मध्य एशिया में स्थित ‘सउदी अरेबिया’ नामक देश के ‘मक्का’ नगर में रहने वाले ‘कुरेश कबीले’ में ई.570 में ‘हजरत मुहम्मद’ का जन्म हुआ। लगभग चालीस वर्ष की आयु में उन्होंने ‘इस्लाम’ की स्थापना की तथा मूर्तिपूजा का विरोध किया। ई.622 में हजरत मुहम्मद, मक्का से मदीना गये, वहाँ उन्होंने अपने अनुयायियों की एक सेना संगठित करके मक्का पर आक्रमण कर दिया तथा सैन्य-बल से मक्का में सफलता प्राप्त की। मुहम्मद, न केवल इस्लाम के प्रधान स्वीकार कर लिये गये वरन् राजनीति के भी प्रधान बन गये और उनके निर्णय सर्वमान्य हो गये। इस प्रकार पैगम्बर मुहम्मद के जीवन काल में इस्लाम तथा राज्य के अध्यक्ष का पद एक ही व्यक्ति में संयुक्त हो गया और मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम को सैनिक तथा राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया।
हजरत मुहम्मद के बाद उनके उत्तराधिकारी ‘खलीफा’ कहलाये। मुहम्मद के बाद उनके ससुर अबूबकर, प्रथम खलीफा चुने गये। उनके प्रयासों से मेसोपोटमिया तथा सीरिया में इस्लाम का प्रचार हुआ। अबूबकर की मृत्यु होने पर ई.634 में ‘उमर’ खलीफा बने। उन्होंने इस्लाम के अनुयायियों की एक विशाल सेना संगठित की और साम्राज्य विस्तार तथा धर्म प्रचार का कार्य साथ-साथ आरम्भ किया। जिन देशों पर उनकी सेना विजय प्राप्त करती थी वहाँ के लोगों को मुसलमान बना लेती थी। इस प्रकार थोड़े ही समय में फारस, मिस्र आदि देशों में इस्लाम का प्रचार हो गया। खलीफाओं ने इस्लाम का दूर-दूर तक प्रचार किया।
खलीफाओं के समय में भी इस्लाम तथा राजनीति में अटूट सम्बन्ध बना रहा क्योंकि खलीफा, न केवल इस्लाम के अपितु राज्य के भी प्रधान होते थे। उनके राज्य का शासन कुरान के अनुसार होता था। इस कारण शासन पर मुल्ला-मौलवियों का प्रभाव रहता था। इस प्रकार इस्लाम का प्रचार शान्तिपूर्ण विधि से उपदेशकों द्वारा नहीं, वरन् खलीफा के सैनिकों द्वारा तलवार के बल पर किया गया। जहाँ कहीं इस्लाम का प्रचार हुआ वहाँ की धरा रक्त-रंजित हो गई। इस्लामी सेनाध्यक्ष, युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये ‘जेहाद’ अर्थात् धर्म युद्ध का नारा लगाते थे जिसका अर्थ था, विधर्मियों का विनाश।
ई.711 में ईरान के गवर्नर हज्जाज ने बगदाद के खलीफा की आज्ञा लेकर अपने भतीजे ‘मुहम्मद बिन कासिम’ जो कि हज्जाज का दामाद भी था, की अध्यक्षता में एक सेना सिन्ध पर आक्रमण करने भेजी। यह भारत पर इस्लाम का प्रथम आक्रमण था। इन दिनों सिंध में महाराजा दाहिरसेन का शासन था। कासिम ने विशाल सेना लेकर ‘देवल’ (देबुल) नगर पर आक्रमण किया। कासिम ने देवलवासियों को मुसलमान बनने की आज्ञा दी किंतु देवलवासियों ने मना कर दिया। इस पर कासिम की आज्ञा से सत्रह वर्ष से ऊपर की आयु के समस्त पुरुषों को तलवार के घाट उतार दिया गया, स्त्रियों एवं बच्चों को दास बना लिया गया तथा नगर को लूटकर, लूट का सामान सैनिकों में बाँट दिया गया।
कासिम की सेना नीरून, सेहयान आदि नगरों को जीतती हुई, दाहिरसेन की राजधानी ब्राह्मणाबाद पहुँची। दाहिरसेन ने बड़ी वीरता से शत्रु का सामना किया परन्तु परास्त हुआ तथा रणक्षेत्र में ही मारा गाया। उसकी रानी ने अन्य स्त्रियों के साथ चिता में बैठकर सतीत्व की रक्षा की। अब कासिम ने ‘मूलस्थान’ (मुल्तान) की ओर प्रस्थान किया। मूलस्थान के शासक ने भी बड़ी वीरता से शत्रु का सामना किया परन्तु जल के अभाव के कारण उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा।
यहाँ भी कासिम ने भारतीयों की हत्या करवाई और उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बनाया। जिन लोगों ने उसे ‘जजिया’ देना स्वीकार किया उन्हें मुसलमान नहीं बनाया गया। हिन्दू मन्दिरों की सम्पति लूट ली गई। मूलस्थान पर विजय के बाद कासिम अधिक दिनों तक जीवित न रह सका। लूट के माल को लेकर खलीफा उससे अप्रसन्न हो गया। इसलिये उसने कासिम को वापस बुला कर उसकी हत्या करवा दी।
मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के लगभग 350 वर्ष बाद उत्तर-पश्चिमी दिशा से भारत भूमि पर तुर्क आक्रमण आरंभ हुए। ‘तुर्कों’ के पूर्वज ‘हूण’ थे। उनमें ‘शकों’ तथा ‘ईरानियों’ के रक्त का भी मिश्रण हो गया था तथा उन्होंने इस्लाम को अंगीकार कर लिया था। तुर्क, चीन की पश्चिमोत्तर सीमा पर रहते थे। उनका सांस्कृतिक स्तर निम्न श्रेणी का था। वे खूंखार और लड़ाकू थे। युद्ध से उन्हें स्वाभाविक प्रेम था।
जब खलीफाओं की विलासिता के कारण इस्लाम के प्रसार का काम मंद पड़ गया तब तुर्क ही इस्लाम को दुनिया भर में फैलाने के लिये आगे आये। उन्होंने 10वीं शताब्दी में बगदाद एवं बुखारा में खलीफाओं के तख्ते पलट दिये और ई.943 में मध्य एशिया के ‘अफगानिस्तान’ में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी गजनी थी। भारत में ‘इस्लाम’ का प्रसार इन्हीं तुर्कों ने किया। माना जाता है कि अरबवासी ‘इस्लाम’ को मक्का से कार्डोवा तक लाये। ईरानियों ने उसे बगदाद तक पहुँचाया और तुर्क उसे दिल्ली ले आये।
गजनी[1] के तुर्क सुल्तानों ने ई.977 के बाद भारत पर आक्रमण आरम्भ किये। गजनी के शासक सुबुक्तगीन ने पंजाब के राजा जयपाल पर आक्रमण किया तथा ‘लमगान’ को लूट लिया। सुबुक्तगीन का वंश ‘गजनवी वंश’ कहलाता था। ई.997 में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र महमूद गजनवी, गजनी का शासक हुआ। उसने भारत पर 17 आक्रमण किये। उसने ई.1000 में सीमान्त प्रदेश पर, ई.1001 में पंजाब पर, ई.1003 में भेरा पर, ई.1005 तथा ई.1007 में मुल्तान पर, ई.1008 में नगरकोट पर, ई.1009 में नारायणपुर (अलवर) पर, ई.1011 में मुल्तान पर, ई.1013 में काश्मीर पर, ई.1014 में थानेश्वर पर, ई.1015 में काश्मीर पर, ई.1018 में बुलंदशहर, मथुरा तथा कन्नौज पर, ई.1019 में कालिंजर पर, ई.1020 में पंजाब पर, ई.1022 में ग्वालियर तथा कालिंजर पर, ई.1025 में सोमनाथ पर तथा ई.1027 में सिंध पर आक्रमण किये।[2]
महमूद के आक्रमणों से उत्तर भारत में जन-धन की अपार हानि हुई। लाखों हिन्दू नागरिक, बर्बरता तथा मृत्यु के शिकार हुए। भारत की सैन्य शक्ति को गंभीर आघात लगा। मंदिरों, भवनों तथा देव प्रतिमाओं के टूट जाने से भारत की वास्तुकला, चित्रकला और शिल्पकला को गहरा धक्का पहुँचा। भारत को विपुल आर्थिक हानि उठानी पड़ी। लोग निर्धन हो गये तथा उनमें जीवन के उद्दात्त भाव नष्ट हो गये। नागरिकों में परस्पर ईर्ष्या-द्वेष तथा कलह उत्पन्न हो गई।
देश की राजनीतिक तथा धार्मिक संस्थाओं के बिखर जाने तथा विदेशियों के समक्ष सामूहिक रूप से लज्जित होने से भारतीयों में पराजित जाति होने का मनोविज्ञान उत्पन्न हुआ जिसके कारण वे अब संसार के समक्ष तनकर खड़े नहीं हो सकते थे और वे जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ते चले गये। लोगों में पराजय के भाव उत्पन्न होने से भारतीय सभ्यता और संस्कृति की क्षति हुई। भारत का द्वार इस्लाम के प्रसार के लिये खुल गया। देश में लाखों लोग मुसलमान बना लिये गये।[3]
महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया तथा गजनी और हिरात के बीच गौरवंश[4] का उदय हुआ। ई.1173 में गयासुद्दीन गौरी ने गजनी पर अधिकार कर लिया और अपने छोटे भाई शहाबुद्दीन को वहाँ का शासक नियुक्त किया। यही शहाबुद्दीन, मुहम्मद गौरी के नाम से जाना गया। उसने ई.1175 से ई.1206 तक भारत पर कई आक्रमण किये तथा दिल्ली में मुस्लिम शासन की आधारशिला रखी। मुहम्मद गौरी का पहला आक्रमण ई.1175 में मूलस्थान (मुल्तान) पर हुआ। गौरी ने मूलस्थान पर अधिकार कर लिया। उसी वर्ष गौरी ने ऊपरी सिंध के कच्छ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ई.1178 में गौरी ने गुजरात के चौलुक्य राज्य पर आक्रमण किया। गुजरात पर इस समय मूलराज शासन कर रहा था। ‘गौरी’, मूलस्थान, कच्छ और पश्चिमी राजपूताना में होकर आबू के निकट कयाद्रा गांव पहुँचा जहाँ मूलराज (द्वितीय) की सेना से उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध में गौरी बुरी तरह परास्त होकर भाग गया। यह भारत में उसकी पहली पराजय थी।
ई.1179 में गौरी ने पुष्पपुर (पेशावर) पर अधिकार कर लिया। ई.1181 में गौरी ने चौथा तथा ई.1185 में पांचवा आक्रमण करके स्यालकोट तक का प्रदेश जीत लिया। अंत में लवपुर[5] (लाहौर) को भी उसने अपने प्रांत में मिला लिया। ई.1182 में उसने निचले सिंध पर आक्रमण करके ‘देवल’ के शासक को अपने अधीन किया। पंजाब पर अधिकार कर लेने से गौरी के अधिकार क्षेत्र की सीमा, चौहान शासक पृथ्वीराज (तृतीय) के राज्य से आ लगी।
पृथ्वीराज ई.1179 में अजमेर तथा सांभर का शासक बना। बाद में दिल्ली भी उसके अधिकार में आ गई। इतिहास में वह पृथ्वीराज चौहान तथा ‘रायपिथौरा’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी के बीच 21 लड़ाइयां हुईं जिनमें चौहान विजयी रहे। ‘हम्मीर महाकाव्य’ ने पृथ्वीराज द्वारा सात बार गौरी को परास्त किया जाना लिखा है। ‘पृथ्वीराज प्रबन्ध’ आठ बार हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का उल्लेख करता है। ‘प्रबन्ध कोष’ का लेखक बीस बार गौरी को पृथ्वीराज द्वारा कैद करके मुक्त करना बताता है। ‘सुर्जन चरित्र’ में 21 बार और ‘प्रबन्ध चिन्तामणि’ में 23 बार गौरी का हारना अंकित है। [6]
ई.1192 में मुहम्मद गौरी ने 1,20,000 सैनिक लेकर भारत पर आक्रमण किया। तराइन के मैदान में एक बार फिर पृथ्वीराज ने उसका मार्ग रोका किंतु इस बार गौरी ने पृथ्वीराज को संधि के भुलावे में डालकर धोखे से पराजित कर दिया। इस युद्ध में दिल्ली का राजा तोमर गोविन्दराज तथा चितौड़ का राजा सामंतसिंह [7] रणखेत रहे। पृथ्वीराज चौहान पकड़ा गया तथा बाद में गौरी द्वारा मार दिया गया। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के साथ ही भारत का इतिहास मध्यकाल में प्रवेश कर जाता है। इस समय भारत में दिल्ली, अजमेर तथा लाहौर प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे। ये तीनों ही मुहम्मद गौरी और उसके गवर्नरों के अधीन चले गये। गौरी का भारत पर अंतिम आक्रमण ई.1194 में कन्नौज के गहरवारों पर हुआ। इस युद्ध में कन्नौज का राजा जयचंद मारा गया तथा उसका राज्य समाप्त हो गया।
पंजाब तथा सिंध क्षेत्र में तो महमूद गजनवी के समय से ही मुसलमानों के राज्य स्थापित होने आरम्भ हो गये थे। ई.1192 में हुई तराइन की दूसरी लड़ाई के बाद अजमेर, दिल्ली, हांसी, सिरसा, समाना तथा कोहराम के क्षेत्र भी मुहम्मद गौरी के अधीन हो गये। इससे हिन्दू धर्म की बहुत हानि हुई। मन्दिर एवम् पाठशालायें ध्वस्त कर अग्नि को समर्पित कर दी गईं। हजारों-लाखों ब्राह्मण मौत के घाट उतार दिये गये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया गया।
हजारों हिन्दू योद्धा मार डाले गये। चौहानों, तोमरों एवं गहरवारों की सामरिक शक्ति नष्ट हो गई तथा अन्य हिन्दू राजाओं का मनोबल टूट गया। जैन साधु उत्तरी भारत छोड़कर नेपाल तथा तिब्बत आदि देशों को भाग गये। भारत की अपार सम्पत्ति म्लेच्छों के हाथ लगी। उन्होंने पूरे देश में भय और आतंक का वातावरण बना दिया जिससे पूरे देश में हाहाकार मच गया। मुहम्मद गौरी ने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का गवर्नर नियुक्त किया। इस प्रकार दिल्ली में पहली बार मुस्लिम सत्ता की स्थापना हुई। भारत की हिन्दू प्रजा, मुस्लिम सत्ता की गुलाम बनकर रहने लगी। हिन्दुओं के तीर्थ स्थल बनारस पर भी मुहम्मद गौरी का गवर्नर नियुक्त हो गया।
[1] गजनी को 67वीं पीढ़ी के यदुवंशी राजा गजबाहु ने बसाया था। बाद में तुर्कों ने इस पर अधिकार कर लिया।
[2] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ. 10-17.
[3] मोहनलाल गुप्ता, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 337-38.
[4] यदुवंशी राजाओं की भट्टि शाखा में उत्पन्न राजकुमार गौरी ने बलख से 100 किलोमीटर दूर गौर नामक नगर बसाया था। उसके वंशज गौरी कहलाये। बाद में इस शाखा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तथा वे मूर्तिपूजक से मूर्तिभंजक बन गये।
[5] श्रीराम के पुत्र लव ने लवपुर बसाया था जो बाद में लाहौर कहलाने लगा।
[6] मोहनलाल गुप्ता, पूर्वोक्त, पृ. 346-47.
[7] प्राचीन ख्यातों, पृथ्वीराज रासो एवं राजप्रशस्ति महाकाव्य में इस राजा का नाम गलती से समरसिंह लिखा गया है।