राजस्थान की लोकसंस्कृति में आदिवासियों का भी बड़ा महत्व है। राजस्थान में आदिवासियों के कई समूह रहते हैं जिनकी अपनी-अपनी बोलियां हैं। इस लेख में आदिवासियों की शब्दावली के कुछ शब्दों का परिचय दिया जा रहा है।
ओबरी: मीणा जाति के लोग धान रखने की बड़ी कोठरी को ओबरी कहते हैं।
कुसिला: सहरियों द्वारा अनाज रखने की छोटी कोठी को कुसिला कहा जाता है।
कूकड़ी की रस्म: सांसी जाति के लोग विवाह के बाद अपनी पत्नी की चारित्रिक पवित्रता की परीक्षा लेते हैं जिसे कूकड़ी की रस्म कहा जाता है।
कोड़िया देवी: सहरियों की कुल देवी।
कोतवाल: सहरिया जाति का मुखिया कोतवाल कहलाता है।
खूसनी: कंजर महिलाएं कमर में एक कपड़ा पहनती हैं जिसे खूसनी कहते हैं।
गोपना, कोरुआ, टोपा: सहरिया परिवार पेड़ों पर या बल्लियों पर मचाननुमा छोटी झौंपड़ी बनाते हैं जिसे गोपना, कोरुआ तथा टोपा कहते हैं।
चीराबाक्शी: आदिवासियों में मृतात्मा का आह्वान करने की परम्परा चीराबाक्शी कहलाती है।
दापा: वधूमूल्य को दापा कहते हैं। सहरियों में दहेज के स्थान पर दापा प्रथा है। अर्थात् वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को वधूमूल्य चुकाना पड़ता है।
नयावासी: चौकीदार मीणों को नयावासी कहते हैं।
पंचताई, एकदसिया, चौरासिया: सहरिया समुदाय की पंचायत के तीन स्तर होते हैं जो पंचताई, एकदसिया तथा चौरासिया कहलाते हैं। चौरासिया सबसे बड़ी पंचायत है जिसकी बैठक सीताबाड़ी में वाल्मीकि मंदिर में होती है।
पुरानावासी: काश्तकार मीणा को पुरानावासी कहते हैं।
बुझ देवता: मीणों के लोक देवता बुझ देवता कहलाते हैं।
भडेरी: सहरिया लोग आटा रखने की कोठी को भडेरी कहते हैं।
मेवासा: जंगलों में बने हुए मीणों के घर मेवासे कहलाते हैं।
लेंगी : मकर संक्रांति पर लकड़ी के डंडों से लेंगी खेला जाता है।
लहंगी तथा आल्हा: सहरिया लोग वर्षा ऋतु में लहंगी तथा आल्हा गाते हैं।
सहराना: सहरिया जाति के आदिवासी अपनी छोटी बस्ती को सहराना कहते हैं।
सहरोल: सहरिया लोग अपने गांव को सहरोल कहते हैं।
हलमा: आदिवासियों में सामुदायिक कार्य के लिये आह्वान करने को हलमा कहते हैं। इसे हांडा या हींडा भी कहा जाता है।
हाकम राजा का प्याला: कंजर हाकम राजा का प्याला पीकर झूठ नहीं बोलते। सत्य जानने के लिये उन्हें हाकम राजा के प्याले की कसम देते हैं।
हीड़: सहरिया लोग दीपावली के पर्व पर हीड़ गाते हैं।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि राजस्थान के आदिवासियों की शब्दावली में कुछ ऐसे शब्द हैं जो जनसामान्य की बोलियों में सम्मिलित नहीं हैं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता