Thursday, November 21, 2024
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22. वली-ए-अहद

शाहजहाँ ने बहुत पहले ही भाँप लिया था कि उसका प्रत्येक शहजादा अपने पिता की तरह सल्तनता का लालची था और उनमें से प्रत्येक यह चाहता था कि जिस प्रकार शाहजहाँ ने अपने अठारह चाचाओं और भाइयों का कत्ल करके मुगलों का राज्य हथियाया था, उसी प्रकार वह भी अपने शेष भाइयों को मारकर तख्ते ताउस, कोहिनूर हीरा तथा लाल किले को हथिया ले। पता नहीं कब और कैसे इस कार्य में शाहजहाँ की चारों शहजादियाँ भी शामिल हो गई थीं।

हालांकि वे सभी एक ही माँ के पेट से जन्मे थे फिर भी प्रत्येक शहजादी ने अपनी पसंद का एक भाई चुन लिया था जिसे वह शाहजहाँ के स्थान पर बादशाह बनाना चाहती थी ताकि लाल किले के हरम पर उसी शहजादी का हुक्म चले तथा महल की समस्त बेगमें उसकी लौण्डियाएं बनकर रहें। इस कारण शाहजहाँ के हरम में बहुत आरम्भ में ही घात-प्रतिघात और षड़यंत्र होने लगे थे।

इन्हीं षड़यंत्रों से घबराकर ही शाहजहाँ ने बहुत आरम्भ से ही अपने तीनों छोटे शहजादों को राजधानी से दूर रखना आरम्भ कर दिया था। शाहजहाँ केवल सबसे बड़े शहजादे दारा शिकोह को अपने पास रखता था। जैसे-जैसे दारा बड़ा होता गया, उसमें राजकाज चलाने की तमीज आती गई। वह मुश्किल से बीस साल का ही हुआ था जब उसने शाहजहाँ की ओर से साम्राज्य की रीति-नीति तय करना, मुस्लिम अमीरों और हिन्दू राजाओं पर नियंत्रण रखना तथा उन्हें लड़ने के लिए विभिन्न मोर्चों पर भेजना आरम्भ कर दिया था।

मुगलों द्वारा इकट्ठे की गई अकूत सम्पदा तथा अनगिनत हीरे-पन्ने, माणक-मोती, पुखराज, गोमेद, याकूत, लाल, सोने-चांदी के भारी-भरकम जेवरातों और विभिन्न देशों से लाई गई रत्नजड़ित मूर्तियों सहित सारे खजाने का मालिक भी जाने कब और कैसे दारा ही बन गया था! लाल किले में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास बादशाह के इस अपार धन-सम्पदा की कोई न कोई सूची अवश्य थी जबकि हकीकत यह थी कि इस विशाल खजाने की वास्तविक सूची के बारे में स्वयं शाहजहाँ भी पूरी तरह परिचित नहीं था।

जाने कब और कैसे लाल किले में बैठी शहजादियाँ चतुर राजनीतिज्ञ बन गई थीं! वे लाल किले की दीवारों के भीतर चल रही छोटी-से छोटी गतिविधि की जानकारी अपने गुप्तचरों के माध्यम से अपने पक्ष के शहजादे को लिख भेजती थीं। भाइयों को लिखे जाने वाले खतों में अधिकांश सूचनाएं बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लिखी जाती थीं। इस कारण प्रत्येक शहजादा, राजधानी से सैंकड़ों कोस दूर किसी मोर्चे पर व्यस्त होने के बावजूद, शाही दरबार और शाही हरम की प्रत्येक गतिविधि से पूरी तरह भिज्ञ रहता था किंतु अफवाहों के चलते सही-गलत का फैसला करने में असक्षम था।

शाहजहाँ ने न केवल पूरे हिन्दुस्तान पर मजबूती से नियंत्रण रखा था अपितु लगभग आधा मध्य एशिया भी उसके नियंत्रण में रहने लगा था फिर भी शाहजहाँ अपने हरम पर नियंत्रण नहीं रख सका। जिस प्रकार वह अपनी उद्दाम वासनाओं पर नियंत्रण नहीं रख सका, उसी प्रकार वह अपने शहजादों में बढ़ती दुश्मनी और शहजादियों में बढ़ती सत्ता की हवस पर भी नियंत्रण नहीं रख सका था। अब परिस्थितियां पूरी तरह उसके नियंत्रण से बाहर थीं और समय इतना आगे निकल गया था कि शाहजहाँ के किए कुछ भी ठीक होने वाला नहीं था।

यही सब सोच-सोच कर शाहजहाँ की रुग्णता में दिन पर दिन और वृद्धि होती जा रही थी। पिछली बीमारी के अनुभव के कारण इस बार की बीमारी में शाहजहाँ ने झरोखा दर्शन देना जारी रखा। चाहे बहुत थोड़ी देर के लिए ही सही, बादशाह झरोखे के माध्यम से रियाया के सामने जलवा अफरोज जरूर होता था। बीमारी बढ़ती जा रही थी और एक दिन बादशाह के लिए शैय्या से उठकर खड़ा होना भी कठिन हो गया।

 उस दिन से उसने झरोखा दर्शन देना भी बंद कर दिया। उसने राजधानी में मौजूद अपने तमाम अमीरों, उमरावों, सूबेदारों, अहलकारों और हिन्दू सरदारों को बुलाकर कहा- ‘हमने पिछले पच्चीस साल से शहजादे दारा शुकोह को वली-ए-अहद घोषित कर रखा है। हमारी तबियत नासाज रहती है तथा सल्तनत के बहुत से फैसले तुरंत लेने होते हैं। अतः आप सब आज से वली-ए-अहद शहजादे दारा को मुगलिया तख्त का अगला वारिस समझें तथा केवल उसके आदेश ही स्वीकार करें। सल्तनत का काम वैसे ही चलता रहे, जैसे आज तक चलता आया है।’ शहंशाह शुरू से ही दारा शिकोह को दारा या दारा शुकोह कहकर बुलाता था।

दारा शिकोह को सल्तनत के सारे अधिकार दिए जाने की खबर आनन-फानन में न केवल लाल किले में या राजधानी आगरा में अपितु पंख लगाकर पूरी सल्तन में फैल गई। जैसे ही बादशाह ने शहजादे दारा शिकोह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, उसके शेष तीनों शहजादों और उनके पक्ष की शहजादियों के सब्र का बांध टूट गया और वे दारा शिकोह तथा जहांआरा के खून के प्यासे हो उठे। विशाल लाल किले में अकेली जहांआरा ही ऐसी थी जिसे इस आदेश से प्रसन्नता हुई थी।

जिस प्रकार दारा शिकोह अपने पिता शाहजहाँ से थोड़ा-बहुत प्रेम करता था, उसी प्रकार शहजादी जहाँआरा भी अपने पिता शाहजहाँ से सहानुभूति रखती थी और केवल वही थी जो अपने पिता की मुश्किलों को समझती थी तथा उन्हें सुलझाने में अपने भाई दारा शिकोह की मदद करती थी।

दारा शिकोह अपने पिता का सबसे बड़ा पुत्र था। वह योग्य, उदार, विनम्र तथा दयालु स्वभाव का स्वामी था। दारा की लाख कमजोरियों को जानने के बावजूद शाहजहाँ उसे सर्वाधिक चाहता था तथा उसे अपने पास ही रखता था। रियाया भी दाराशिकोह को चाहती थी। यद्यपि उस काल में मुगल सल्तनत में 95 प्रतिशत हिन्दू तथा 5 प्रतिशत मुसलमान थे तथापि रियाया से आशय केवल मुस्लिम जनसंख्या से होता था। यह बात मुस्लिम अमीरों को बहुत अखरती थी कि दारा शिकोह, मुस्लिम रियाया के साथ-साथ हिन्दुओं में भी बहुत लोकप्रिय था।

राजधानी में रहने के कारण दारा, सल्तनत की समस्याओं से अच्छी तरह परिचित था। उसे जितना अधिक प्रशासकीय अनुभव था, और किसी शहजादे को नहीं था। दारा की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उसे दूसरे शहजादों की भांति युद्ध लड़ने का व्यापक अनुभव नहीं था।

दारा के तीनों छोटे भाई, एक दूसरे के खून के प्यासे होने के बाद भी, दारा शिकोह को अपना पहला शत्रु मानते थे क्योंकि तीनों शहजादों को उसी से सर्वाधिक खतरा था। वह बरसों से राजधानी में रहता था तथा उसने अमीरों के दिलों में भी जगह बना ली थी। इसलिए दारा, बाकी के तीनों शहजादों का सम्मिलित शत्रु था। उनमें से प्रत्येक यह चाहता था कि किसी तरह दारा शिकोह मर जाए, शेष दो भाइयों को तो वह आसानी से निबटा देगा।

ऐसा नहीं था कि दारा को अपने छोटे भाइयों और उनकी पक्षधर बहिनों के रवैये की जानकारी नहीं थी, वह कभी-कभी दबी जुबां से अपने पिता से उनकी शिकायत भी करता था किंतु पिता की इच्छा के बिना, वह किसी के भी खिलाफ कोई कार्यवाही करने में असमर्थ था।

शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शाहशुजा इस समय बंगाल का सूबेदार था। वह बुद्धिमान, साहसी तथा कुशल सैनिक था परन्तु विलासी और अयोग्य होने के कारण उसमें इतने विशाल मुगल साम्राज्य को सँभालने की योग्यता नहीं थी। इसलिए दारा उससे कम आशंकित रहता था।

शाहजहाँ का तीसरा पुत्र औरंगजेब, कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह अत्यंत असहिष्णु तथा संकीर्ण विचारों का स्वामी था इस कारण उसे सल्तनत के कट्टर मुसलमानों, अमीरों, उलेमाओं और मौलवियों का भारी समर्थन प्राप्त था जिनकी संख्या, सहिष्णु मुसलमानों से बहुत अधिक थी। जिन मुल्ला-मौलवियों, अमीर-उमरावों तथा सूबेदारों को दारा शिकोह ने कभी दण्डित या प्रताड़ित किया था, वे भीतर ही भीतर दारा से दुश्मनी रखते थे और औरंगजेब के प्रति जबर्दस्त समर्थन रखते थे। दारा और औरंगजेब दोनों ही उन मुल्ला-मौलवियों, अमीर-उमरावों तथा सूबेदारों के रुख के बारे में अच्छी तरह जानते थे।

राजधानी से दूर रहने के कारण तथा हर समय युद्ध में व्यस्त रहने के कारण औरंगज़ेब को प्रान्तीय शासन तथा युद्धों का अच्छा अनुभव था। क्रूरता और मक्कारी उसकी शक्ल से ही टपकती थी। जब वह किसी को देखने के लिए आँखें उठाता था तो सामने वाले को लगता था जैसे उसने दो जलते हुए अंगारे देख लिए हों। धूर्त तथा कुटिल होने के कारण औरंगज़ेब अपनी बड़ी से बड़ी पराजय को विजय में बदलना जानता था किंतु दारा के राजधानी में रहने तथा बादशाह का चहेता होने के कारण औरंगजेब, दारा के सामने स्वयं को असहाय अनुभव करता था।

दारा शिकोह यद्यपि अपने तीनों भाइयों तथा उनके पक्ष की शहजादियों की ओर से सतर्क रहता था तथापि औरंगज़ेब के नापाक इरादों की तरफ से सर्वाधिक भयभीत रहता था। इसलिए दारा, औरंगज़ेब को किसी एक स्थान अथवा किसी एक मोर्चे पर टिके नहीं रहने देता था। वह औरंगज़ेब को कभी अफगानिस्तान के मोर्चे पर, कभी दक्षिण के मोर्चे पर तो कभी बंगाल के मोर्चे पर उलझाए रखता था।

इतना ही नहीं, दारा किसी भी अभियान के लिए औरंगज़ेब को पर्याप्त सेना और पर्याप्त धन नहीं देता था ताकि औरंगज़ेब को सैनिक सफलताएं न मिल सकें और न ही कभी औरंगज़ेब उन सेनाओं को लेकर राजधानी में घुस सके। इसलिए औरंगज़ेब के साथ जो हिन्दू सेना होती थी, उसका आकार अपेक्षाकृत बड़ा रखा जाता था ताकि बगावत की स्थिति में औरंगज़ेब पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके।

दारा ने एक व्यवस्था और की थी, उसने औरंगजेब के साथ नियुक्त रहने वाले हिन्दू राजाओं को स्पष्ट आदेश दे रखे थे कि औरंगजेब की सेनाएं दुश्मन के मुल्कों से कितना धन लूटती हैं, उस धन की सूची नियमित रूप से राजधानी में भिजवाएं।

यद्यपि औरंगज़ेब चाहता था कि आम्बेर रियासत के मिर्जा राजा जयसिंह की नियुक्ति ही औरंगज़ेब के साथ की जाए किंतु दारा अपनी तरफ से प्रयास करके मिर्जा राजा जयसिंह की बजाय, मारवाड़ के राठौड़ राजा जसवंतसिंह की नियुक्ति औरंगज़ेब के साथ करता था। महाराजा जसवंतसिंह के सामने औरंगज़ेब की एक नहीं चलती थी और दोनों ही एक दूसरे को नापसंद करते थे।

इस समय राजपूताने के थार रेगिस्तान में तीन महान् राठौड़ राजा राज्य कर रहे थे किंतु औरंगज़ेब के घमण्डी स्वभाव के कारण मारवाड़ रियासत के महाराजा जसवंतसिंह राठौड़, किशनगढ़ रियासत के महाराजा रूपसिंह राठौड़ तथा बीकानेर रियासत के महाराजा कर्णसिंह राठौड़ औरंगज़ेब को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे तथा वे सल्तनत के अगले बादशाह के रूप में दारा शिकोह को देखा करते थे।

औरंगज़ेब भी इन बातों को बहुत अच्छी तरह से समझता था इसलिए दारा शिकोह के साथ-साथ राठौड़ राजाओं से भी बेइंतहा नफरत करता था। इसी नफरत का परिणाम था कि औरंगज़ेब को दारा शिकोह तथा राठौड़ राजाओं का पक्ष लेने वाले अपने बाप शाहजहाँ से भी गहरी नफरत हो गई थी। जिस समय शाहजहाँ बीमार पड़ा, औरंगजेब, आगरा से लगभग ढाई हजार किलोमीटर दूर स्थित दक्षिण का सूबेदार था। औरंगज़ेब की दृष्टि में उसका बड़ा भाई दाराशिकोह एक काफिर था जो इस्लाम के काम को आगे बढ़ाने की बजाय काफिर हिन्दुओं को बढ़ावा देता था तथा हिन्दू ग्रंथों का अरबी एवं फारसी में अनुवाद करवाता था।

शाहजहाँ का चौथा तथा सबसे छोटा पुत्र मुराद, गुजरात और मालवा का सूबेदार था। वह भावुक तथा जल्दबाज युवक था। विलासी प्रवृत्ति का होने से उसमें दूरदृष्टि का अभाव था। वह जिद्दी तथा झगड़ालू प्रवृति का व्यक्ति था। उसमें प्रशासकीय प्रतिभा और सैनिक प्रतिभा की कमी होने पर भी बादशाह बनने की इच्छा अत्यधिक थी।

दारा जानता था कि लाल किले में बैठी शहजादियाँ, राजधानी की खबरें अतिरंजित करके, गुप्त रूप से अपने तीनों छोटे भाइयों के पास पहुँचा रही हैं। उसने इन खबरों को रोकने के प्रयत्न भी किए परन्तु हरम में हिंजड़ों, कुबड़ों, पातरियों और लौण्डियाओं आदि की संख्या इतनी ज्यादा थी कि शहजादियों के लिए जासूसी करने वालों को पहचान पाना लगभग असंभव।

बादशाह ने अपनी मुहर तथा अपने हस्ताक्षरों से शाहजादों के पास पत्र भेजने आरम्भ किए कि वे सल्तनत की सेवा पूरी मुस्तैदी से करते रहें और बादशाह के जलाल में विश्वास रखें। शाहजहाँ इन पत्रों के माध्यम से अपनी तीनों छोटे शहजादों को विश्वास दिलाने का प्रयत्न कर रहा था कि वह जीवित तथा स्वस्थ है।

हालांकि मुमताज की मृत्यु के बाद बादशाह की मुहर, बादशाह के पास ही रहती थी परन्तु फिर भी कोई भी शाहजादा इन पत्रों पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं था। वे इन पत्रों को दारा शिकोह की चाल समझते थे। हर शहजादा बादशाह को अपनी आँखों से देखना चाहता था परन्तु कोई भी शाहजादा अकेले अथवा थोड़े से अनुचरों के साथ राजधानी आने की हिम्मत नहीं रखता था, क्योंकि उन्हें दारा से भय था। किसी भी शहजादे को अपनी समस्त सेना के साथ राजधानी में आने की अनुमति नहीं थी।

इसलिए विभिन्न पक्षों में संदेह और वैमनस्य गहराने लगा और उत्तराधिकार के लिए होने वाले युद्ध की भूमिका और भी कठोर हो गई। सद्भावना, विश्वास तथा धैर्य से ही उत्तराधिकार के संभावित युद्ध को रोका जा सकता था परन्तु दुर्भाग्यवश शाहजहाँ बीमार पड़ा था तथा शाहजादों में इन गुणों का नितांत अभाव था।

न केवल लाल किले की दीवारों से अपितु एक दूसरे से भी हजारों किलोमीटर दूर बैठे शाहशुजा, औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श पत्र-व्यवहार द्वारा एक दूसरे के सम्पर्क में थे। इन पत्रों के माध्यम से ही उनमें सल्तनत के विभाजन के लिए समझौता हो गया। हालांकि तीनों ही जानते थे कि इस समझौते का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि हर हाल में केवल एक ही शहजादा पूरी सल्तनत पर कब्जा करेगा और बाकी के तीनों शहजादों को या तो अंधे होकर किसी किले में पड़े रहना होगा या किसी युद्ध के मैदान में किसी तलवार के नीचे अपने प्राण छोड़ने होंगे।

फिर भी इस समय तीनों का लक्ष्य एक ही था- दारा शिकोह। इसलिए इन तीनों शाहजादों ने सबसे पहले दारा की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने का निश्चय किया।

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