जब पाटन पराजय के समाचार जोधपुर पहुँचे तो मरुधरानाथ माथा पकड़कर बैठ गया। उसके लिये यह बहुत हताशा भरी सूचना थी। सारे किये कराये पर पानी फिर गया था। उसे मिर्जा इस्माईल तथा गंगाराम भण्डारी पर पूरा भरोसा था किंतु विधि के विधान को कौन टाल सकता था! मुत्सद्दियों ने महाराजा को सलाह दी कि राठौड़ सेनाओं को अजमेर की रक्षार्थ भेजा जाये क्योंकि महादजी का अगला निशाना अजमेर ही होगा किंतु मरुधरानाथ ने विचार किया कि राठौड़ों को मेड़ता और अजमेर मे विभक्त करने से तो अच्छा है कि अजमेर को श्वान की रोटी की तरह प्रयोग में लाया जाये। उसने अजमेर के किलेदार धनराज को संदेश भेजा कि अजमेर नगर खाली कर दे और युद्ध का पूरा सामान तथा रसद लेकर बीठली गढ़ में जा बैठे और अधिक से अधिक सेना मेड़ता की ओर रवाना कर दे। धनराज ने ऐसा ही किया। वह अजमेर खाली करके गढ़ बीठली में जा बैठा, उस की अधिकांश सेना मेड़ता पहुँच गई और महादजी ने अजमेर आ पहुँचकर गढ़ बीठली घेर लिया।
राठौड़ों की पाटन में पराजय होने पर गोवर्धन खीची ने जोधपुर आकर गुलाबराय के दत्तक पुत्र शेरसिंह को महादजी सिन्धिया के पास भेजा। वह लम्बे समय से महादजी के पास ही रहा था और मरुधरानाथ को विश्वास दिलाता रहा था कि महादजी से उसके अच्छे सम्बन्ध हैं और महादजी उसकी बात कभी नहीं टाल सकता। इसलिये वह महादजी से बात करके अजमेर मरुधरानाथ को दिलवाकर सब मामलत तय करवा देगा।
मराठों के वकील कृष्णाजी जगन्नाथ ने मरुधरानाथ को पाटन में मिली पराजय के बाद भी अजमेर के लिये अड़े हुए देखा तो पत्र लिखकर पेशवा के प्रधानमंत्री नाना साहब को सलाह दी कि पूरी शक्ति से महाराजा विजयसिंह का दमन किये हुए बिना यह रास्ते पर नहीं आयेगा। एक बार और युद्ध करना चाहता है। इसलिये एक और घमासान युद्ध हो जाना चाहिये ताकि सदैव के लिये चिन्ता मुक्त हो सकें।
पाटन पराजय के पश्चात् मरुधरानाथ के लिये जोधपुर में चैन से बैठना असंभव हो गया। मुगल बादशाह अली गौहर रेवाड़ी से ही वापस दिल्ली चला गया था। काबुल का बादशाह तैमूरशाह सिंध से वापस लौट चुका था। मिर्जा इस्माईल का सर्वस्व बर्बाद हो चुका था। नजफकुली आदि भी किसी काम के सिद्ध नहीं हुए थे। इन परिस्थितियों में मरुधरानाथ ने अपना ध्यान नये सिरे से राजपूत मित्रों की ओर केन्द्रित किया। उसने अपने राज्य के भीतर युवकों को सेना में भर्ती होना अनिवार्य कर दिया। नागौर और जोधपुर में पड़ी तोपों की मरम्मत करवाई तथा जयपुर के कच्छवाहों से नये सिरे से सम्पर्क किया। महाराजा प्रतापसिंह ने मरुधरानाथ को एक बार फिर आश्वासन दिया कि वह भावी युद्ध में राठौड़ों का साथ देगा। इसलिये अपनी सेनाओं को मेड़ता कूच के आदेश दे रहा है।
महाराजा ने मिर्जा इस्माइल बेग को कहलवाया कि उसे प्रतिदिन दस हजार रुपये सैन्य व्यय के दिये जायेंगे इसलिये वह अपनी सेना नये सिरे से खड़ी करके शीघ्रता से मेड़ता पहुँचे। मिर्जा ने मरुधरानाथ का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब जोधपुर में तोपों की मरम्मत हो गई और नये सैनिकों की भर्ती का काम पूरा हो गया तब बख्शी भीमराज के सेनापतित्व में एक विशाल सेना मेड़ता की ओर रवाना की गई। इस सेना के साथ आऊवा के शिवसिंह चाम्पावत और आसोप के महेशदास कूंपावत के नेतृत्व में दस हजार राठौड़ घुड़सवार भी मेड़ता की तरफ रवाना हुए। गंगाराम भण्डारी भी अपने बचे हुए सैनिकों को लेकर सांभर होता हुआ मेड़ता आ पहुँचा। इस प्रकार मेड़ता में भीमराज सिंघवी के नेतृत्व में कुल छत्तीस हजार घुड़सवार और पैदलों की सेना एकत्रित हो गई। बख्शी भीमराज ने अजमेर की तरफ कूच करने का विचार किया किंतु मिर्जा इस्माईल तथा कच्छवाहों की सेनाओं की प्रतीक्षा में मेड़ता से एक मील आगे डांगावास गाँव के बाहर अपना शिविर स्थापित करके बैठ गया।
उधर मराठा सरदार भी चुप नहीं बैठे थे। गोपालराव भाऊ ने अपनी सेना के चार टुकड़े किये। एक टुकड़ा जयपुर को आतंकित करने के लिये जयपुर की ओर भेज दिया ताकि कच्छवाहे जयपुर से बाहर निकलने की ही नहीं सोच सकें। दूसरा टुकड़ा अजमेर की रक्षा के लिये सन्नद्ध किया ताकि राठौड़ अचानक अजमेर में न घुस जायें। तीसरे टुकड़े में मराठा घुड़सवार थे जिन्हें लेकर गोपालराव भाऊ सांभर, नावां और परबतसर पर अधिकार करता हुआ मेड़ता की तरफ बढ़ा तथा डांगावास से कुछ दूर नेतड़िया गाँव में जा पहुँचा। चौथे टुकड़े में तोपखाना था जिसे डी बोयने के नेतृत्व में मेड़ता के लिये रवाना किया गया। सेना का यह टुकड़ा अपेक्षाकृत धीमी गति से पीसांगण, गोविंदगढ़ और आलणियावास होता हुआ मेड़ता की तरफ बढ़ने लगा किंतु रीयां के पास लूणी नदी की रेत में फंस गया।
गंगाराम भण्डारी ने पाटन में मराठों को अपनी छाती पर झेला था। वह जानता था कि तोपखाने के अभाव में मराठे राजपूतों के समक्ष मच्छरों से अधिक नहीं। इसलिये उसने बख्शी भीमराज सिंघवी को सुझाव दिया कि या तो डी बोयने के नेतड़िया पहुँचने से पहले गोपालराव भाऊ पर आक्रमण करके उसे खदेड़ देना चाहिये या फिर रीयां की तरफ बढ़कर डीबोयने से तोपखाना छीन लेना चाहिये किंतु बख्शी भीमराज सिंघवी यह सोचकर वहीं जमा रहा कि यदि वह नेतड़िया की ओर बढ़ा तो सेना की व्यूह रचना भंग हो जायेगी और ऐसी स्थिति में डी बोयने पीछे से आकर भून डालेगा। इसके विपरीत यदि वह रीयां की तरफ बढ़ा तो नेतड़िया से गोपालराव भाऊ आगे बढ़कर राठौड़ों पर हमला बोलेगा।
इधर बख्शी भीमराज ऊहापोह में कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था और उधर डी बोयने के लिये भी यह जीवन में सबसे कठिन समय था। यदि इस समय राठौड़ उसकी छाती पर आ धमकते तो वह कुछ भी नहीं कर सकता था किंतु राठौड़ों के नहीं आने से उसका कार्य सरल हो गया। कुछ ही दिनों में वह सम्पूर्ण तोपखाना नदी के पेट से बाहर निकालकर ताबड़तोड़ चलता हुआ नेतड़िया में गोपालराव भाऊ से जा मिला।
ये समाचार बख्शी भीमराज को भी यथा समय मिल गये। ठाकुर महेशदास कूंपावत तथा शिवसिंह चाम्पावत ने बख्शी भीमराज को सलाह दी कि इस समय डीबोयने की फौजें थकी हुई हैं तथा मराठों की सेना की व्यूह रचना नहीं हुई है इसलिये हमें इसी समय आगे बढ़कर मराठों पर हमला बोलना चाहिये। बख्शी तो जैसे डांगावास से न हिलने की सौगंध खाकर बैठ गया था। उसे लगता था कि जब मिर्जा इस्माईल बेग और कच्छवाहों की सेनाएं आ जायें तब अच्छी तरह से व्यूह रचना करके मराठों को युद्ध के लिये ललकारा जाये। उसका मानना था कि तुंगा के मैदान में राठौड़ों को इसी रणनीति से विजय प्राप्त हुई थी और पाटन की पराजय मिर्जा इस्माईल द्वारा मोर्चा छोड़कर पिण्डारियों की पीछे सेना भेजने की गलती के कारण हुई थी। इस युद्ध में बख्शी कोई गलती दोहरना नहीं चाहता था। वह जानता था कि इस बार का युद्ध, युद्ध कम जुआ अधिक बन गया है। न केवल महाराजा विजयसिंह का अपितु सम्पूर्ण राठौड़ शक्ति का भवितव्य दांव पर लगा हुआ है।
नेतड़िया पहुँचने के अगले ही दिन डी बोयने ने मराठों की सेनाओं को जमाना आरंभ किया। उसने पिछले अनुभव को देखते हुए तोपखाने को सबसे आगे रखा तथा तोपों को दो पंक्तियों में जमाया। तोपखाने के पीछे उसने अपनी यूरोपयिन सेना को खड़ा किया। उसके पीछे सिन्धिया की मुख्य सेना को रखा जिसका नेतृत्व जीवादादा, गोपालराव भाऊ और लखवा दादा को दिया। इस सेना के लगभग एक मील पीछे काशीराव और बापूराव के नेतृत्व में होलकर के चार हजार घुड़सवार और अली बहादुर के एक हजार घुड़सवारों को रक्षित सेना के रूप में खड़ा किया गया।
इधर जब न तो मिर्जा इस्माईल बेग आया, न कच्छवाहे आये और डी बोयने मराठों की सेना जमाने लगा तब बख्शी भीमराज ने भी डांगावास से एक मील पूर्व में स्थित तालाब के निकट छत्तीस हजार राठौड़ सेना को उत्तर से दक्षिण तक अर्धचन्द्राकार क्रम में जमाया। सेना के दायें भाग में नागा एवं जमातिया साधुओं की सेना को रखा गया। मध्य भाग में बख्शी भीमराज सिंघवी के नेतृत्व में मरुधरानाथ की सम्पूर्ण घुड़सवार तथा पैदल सेना रखी गई तथा उसके आगे अस्सी तोपें रखी गईं। सेना की बांयी तरफ ठाकुर महेशदास कूंपावत तथा शिवसिंह चाम्पावत के नेतृत्व में राठौड़ सामंतों के दस हजार राठौड़ घुड़सवार रखे गये।
इस समय दोनों सेनाओं के बीच कुल तीन मील की दूरी थी। दोनों तरफ की सेनाओं को जमने में एक दिन लग गया। इसके अगले दिन सूर्योदय होते ही डी बोयने मराठा वाहिनी को लेकर तीव्र गति से राठौड़ वाहिनी की तरफ बढ़ा और उसके निकट पहुँचते ही तोप से गोले बरसाने लगा। इस प्रकार अंततः वह दिन भी आ ही गया जिसकी तैयारी मरुधरानाथ पिछले तीन साल से कर रहा था। इस दिन का स्वागत करने के लिये उसने उत्तर भारत की समस्त महत्वपूर्ण शक्तियों से सम्पर्क किया था और लाखों रुपया तथा लगभग आधे लाख आदमियों का जीवन दांव पर लगा दिया था किंतु इस बार उसका दुर्भाग्य उसके बख्शी भीमराज के भीतर आकर बैठ गया था। वही उसे पराजय का मुख दिखाने वाला था।
भीमराज सिंघवी एक अनुभवी सेनापति था। तुंगा की सुप्रसिद्ध विजय का वास्तविक विजेता वही था। उसने कच्छवाहों के साथ न देने के उपरांत भी तुंगा का मैदान मार लिया था। मरुधरानाथ को उस पर पूरा भरोसा था। वह था भी भरोसे के योग्य। इसीलिये मरुधरानाथ ने उसे डांगावास युद्ध की भी कमान सौंपी थी। जाने क्यों बख्शी की मति पर पत्थर पड़ गये थे जो उसने न तो कूंपावत और चाम्पावत सरदारों की बात मानकर लूणी नदी में फंसे डी बोयने के तोपखाने पर आक्रमण किया था, न ही उसने नेतड़िया पहुँच कर उस समय मराठों पर हमला बोला जबकि डी बोयने की सेना थकी हुई थी और मराठों की सेना व्यूहबद्ध नहीं हो पाई थी। इतना ही नहीं उसने तो युद्ध के इस सामान्य नियम की भी अवहेलना कर दी थी कि हर युद्ध में कुछ न कुछ बिलकुल नया अवश्य होता है। आवश्यक नहीं था कि मराठे हर बार जो विलम्बकारी नीति अपनाते आये थे, इस बार भी अपनाते। इस प्रकार विलम्ब पर विलम्ब करके बख्शी ने अपनी पराजय की नींव स्वयं ही रख दी थी। यह उसके जीवन की सबसे बड़ी गलती सिद्ध होने वाली थी।
बख्शी भीमराज पागलों की तरह अपने स्थान पर बैठा रहा। उसने न तो आगे बढ़कर आक्रमण करने का साहस दिखाया था न ही सौभाग्य से हाथ आये किसी अवसर से लाभ उठाने का प्रयास किया था। आज भी वह डी बोयने को एक दम से सिर पर आया देखकर हक्का-बक्का रह गया। यह मराठों के चरित्र से बिलकुल उलट बात थी। न तो बख्शी को यह आशा थी कि वे इतनी प्रातः ही युद्ध के लिये आ जायेंगे, न बख्शी को यह आशा थी कि वे आते ही बिना कोई क्षण खोये गोले बरसाने लगेंगे। राठौड़ों की सेना में तो अभी अमल-पानी ही चल रहा था। इससे राठौड़ों में अव्यवस्था फैल गई और उनका तोपखाना चालू ही नहीं किया जा सका। बोइने ने आगे बढ़कर राठौड़ों का तोपखाना छीन लिया।
तोपखाना छिन जाने से भीमराज बख्शी की हालत पतली हो गई। अब वह मराठा तोपखाने के ठीक सामने खड़ा था। उसे कुछ नहीं सूझा और वह प्राण बचाने के लिये युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया। उसके हटते ही राठौड़ नेतृत्व विहीन हो गये। यह एक ऐसी लड़ाई थी जिसमें सेनापति बिना लड़े ही मैदान से भाग गया। जब भीमराज सिंघवी अपनी सेना के साथ पीछे की ओर भाग लिया तो मराठों का कप्तान रोहन अपने सेनापति को सूचित किये बिना तालाब के पास खड़े नागा और जमातिया साधुओं का संहार करने के लिये आगे बढ़ा। भीमराज सिंघवी के नेतृत्व में खड़े राठौड़ घुड़सवारों ने रोहन के इस निश्चय को भांप लिया और उन्होंने आगे बढ़कर रोहन को घेरा और रोहन की सेना को बुरी तरह से काट डाला। रोहन किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल हो गया।
जैसे जैसे सूर्य देव आकाश में ऊपर चढ़ते चले गये, युद्ध भयानक रूप लेता गया। भीमराज सिंघवी तो पहले ही युद्ध का मैदान छोड़ चुका था इसलिये उसके स्थान पर गंगाराम भण्डारी तथा बनेचंद सिंघवी बड़ी वीरता से मराठों का सामना कर रहे थे। मुत्सद्दियों को इस प्रकार तलवार चलाते देखकर राठौड़ सामंतों को भी जोश आ गया। ठाकुर महेशदास कूंपावत तथा शिवसिंह चाम्पावत सहित अन्य राठौड़ सरदारों ने अपने दस हजार घुड़सवारों के साथ डी बोयने के तोपखाने पर हमला किया। देखते ही देखते इन राठौड़ सरदारों ने डी बोयने का तोपखाना छीन लिया। इसके बाद वे घोड़ों की पीठ पर बैठे-बैठे ही तलवारें चलाते हुए आगे बढ़ते रहे। उन्होंने डी बोयने की पलटनों को तितर-बितर कर दिया। वे गोपालराव भाऊ, जीवा दादा और लखवा दादा के नेतृत्व में खड़ी मराठा वाहिनियों की ओर बढ़े किंतु इसी बीच राठौड़ों की पैदल सेना ने मैदान छोड़ दिया जिससे इन घुड़सवारों को पीछे से कोई सहायता नहीं मिली और बोइने ने फिर से अपने तोपखाने पर अधिकार कर लिया। यह राठौड़ों की बहुत बड़ी रणनीतिक पराजय थी। एक बार हाथ आया तोपखाना उन्हें किसी भी हालत में हाथ से नहीं जाने देना चाहिये था।
अब राठौड़ दो पाटों के बीच में पिस गये। उनके आगे मराठों की मुख्य सेना थी और पीठ पर मराठों का तोपखाना आग बरसा रहा था। इस पर भी राठौड़ भारी पड़े। वे तोपखाने के गोलों की मार से बचने के लिये इधर उधर होकर मुख्य सेना तक पहुँच गये और मराठों का भारी संहार करने लगे। मराठों को इस तरह समाप्त होते देखकर मुख्य सेना से दूर खड़ी होलकर की सेना के चार हजार घुड़सवार तथा अली बहादुर के एक हजार घुड़सवारों ने युद्ध के मैदान में प्रवेश किया तथा राठौड़ों को चुन-चुन कर मारने लगे। संध्या होने से पहले युद्ध के मैदान में एक भी राठौड़ घुड़सवार जीवित नहीं बचा। सायं चार बजेयुद्ध पूरी तरह समाप्त हो गया। विजयश्री एक बार फिर मराठों के गले में जयमाला डाल चुकी थी।
गंगाराम भण्डारी अब भी अपने दो हजार सैनिकों को साथ लेकर युद्ध के मैदान में डटा हुआ था किंतु जब उसने देखा कि बाजी राठौड़ों के हाथ से निकल गई तो उसने अपने दो हजार सैनिकों के साथ युद्ध का मैदान छोड़ दिया और भागकर मेड़ता के मालकोट में शरण ली। अन्य जीवित राठौड़ सरदार भी अपने आदमियों सहित मालकोट के दुर्ग में आ गये। इस युद्ध में तीन हजार राठौड़ घुड़सवार मारे गये, दो हजार बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गये। राठौड़ों का पूरा तोपखाना मराठों के पास चला गया। दूसरी तरफ डी बोयने के नौ सौ घुड़सवार तथा मराठों के पाँच सौ घुड़सवार रणखेत रहे तथा ढाई हजार मराठा सैनिक क्षत-विक्षत हुए किंतु रणक्षेत्र मराठों के हाथ रहा। राठौड़ पराजित होकर मालकोट में घुस गये।
अगले दिन राठौड़ मालकोट में मोर्चा बांध कर बैठे। अगले कई दिनों तक डी बोइने मालकोट पर अधिकार करने के लिये संघर्ष करता रहा। अंत में राठौड़ों को मालकोट खाली करके जोधपुर की तरफ भाग जाना पड़ा। डी बोयने ने मालकोट पर अधिकार कर लिया।