शक विदेशी थे तथा पहली शताब्दी ईस्वी में आक्रांता के रूप में भारत में आये थे किंतु शताब्दियों तक भारतीय सभ्यता के निरंतर सम्पर्क से वे भारतीय संस्कृति में ही रच-बस गये। जब चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ तो शक क्षत्रप गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गये। मथुरा और तक्षशिला के शक क्षत्रपों का झुकाव जैन व बौद्ध धर्मों की तरफ था जबकि पश्चिमी भारत के शक; बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों के अनुरागी थे। अर्थात् राजस्थान के कुछ शक शासक अवश्य ही बौद्ध धर्म के अनुयायी रहे होंगे।
उनके काल में भरतपुर तथा उससे संलग्न क्षेत्र बौद्ध धर्म के प्रभाव में था। शकों की तरह कुषाण भी विदेशी थे तथा वे भी पहली शताब्दी ईस्वी में आक्रांता के रूप में भारत आये थे। 78 ईस्वी में कनिष्क भारत का सम्राट हुआ। उसने 101 ईस्वी अथवा 123 ईस्वी तक भारत पर शासन किया। जब वह भारत आया, तब वह बौद्ध नहीं था किंतु जब उसने मगध को जीत लिया तो बौद्ध धर्म को धारण कर लिया। उसके द्वारा जारी की गई तीन तरह की मुद्राएं मिली हैं- प्रथम कोटि की मुद्राओं पर यूनानी देवता, सूर्य, तथा चन्द्रमा के चित्र मिलते हैं। उसकी दूसरी कोटि की मुद्राओं पर ईरानी देवता अग्नि के चित्र मिलते हैं तथा तीसरी कोटि की मुद्राओं पर बुद्ध के चित्र मिलते हैं।
इन मुद्राओं से अनुमान होता है कि कनिष्क आरम्भ में यूनानी धर्म को मानता था, उसके बाद उसने ईरानी धर्म स्वीकार किया और अन्त में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। पाटलिपुत्र में कनिष्क की भेंट बौद्ध आचार्य अश्वघोष से हुई। वह अश्वघोष की विद्वता तथा व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें अपने साथ अपनी राजधानी पुष्पपुर अर्थात् पेशावर ले गया और उनसे बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
जिस प्रकार अशोक ने तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में बुलाई थी उसी प्रकार कनिष्क ने चतुर्थ बौद्ध संगीति काश्मीर के कुण्डलवन में बुलाई। इस संगीति को बुलाने का ध्येय बौद्ध धर्म में उत्पन्न हुए मतभेदों को दूर करना और बौद्ध ग्रन्थों का सकंलन कर उन पर प्रामाणिक टीका एवं भाष्य लिखवाना था। इस संगीति में लगभग 500 भिक्षु तथा बौद्ध आचार्य सम्मिलित हुए। यह सभा बौद्ध आचार्य वसुमित्र के सभापतित्त्व में हुई। आचार्य अश्वघोष ने उपसभापति का आसन ग्रहण किया। इस सभा की कार्यवाही संस्कृत भाषा में हुई।
स्पष्ट है कि इस काल में पुनः संस्कृत भाषा का सम्मान बढ़ रहा था। इस सभा में बौद्ध धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया गया और त्रिपिटक ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखी गईं। कनिष्क ने इन टीकाओं को ताम्रपत्रों पर लिखवाकर उन्हें पत्थर के सन्दूक में रखवाकर उन पर स्तूप बनवा दिया।
चतुर्थ बौद्ध संगीति में ‘महायान’ संप्रदाय को मान्यता दी गई। महायान सम्प्रदाय बौद्धों की प्रगतिशील तथा सुधारवादी धारा थी जो देश तथा काल के अनुसार बौद्ध धर्म में परिवर्तन करने के पक्ष में थी। अब बौद्ध धर्म का प्रचार विदेशों में भी हो गया था तथा भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशियों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों में थोड़ा बहुत परिवर्तन करना आवश्यक हो गया था। भारत में इस काल में ब्राह्मण धर्म तथा भक्ति मार्ग का प्रचलन जोरों से बढ़ रहा था। इससे भी बौद्ध धर्म अप्रभावित नहीं रह सकता था।
बौद्ध धर्म को अपनी लोकप्रियता बनाने के लिए लोकप्रिय संशोधनों की आवश्यकता थी। इन्हीं सब कारणों से महायान को मान्यता दी गई जो शीघ्र ही भक्तिवादी, अवतारवादी तथा मूर्तिवादी बन गया। महायान सम्प्रदाय वाले, बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी तथा बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी उपासना करने लगे। यद्यपि महायान सम्प्रदाय का बीजारोपण कनिष्क के पहले ही हो चुका था परन्तु उसे मान्यता बौद्धों की चतुर्थ संगीति में दी गई और उसे कनिष्क ने राजधर्म बना लिया। महायान सम्प्रदाय के आश्रयदाता तथा समर्थक के रूप में कनिष्क को उतना ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जितना अशोक को हीनयान सम्प्रदाय के संरक्षक तथा समर्थक के रूप में प्राप्त था।
कुषाण कालीन बुद्ध मूर्तियां दो प्रकार की शैली में मिलती हैं। मथुरा शैली की कुषाण कालीन मूर्तियों में बुद्ध सिंहासन पर बैठे हुए दिखाये गये हैं। जबकि कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों ने जो बौद्ध मूर्तियाँ बनवाईं, उनमें से अधिकांश मूर्तियां, गान्धार जिले में मिली हैं तथा गांधार कला के नाम से जानी जाती हैं। गान्धार कला की बहुत सी प्रतिमाएँ मुद्राओं पर भी उत्कीर्ण मिलती हैं। गान्धार कला को इण्डो-हेलेनिक कला अथवा इण्डो-ग्रीक कला भी कहा जाता है, क्योंकि इस पर यूनानी कला की छाप है। बुद्ध की मूर्तियों में यवन देवताओं की आकृतियों का अनुसरण किया गया है। इस कला को ग्रीक बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है।
इस शैली की मूर्तियों में बुद्ध कमलासन मुद्रा में मिलते हैं किंतु मुखमण्डल और वस्त्रों से यूनानी राजाओं की तरह लगते हैं। बुद्ध की ये मूर्तियां यूनानी देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्य रखती हैं। महाभिनिष्क्रण से पहले के काल को इंगित करती हुई बुद्ध की जो मूर्तियां बनाई गई हैं, उनमें बुद्ध को यूरोपियन वेशभूषा तथा रत्नाभूषणों से युक्त दिखाया गया है।
राजस्थान भी कनिष्क के शासन क्षेत्र में सम्मिलित था। अतः निश्चित रूप से उसके काल में अनके बौद्ध विहार एवं चैत्य बने होंगे जो अब प्राप्त नहीं होते। भरतपुर के निकट नोह की सभ्यता से इस काल की बुद्ध मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं।
गुप्तकाल में बौद्ध स्मारक
गुप्तों ने जब अपने राज्य की नींव रखी थी, तब इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि बौद्ध विहारों में भिक्षु बनकर बैठे नागरिकों को भोजन, वस्त्र और आवास उपलब्ध कराने के स्थान पर उन्हें सैनिक बनाकर भोजन, वस्त्र और आवास उपलब्ध कराना अधिक श्रेयस्कर है। अतः उन्होंने बौद्ध धर्म के स्थान पर वैष्णव धर्म को अपना राज्यधर्म घोषित किया। ऐसे देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाई जाने लगीं जिनके हाथों में आयुध लगे हुए हों। इस काल में भगवान के मेदिनी उद्धार की वराह मूर्ति को भी विशेष स्थान मिला जिसके माध्यम से गुप्त शासक यह बताना चाहते थे कि जिस प्रकार विष्णु ने वराह बनकर धरती अद्धार किया उसी प्रकार गुप्तों ने विदेशी शासकों से देश को मुक्त कराकर धरती का उद्धार किया है।
गुप्त शासकों द्वारा पूरे साम्राज्य में भव्य एवं विशाल मंदिर बनाये गये और उनमें भगवान विष्णु के दशावतारों की मूर्तियां प्रतिष्ठित की गईं। भगवान विष्णु द्वारा वराह अवतार के रूप में मेदिनी का उद्धार किये जाने तथा शेष-शैय्या पर शयन करने की मूर्तियां इस काल में विशेष रूप से बनाई गईं। गुप्त शासकों द्वारा दिग्वविजयों, अश्वमेधों और ना-ना प्रकार के यज्ञों का आयोजन किया जाने लगा। इस कारण जनसामान्य वैष्णव धर्म की ओर आकर्षित हुआ, बौद्ध धर्म नेपथ्य में जाने लगा तथा बौद्ध विहारों तथा मूर्तियों का बनना लगभग बंद हो गया। निश्चित रूप से राजस्थान पर भी इसका असर पड़ा।