गुहिल, चित्तौड़ से निकाले जा चुके थे तथा रणथंभौर भी उनसे छीना जा चुका था किंतु अकबर की राज्य-विस्तार-लिप्सा का अंत नहीं हुआ था। अकबर किसी भी तरह हो, सम्पूर्ण मेवाड़ को निगल जाना चाहता था। मेवाड़ के सरदार इस तथ्य से अनजान नहीं थे। इसलिये जब उदयसिंह ने ई.1572 में अपनी मृत्यु के समय, राणी भटियाणी से विशेष प्रेम होने के कारण बड़े कुंवर प्रतापसिंह के स्थान पर, भटियाणी के पुत्र जगमाल[1] को अपना उत्तराधिकारी बनाया तो अखैराज सोनगरा[2] ने मेवाड़ी सरदारों से कहा कि अकबर जैसा शत्रु सिर पर है, चित्तौड़ हाथ से निकल गया है, मेवाड़ उजड़ रहा है, ऐसी दशा में यदि घर का बखेड़ा बढ़ गया तो राज्य नष्ट होने में क्या संदेह है? रावत कृष्णदास और सांगा ने कहा कि ज्येष्ठ पुत्र कुंवर प्रतापसिंह ही जो सब प्रकार से योग्य है, महाराणा होगा।
इस पर जगमाल उठ कर चला गया और समस्त सरदारों ने प्रतापसिंह को नजराना किया। इसके बाद प्रताप गोगूंदा से कुम्भलगढ़ गया, जहाँ उसके राज्याभिषेक का उत्सव हुआ।[3] उस समय प्रताप की आयु 32 वर्ष थी।[4]
प्रतापसिंह अच्छी तरह समझता था कि मेवाड़ के सामंतों ने जगमालसिंह के स्थान पर मुझे महाराणा क्यों बनाया है। मेवाड़ी सामंत अपने पूर्वजों की धरा को शत्रु के हाथों में जाते हुए नहीं देखना चाहते थे और मरते दम तक शत्रुओं से संघर्ष करना चाहते थे। यह वही मेवाड़ था जिसके लिये गुहिल, विगत आठ सौ वर्षों से मरते-मारते आये थे। अब अकबर जैसा प्रबल शत्रु पूरे भारत को निगल जाने के लिये तत्पर था और प्रतापसिंह को उसके समक्ष मेवाड़ी स्वतंत्रता को बनाये रखने की जिम्मेदारी थी। प्रतापसिंह इस भूमिका के लिये तैयार था। आखिर वह भी एक ‘खुमांण’ था जो आठवीं शताब्दी से खलीफाओं की आंधी के सामने छाती ठोककर खड़े थे।
जिस समय प्रताप, मेवाड़ का महाराणा हुआ, उससे पूर्व, ई.1561 में मालवा, जौनपुर एवं चुनार, ई.1562 में आम्बेर, ई.1564 में गोंडवाना, ई.1568 में चित्तौड़, ई.1569 में रणथंभौर तथा कालिंजर[5], ई.1570 में मारवाड़[6] तथा बीकानेर[7] एवं ई.1571 में सिरोही[8] आदि राज्य एवं दुर्ग अकबर के अधीन चले गये थे। ई.1573 में गुजरात, अकबर के अधीन हो गया।[9] इस प्रकार ई.1573 तक मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ के गुहिलों को छोड़कर, राजपूताना के समस्त हिन्दू राजवंश अकबर के अधीन जा चुके थे। ये चारों राजा उसी प्रतापी गुहिल के वंशज थे जिसने गुप्त साम्राज्य के पतन के समय छठी शताब्दी ईस्वी में अपने राज्यवंश की स्थापना की थी।[10]
ये चारों राज्य अकबर की आँख की किरकिरी थे। प्रताप के सिंहासनारूढ़ होते ही ई.1573 में अकबर ने आम्बेर के राजकुमार मानसिंह को डूंगरपुर तथा उदयपुर की तरफ यह आज्ञा देकर भेजा कि जो राजा हमारी अधीनता स्वीकार कर ले उसका सम्मान करना और जो ऐसा न करे उसे दण्ड देना। शाही फौज ने सबसे पहले डूंगरपुर पर आक्रमण किया।
वहाँ का रावल आसकरण पहाड़ों में चला गया। जून 1573 में मानसिंह, मेवाड़ आया ताकि महाराणा को समझाकर बादशाही सेवा स्वीकार कराई जा सके। महाराणा ने कुंवर मानसिंह के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया। मानसिंह ने महाराणा से बादशाही सेवा स्वीकार करवाने का बहुत उद्यम किया जो सब प्रकार से निष्फल सिद्ध हुआ। उसकी विदाई के समय महाराणा ने उसके लिये उदयसागर की पाल पर दावत का प्रबंध किया। भोजन के समय महाराणा स्वयं उपस्थित न हुआ और कुंवर अमरसिंह को आज्ञा दी कि तुम मानसिंह को भोजन करा देना।
मानसिंह ने महाराणा के भोजन में सम्मिलित होने का आग्रह किया तो अमरसिंह ने उत्तर दिया कि महाराणा के पेट में कुछ दर्द है, इसलिये वे उपस्थित न हो सकेंगे, आप भोजन कीजिये। इस पर मानसिंह ने जोश में आकर कहा कि इस पेट के दर्द की दवा मैं खूब जानता हूँ, अब तक तो हमने आपकी भलाई चाही, परन्तु आगे के लिये सावधान रहना। इस बात को सुनकर कुलाभिमानी महाराणा ने (मानसिंह से) कहलाया कि जो आप अपने सैन्य सहित आवेंगे तो मालपुरा में हम आपका स्वागत करेंगे और यदि अपने फूफा (अकबर) के बल पर आवेंगे तो जहाँ मौका मिलेगा, वहीं आपका सत्कार करेंगे। यह सुनते ही मानसिंह अप्रसन्न होकर वहाँ से चला गया। इस प्रकार दोनों के बीच वैमनस्य उत्पन्न हो गया। महाराणा ने मानसिंह को यवन सम्पर्क से दूषित समझकर भोजन तालाब में फिंकवा दिया और वहाँ की जमीन खुदवाकर उस पर गंगाजल छिड़कवाया।[11]
रामकवि ने जयसिंह चरित्र में लिखा है- मानसिंह ने भोजन के समय कहा कि जब आप भोजन नहीं करते तो हम क्यों करें? राणा ने कहलवाया कि कुंवर आप भोजन कर लीजिये, अभी मुझे कुछ गिरानी है, पीछे से मैं भोजन कर लूंगा। कुंवर ने कहा कि मैं आपकी इस गिरानी का चूर्ण दे दूंगा। फिर कुंवर कांसे (थाल) को हटाकर अपने साथियों सहित उठ खड़ा हुआ और रूमाल से हाथ पोंछकर उसने कहा कि चुल्लू तो फिर आने पर करूंगा। [12]
मौतमिदखां ने लिखा है- कुंवर मानसिंह जो इसी (मुगल) दरबार का तैयार किया हुआ खास बहादुर आदमी है और जो फर्जन्द (बेटा) के खिताब से सम्मानित हो चुका है, अजमेर से कई मुसलमान और हिन्दू सरदारों के साथ राणा को पराजित करने के लिये भेजा गया। इसको भेजने में बादशाह का अभिप्राय यह था कि वह राणा की ही जाति का है और उसके बाप-दादे हमारे अधीन होने से पहले राणा के अधीन और खिराजगुजार रहे हैं, इसको भेजने से सम्भव है कि राणा इसे अपने सामने तुच्छ और अपना अधीनस्थ समझकर लज्जा और अपनी प्रतिष्ठा के ख्याल से लड़ाई में सामने आ जाये और युद्ध में मारा जाये।……कुंअर मानसिंह शाही फौज के साथ मांडलगढ़ पहुंचा और वहाँ सेना की तैयारी के लिये कुछ दिन ठहरा। राणा ने अपने गर्व के कारण उसे अपने अधीनस्थ जमींदार समझकर उसको उपेक्षा की दृष्टि से देखा और यह सोचा कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही लड़ें। [13]
मौतमिदखां के उपर्युक्त कथन में काफी अंश में सच्चाई दिखाई देती है क्योंकि आम्बेर के कच्छवाहे, वास्तव में मेवाड़ के गुहिलों के अधीन सामंत थे। कच्छवाहा राजा पृथ्वीराज, महाराणा सांगा की सेना में था। भारमल का पुत्र भगवानदास भी पहले महाराणा उदयसिंह की सेवा में रहता था। बाद में जब राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार की तब से आम्बेर वालों ने मेवाड़ की अधीनता छोड़ दी थी।[14] निश्चित रूप से अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप से संधि न की जाये अपितु उसे सम्मुख युद्ध में मारा जाये और यह कार्य, महाराणाओं के पुराने चाकर अपने हाथों से करें। अकबर, अच्छी तरह समझता था कि अपने पुराने चाकर के हाथों, गुलामी का संदेश पाकर महाराणा अवश्य ही भड़क जायेगा और युद्ध करने पर उतारू हो जायेगा।
इतना होने पर भी मौतमिदखां के इस कथन में रंच मात्र भी सच्चाई नहीं है कि राणा ने अपने गर्व के कारण मानसिंह को अपने अधीनस्थ जमींदार समझकर, उपेक्षा की दृष्टि से देखा। वास्तविकता तो यह है कि महाराणा ने मानसिंह का पर्याप्त सत्कार किया। मानसिंह के साथ बैठकर भोजन न करना, महाराणा के गर्व का नहीं अपितु राजनीति का हिस्सा था जिसके माध्यम से महाराणा ने मानसिंह को स्पष्ट संदेश दिया कि अकबर को बेटियां देने वाले, महाराणा के बराबर बैठकर भोजन करने के अधिकारी नहीं हैं।
मानसिंह ने बादशाह के पास पहुँचकर अपने अपमान का सारा हाल कहा, जिस पर क्रुद्ध हो अकबर ने महाराणा का गर्वभंजन कर उसे सर्वतोभावेन अपने अधीन करने का विचार कर मानसिंह को ही भेजने का निश्चय किया।[15] राजप्रशस्ति महाकाव्य और राजपूताने की ख्यातों में इस घटना का वर्णन मिलता है। इसके विपरीत अबुल फजल ने लिखा है कि राणा ने मानसिंह का स्वागत कर अधीनता के साथ शाही खिलअत पहन ली और उसे अपने महलों में ले जाकर उसके (मानसिंह के) साथ दगा करना चाहा, जिसका हाल मालूम होते ही मानसिंह वहाँ से चला गया।[16] ओझा ने अबुल फजल के वर्णन को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि महाराणा का अधीनता के साथ खिलअत पहनना तो दूर रहा, वह तो अकबर को बादशाह नहीं, तुर्क कहा करता था। [17]
अकबर ने अजमेर पहुँचकर, 2 अप्रेल 1576 को मानसिंह को मेवाड़ के लिये रवाना किया। मानसिंह, माण्डलगढ़ पहुँचकर लड़ने की तैयारी करने लगा। जब महाराणा को मानसिंह के माण्डलगढ़ आने की जानकारी हुई तो महाराणा भी कुम्भलगढ़ से चलकर गोगूंदा आ गया। उसका विचार था कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही मानसिंह पर आक्रमण करे किंतु सरदारों ने कहा कि इस समय कुंवर, अकबर के बल पर आया है इसलिये पहाड़ों के सहारे ही शाही सेना का मुकाबला करना चाहिये। महाराणा ने भी इस सलाह को पसंद किया और युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।
[1] यह जैसलमेर की राजकुमारी धीरबाई थी। उसका पुत्र जगमाल, महाराणा उदयसिंह के पुत्रों में नौवें क्रम पर था।
[2] अखैराज सोनगरा, महाराणा प्रताप का नाना था। सोनगरा चौहानों का राज जालोर में था जिसे चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अलाउद्दीन खिलजी ने नष्ट कर दिया था। जालोर के सोनगिरि पर्वत के नाम पर चौहानों की यह शाखा सोनगरा कहलाती थी। अखैराज सोनगरा की पुत्री जैवंताबाई के गर्भ से 9 मई 1540 को महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। प्रताप, उदयसिंह की 18 रानियों से उत्पन्न 24 पुत्रों में सबसे बड़ा था। महाराणा उदयसिंह की 20 पुत्रियां भी थीं।
[3] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 146.
[4] उपरोक्त, पृ. 146.
[5] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 439-445.
[6] ई.1562 में मेड़ता तथा नागौर एवं ई.1570 में जोधपुर राज्य अकबर के अधीन हो गये।
[7] करणीसिंह, बीकानेर के राजघराने का केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध (1465-1949), पृ. 49.
[8] गौरीशंकर हीराचंद ओझा, सिरोही राज्य का इतिहास, संस्करण 2006, पृ. 232.
[9] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 446.
[10] यह राजवंश सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु के समय से ही अस्तित्व में था।
[11] ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 426-27.
[12] यह पद इस प्रकार से है-
राना सों भोजन समय गही मान यह बान।
हम क्यों जैंवे आपहू जैंवत हो किन आन।।
कुंवर आप आरोगिये राना भाख्यो हेरि।
मोहि गरानी सी कछू अबै जैइहूं फेरि।।
कही गरानी की कुंवर भई गरानी जोहि।
अटक नहीं कर देऊंगो तूरण चूरण तोहि।
दियो ठेल कांसो कुंवर उठे सहित निज साथ।
चुलू आंन भरि हौं कह्यो पौंछ रुमालन हाथ।।
[13] मौतमिदखां इकबालनामा-ए जहांगीरी, पृ. 303 एवं 305, उद्धृत ओझा, पूर्वोक्त पृ. 429.
[14] ओझा, पूर्वोक्त, पृ. 429.
[15] जेम्स टॉड, पूर्वोक्त जि. 1, पृ. 391-92; श्यामलदास, भाग-2, पृ. 147-48.
[16] अबुल फजल, अकबरनामा, इलियट, जि. 6, पृ. 62-63.
[17] तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।