वि.सं.1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया (18 जून 1576) को हल्दीघाटी और खमणोर के बीच, दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। कुंअर मानसिंह मोलेला में ठहरा हुआ था। लड़ाई के दिन बहुत सवेरे वह अपने 6000 जवानों के साथ आगे आया और युद्ध के लिये पंक्तियां संगठित कीं। सैयद हाशिम बारहा के नेतृत्व में 80 नामी युवा सैनिक सबसे आगे खड़े किये गये। उसके बाद सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति थी जिसका संचालन आसफखां और राजा जगन्नाथ कर रहे थे।
दक्षिण पार्श्व की सेना, सैयद अहमदखां के अधीन खड़ी की गई। बारहा के सैयद, युद्ध कौशल और साहस के लिये प्रसिद्ध थे इसलिये इन्हें सेनापति के दाहिनी ओर खड़ा किया जाता था। बाएं पार्श्व की सेना गाजीखां बदख्शी तथा लूणकरण कच्छवाहा की देख-रेख में खड़ी की गई। मानसिंह स्वयं इनके बीच में, समस्त सेना के मध्य में, रहा। मानसिंह के पीछे मिहतरखां के नेतृत्व में सेना का पिछला भाग था। इसके पीछे एक सैनिक दल माधोसिंह के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिये सुरक्षित रखा गया। हाथी अगल-बगल किंतु पीछे की ओर खड़े किये गये थे।[1]
राणा की सेना सचल दस्ते की तरह थी जो स्वयं आगे बढ़कर लड़ सकती थी। सेना के आगे के भाग का नेतृत्व हकीमखां सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये। दक्षिण पार्श्व में राजा रामशाह, उसके तीन पुत्र एवं अन्य चुने हुए वीर रखे गये। भामाशाह तथा ताराचंद, दोनों भाई भी यहीं नियुक्त किये गये।
वाम पार्श्व झाला मानसिंह के अधीन था। उसकी सहायता के लिये सादड़ी का झाला बीदा (झाला मानसिंह) तथा सोनगरा मानसिंह नियुक्त किये गये। राणा प्रताप ठीक बीच में था। सबसे पीछे पनरवा का राणा पूंजा, पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद, महासनी जगन्नाथ, केशव तथा जैसा चारण नियुक्त किये गये। महता, पुरोहित एवं चारण विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सेना के साथ रहते थे किंतु समय आने पर तलवार उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे।[2]
सेना को सजा लेने के बाद दोनों पक्ष एक दूसरे की पहल की प्रतीक्षा करने लगे। मानसिंह, हल्दीघाटी के निकट तक आ तो गया था किंतु उसकी हिम्मत आगे बढ़कर आक्रमण करने की न हुई। वह जानता था कि प्रताप के भील सैनिक हर पहाड़ी पर तीर-कमान लिये बैठे हैं, यदि वह अपने स्थान से हिला तो उसके सैनिक बात की बात में मार दिये जायेंगे।
इसलिये वह चाहता था कि प्रताप, मानसिंह पर आक्रमण करे और मानसिंह के घुड़सवारों, हाथियों और पैदलों की सेना के जाल में फंस जाये। यह पहाड़ी क्षेत्र था जिसमें अकबर की तोपें अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकती थीं। इसीलिये भालों से लड़ने वाले गुहिलों के सामने, तलवारों से लड़ने वाले कच्छवाहों को भेजा गया था। मानसिंह अपने पुराने स्वामियों के बल को भूला नहीं था, इसलिये आगे बढ़कर आक्रमण करने की भूल कदापि नहीं कर सकता था।
उधर मानसिंह सेना सजाकर खड़ा था और इधर महाराणा प्रताप अपनी भूमि पर शत्रु की सेना को पंक्तिबद्ध हुआ देखकर क्रोध से उबल रहा था। वह शत्रु के विरुद्ध तत्काल कार्यवाही करने को उत्सुक था। जब मानसिंह अपने स्थान से नहीं हिला तो प्रतापसिंह ने आगे बढ़कर धावा बोलने का निर्णय लिया।[3] आखिर वह एक खुमांण था और खुमांण की तरह ही अपने शत्रु से निबटना जानता था। सूर्यदेव, आकाश की मुंडेर पर चढ़कर हल्दीघाटी में हो रही हलचल को देखने का प्रयास कर ही रहे थे कि अचानक हल्दीघाटी में ‘हर-हर महादेव’ का घोष हुआ और प्रताप की सेना, मानसिंह की सेना की तरफ दौड़ पड़ी।
भाले चमक उठे और बख्तरबंदों की जंजीरें खनखना उठीं। रणभेरी बजने लगी और घोड़ों ने जोर से हिनहिनाना आरम्भ कर दिया। हाथी भी अपनी विकराल सूण्डें उठाकर चिंघाड़ उठे। एक खुमांण, अपनी मातृभूमि को शत्रुओं से रहित करने के लिये अपना भाला उठाये, म्लेच्छ सेना का काल बनकर दौड़ पड़ा था। आकाश में मण्डराती चीलों, अरावली की टेकरियों पर डेरा जमाये बैठे गिद्धों तथा पेड़ों के झुरमुट में छिपे सियारों, जंगली कुत्तों तथा भेड़ियों में भी उत्साह का संचरण हो गया।
अभी मानसिंह के सिपाही भौंचक्के होकर स्थिति को समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि राणा के योद्धा एकाएक मानसिंह पर आक्रमण करने लगे। जिस प्रकार मेघ समूह जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार उन योद्धाओं ने शर (बाण), असि (तलवार), शक्ति, क्रष्टि (विशेष प्रकार का हथियार), परश्वध (परशु), आदि की वर्षा कर दी।
जिस प्रकार सिंह महान हाथी को मारने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार प्रतापपक्षीय योद्धाओं के प्रताप को देखकर राजा मान ने अपनी सेना को, युद्ध के लिये ललकारा। दिन निकलने के कोई तीन घण्टे बाद, प्रताप की सेना का हाथी मेवाड़ का (केसरिया) झण्डा फहराता हुआ घाटी के मुहाने में से निकला। उसके पीछे थी सेना की अग्रिम पंक्ति हरावल हकीमखां सूर के नेतृत्व में। रणवाद्य तथा चारण गायक मिलकर वातावरण को बड़ा उत्तेजक बनाये हुए थे।[4] युद्ध आरम्भ होने से पहले अकबर के आश्रित दरबारी अल्बदायूनी ने खुदा से प्रार्थना की-
”ए खुदा, तुम में यकीन करने वाले
नर-नारियों को क्षमा कर।
जो मुहम्मद के दीन की रक्षा करता है, उसकी तू रक्षा कर।
जो उसके (मुहम्मद के) धर्म की रक्षा नहीं करता,
उसकी तू रक्षा मत कर।
मुहम्मद तुझे शांति प्राप्त हो!”[5]
राणा ने मुगल सेना पर सीधा आक्रमण किया। उस समय मुगलों की सेना, हल्दीघाटी के प्रवेश स्थान की पगडण्डी के उत्तर-पश्चिम के मैदान में लड़ने के लिये खड़ी थी जो अब बादशाह का बाग कहलाता है। राणा का आक्रमण इतना जबर्दस्त था कि मुगलों के आगे की सेना का अगला और बायें अंग का दस्ता दोनों के दोनों तितर-बितर हो गये और उनका दाहिना एवं बीच का दस्ता संकट में पड़ गये। राणा की सेना बहुत छोटी थी। उसके पास न तो कोतल सेना थी और न पीछे का कोई दस्ता था जो उसकी आरम्भिक सफलता का लाभ उठाता। अतः राणा ने शत्रु के मध्य की सेना तथा बायें अंग की सेना को हराने के लिये हाथियों से प्रहार किया क्योंकि दूसरी ओर से आते हुए तीर और गोलियों ने सिसोदियों को बहुत क्षति पहुँचाई थी।
इस प्रकार पहली मुठभेड़ में महाराणा ने मुगल सेना पर अपनी धाक बना ली। मुगल सैनिक, बादशाही बाग के उत्तर-पूर्व में हल्दीघाटी के बाहरी सिरे पर जमा हो गये। महाराणा ने आनन-फानन में मुगलों पर दूसरे आक्रमण की योजना बनाई और अपने हाथी लोना को आगे का रास्ता साफ करने के लिये भेजा। लोना का आक्रमण रोकने के लिये मुगलों ने गजमुक्ता नामक विकराल हाथी को आगे बढ़ाया। पहाड़ की आकृति वाले इन दो हाथियों के प्रहार से सैनिकों में आतंक छा गया।[6]
मुगलों का हाथी घायल होकर गिरने ही वाला था कि इसी समय राणा के हाथी के महावत को मुगल सैनिकों ने गोली मार दी। इस पर राणा का हाथी लौट गया तथा ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर के पुत्र प्रताप तंवर ने रामप्रसाद नामक हाथी आगे बढ़ाया। इस हाथी का मुकाबला करने के लिये मुगलों ने गजराज तथा रणमदार नामक दो हाथी आगे बढ़ाये। मुगलों द्वारा रामप्रसाद के महावत को भी मार डाला गया। जैसे ही महावत धरती पर गिरा, मुगल सेना के हाथियों के फौजदार हुसैनखां अपने हाथी से रामप्रसाद पर कूद गया। इस राणा के प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद को मुगलों ने बंदी बना लिया।
हाथियों की लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद कच्छवाहा तथा सिसोदिया योद्धाओं ने आगे बढ़कर निकट युद्ध आरम्भ किया। मुसलमानों ने बिना सोचे-विचारे कि राजपूत उनके पक्ष के हैं अथवा राणा के, उन पर तीर तथा गोलियां बरसाना आरम्भ कर दिया। राजा रामसहाय तंवर, महाराणा प्रताप की सुरक्षा करता हुआ महाराणा के ठीक आगे चल रहा था, उसे जगन्नाथ कच्छवाहा ने मौत के घाट उतार दिया।[7] जगन्नाथ ने जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ को भी मार डाला। जब जगन्नाथ अपने जीवन का बलिदान देने वाला ही था कि इल्तमश[8] आ गया। सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया लेकिन सैयद राजू ने उसे फिर से घोड़े पर बैठा दिया। गाजीखाँ बदख्शी आगे बढ़ा और आक्रामक युद्ध में शामिल हो गया।[9]
इस प्रकार युद्ध अपने चरम पर पहुँच गया। दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते-लड़ते रक्ततलाई में पहुंच गये थे जहाँ युद्ध का तीसरा और सबसे भयानक चरण आरम्भ हुआ। बड़ी संख्या में सैनिक कट-कट कर मैदान में गिरने लगे। मैदान मनुष्यों, हाथियों एवं अश्वों के शवों तथा कटे अंगों से भर गया तथा रक्त की नदी बह निकली। रक्त तथा मिट्टी से बनी कीचड़ में पैदल सैनिक तथा घोड़े फिसलने लगे। इस कारण लड़ाई और भी कठिन हो गई।
महाराणा के सैनिक अपने पक्ष की विजय होती देखकर हर-हर महादेव और राणा प्रताप का जयघोष करने लगे। महाराणा लगातार अपने शत्रुओं को गाजर मूली की तरह काटता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसका निश्चय मानसिंह को सम्मुख युद्ध में मार डालने का था। बहलोलखां, कच्छवाहा मानसिंह के ठीक आगे उसकी रक्षा करता हुआ चल रहा था। जब महाराणा का घोड़ा मानसिंह की तरफ बढ़ने लगा तो बहलोलखां ने महाराणा पर वार करने के लिये अपनी तलवार ऊपर उठायी, उसी समय महाराणा ने अपना घोड़ा उस पर कुदा दिया तथा उस पर अपना भाला दे मारा जिससे बहलोलखां का बख्तरबंद फट गया और वह वहीं मर गया।[10] इस प्रकार प्रताप का घोड़ा मानसिंह के हाथी के ठीक सामने पहुँच गया। महाराणा का शिकार सामने था।
महाराणा अपने नीले घोड़े पर सवार था जो इतिहास में चेटक के नाम से विख्यात हैं। चेटक के मुख पर हाथी की कृत्रिम सूण्ड बंधी हुई थी जो वास्तविक हाथियों को भ्रम में डालने के लिये थी। महाराणा ने चेटक को चक्कर दिलाकर कुंवर मानसिंह से कहा कि तुमसे जहाँ तक हो सके, बहादुरी दिखाओ, प्रतापसिंह आ पहुँचा है। यह कहकर उसने मानसिंह पर भाले का वार किया परन्तु उसके (मानसिंह के) हौदे में झुक जाने से महाराणा का बर्छा (भाला) उसके कवच में ही लगा और वह बच गया।[11]
उस समय महाराणा के घोड़े के अगले दोनों पैर मानसिंह के हाथी की सूण्ड के सिरे पर लगे[12] जिससे उसकी सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से चेटक का पिछला एक पैर जख्मी हो गया। महाराणा ने मानसिंह को मारा गया समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया।[13] रक्ततलाई में चल रहा युद्ध का तीसरा चरण भी महाराणा प्रताप के पक्ष में था इसलिये मुगल सेना में भयानक निराशा छा गई और उसके पैर उखड़ने लगे। अचानक मुगल सेना में यह समाचार फैल गया कि शहंशाह अकबर स्वयं अपनी सेना लेकर आ रहा है। अकबर के आगमन की सूचना से उत्साहित होकर मुगल सेना ने महाराणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया, इससे महाराणा के प्राण संकट में आ गये।[14]
मुगल सेना जब भी परास्त होने लगती थी या उसमें भगदड़ मच जाती थी, तब मुगल अधिकारियों द्वारा सुनियोजित रूप से मुगल सैनिकों एवं शत्रुपक्ष के सैनिकों में यह अफवाह फैलाई जाती थी कि बादशाह अपनी विशाल सेना लेकर आ पहुँचा है। इस अफवाह को सुनकर भागते हुए मुगल सैनिक थम जाते थे और दुगुने जोश से लड़ने लगते थे। इस चाल से कई बार, हारी हुई बाजी पलट जाती थी। हल्दीघाटी के युद्ध में भी जब मुगल सेना में भगदड़ मच गई तो मुगलों की चंदावल सेना के बीच यह अफवाह उड़ाई गई। यह चाल सफल रही तथा भागती हुई मुगल सेना ने पलटकर राणा को घेर लिया।
राणा अब भी शत्रुपक्ष को गाजर-मूली की तरह काट रहा था। उस पर चारों ओर से भयानक प्रहार होने लगे। इस तीसरी और अंतिम मुठभेड़ में महाराणा प्रताप के शरीर पर सात घाव लगे, तीन घाव भाले से, एक घाव बंदूक की गोली से तथा तीन घाव तलवारों से। शत्रु उस पर बाज की तरह गिरते थे परंतु वह अपना छत्र नहीं छोड़ता था। वह तीन बार शत्रुओं के समूह में से निकला। एक बार जब वह दब कर मरना ही चाहता था कि झाला सरदार दौड़ा और राणा को इस विपत्ति से निकाल कर ले गया।
संकट का आभास पाते ही झाला बीदा (झाला मान)[15] ने प्रताप पर लगा राजकीय छत्र उतारकर स्वयं अपने ऊपर लगा लिया और शत्रुओं को ललकारा कि महाराणा मैं हूँ। वह बिना किसी भय के आगे बढ़ने लगा। मुगल सैनिकों में सभी राणा प्रताप को स्वयं पकड़ने को उत्सुक थे। वे सब झाला के पीछे भागे, प्रताप पर से उनका दबाव ढीला पड़ गया। फिर भी प्रताप, युद्धक्षेत्र छोड़ने को सहमत नहीं हुआ। प्रताप के स्वामिभक्त सामंतों और सैनिकों ने चेटक की रास अपने हाथ में ले ली और उसका मुंह मोड़ दिया। पीछे हल्दीघाटी थी। उसमें से निकलकर वे घायल प्रताप को सुरक्षित स्थान पर ले गये। प्रताप की जगह झाला बीदा (झाला) के प्राण गये। इस बलिदान के लिये उसने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया था। वह अमर हो गया। उसके गिरते ही युद्ध समाप्त हो गया। [16]
महाराणा प्रताप के युद्धक्षेत्र से हट जाने से मेवाड़ी सेना की हिम्मत टूट गयी। झाला मानसिंह, राठौड़ शंकरदास, रावत नेतसी आदि वीर सेनानियों ने अपने सैनिकों को थोड़ी देर और जमाये रखने का यत्न किया परंतु कच्छवाहा मानसिंह के अंगरक्षकों ने उनके पैर जमने नहीं दिये और अंततः मेवाड़ी सेना के बचे हुए लोगों को भी मैदान छोड़ना पड़ा। झाला मन्ना अपने 150 सैनिकों के साथ खेत रहा।[17] झाला बीदा (झाला मान), तंवर रामशाह (रामसिंह), रामशाह के तीनों पुत्र, रावत नेतसी (सारंगदेवोत), राठौड़ रामदास, डोडिया भीमसिंह, राठौड़ शंकरदास आदि कई सरदार काम आये।[18]]
[1] राजेन्द्रशंकर भट्ट, उदयसिंह, प्रतापसिंह, अमरसिंह, मेवाड़ के महाराणा और शांहशाह अकबर, पृ. 230.
[2] उपरोक्त, पृ. 230-31.
[3] उपरोक्त, पृ. 231.
[4] उपरोक्त, पृ. 231.
[5] अल्बदायूनी, दूसरा भाग, पृ. 236.
[6] देवीलाल पालीवाल (सम्पा.), हल्दीघाटी युद्ध में जदुनाथ सरकार का आलेख- हल्दीघाटी की लड़ाई 1576, पृ. 9.
[7] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 449; आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार जगन्नाथ कच्छवाहा ने रामशाह को मारा जबकि इस युद्ध में भाग लेने वाले निजामुद्दीन अहमद के अनुसार रामशाह तथा रामदास दोनों को मार दिया।
[8] मुगल सेना में मध्य स्थान के अग्रगामी संरक्षक दल को इल्तमश कहते थे।
[9] अबुल फजल, अकबरनामा, उद्धृत, राजेन्द्रशंकर भट्ट, पूर्वोक्त, पृ. 237.
[10] देवीसिंह मंडावा, स्वतंत्रता के पुजारी महाराणा प्रताप, पृ. 94.
[11] कुछ लोग मानते हैं कि महाराणा का भाला लोहे के हौदे में लगा जिससे मानसिंह बच गया परन्तु नीचे लिखे एक प्राचीन पद्य के अनुसार भाला बख्तर में लगा था-
वाही राण प्रतापसी बखतर में बर्छी।
जाणे झींगरन जाळ में मुंह काढ़े मच्छी।
[12] इस युद्ध का उस समय का बना हुआ एक बड़ा चित्र उदयपुर राज्य में मौजूद है जो ई.1911 में दिल्ली दरबार के समय आयोजित प्रदर्शनी में रखा गया था। चित्र में हाथी पर बैठे मानसिंह पर महाराणा प्रताप द्वारा भाले का प्रहार करना अंकित था।
[13] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 152.
[14] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 449.
[15] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, जदुनाथ सरकार तथा वॉल्टर ने इस सामंत का नाम झाला बीदा लिखा है जबकि टॉड ने इसका नाम झाला मन्ना लिखा है।
[16] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 448;
[17] जेम्स टॉड, पूर्वोक्त, पृ. 394-396.
[18] ओझा, पूर्वोक्त, भाग-1, पृ. 440-441.