिवनाथसिंह भी प्रतापी व्यक्ति था। शिवनाथसिंह के परदादा जालिमसिंह ने कुचामन दुर्ग बनवाया। यह किला विशाल और ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। उन्नत प्राचीर और 17 सुदृढ़ बुर्जों से युक्त इस दुर्ग तक पहुंचने के लिए घुमावदार पहाड़ी मार्ग पार करना पड़ता है।
दुर्ग में भव्य महल, रनिवास, शस्त्रागार, अन्नभण्डार, पानी के विशाल टांके, देवालय आदि बने हुए हैं। भवनों में सुनहरी बुर्ज सोने के बारीक काम की दृष्टि से उल्लेखनीय है। रनिवास, शीशमहल, हवामहल तथा पांच विशाल टांके भी दर्शनीय हैं।
दुर्ग में अश्वशाला, ऊंटशाला तथा हस्तिशाला भी विद्यमान है। एक सूर्य मंदिर भी स्थित है। पानी की विशाल नहर दुर्ग की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी। कुचामन की एमरी स्टोन की चक्कियां तथा गोन्द के पापड़ भी बहुत प्रसिद्ध हैं।
-इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



