नागौर जिले के छोटी खाटू से मिली कुछ मूर्तियों पर ब्राह्मी लिपि से युक्त कुछ लेख अंकित हैं। ये लेख चौथी या पांचवीं शताब्दी के हैं तथा गुप्तकालीन अनुमानित होते हैं। छोटी खाटू से मिले मूर्तियों के खजाने में बुद्ध की कई मूर्तियां हैं।
मुथारी के अवशेष
धौलपुर जिले के मुथारी गांव में भूतेश्वर मेला भरता है तथा सावन कृष्णा चौदस से परवा तक दो दिन के लिए भरता है। मेला प्रसिद्ध उटंगन नदी के किनारे पर भरता है जो बौद्ध अवशेषों के लिए प्रसिद्ध है। वर्तमान में यहां शिवजी का एक मंदिर है।
उत्तर गुप्त कालीन बौद्ध स्मारक
कुछ परवर्ती गुप्त शासकों विशेषकर पुरुगुप्त (467 ई. से 473 ई.) ने बौद्ध धर्म को अपनाया किंतु इस बार भी मगध साम्राज्य की वही दुर्दशा हुई जो मौर्य शासकों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाये जाने के कारण हुई थी। अर्थात् गुप्त साम्राज्य की सेनाएं कमजोर होने लगीं तथा गुप्त साम्राज्य का सूर्य अस्ताचल की ओर लुढ़क गया।
बारां जिले के कोषवर्द्धन दुर्ग (शेरगढ़) से उत्तर गुप्त कालीन बौद्ध शिलालेख प्राप्त हुआ है जो छठी से सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच के किसी समय का है। यह शिलालेख दुर्ग के भीतरी परकोटे की दीवार में बरखाड़ी द्वार के दक्षिण की ओर स्थित सीढ़ियों के एक ताक के शिलाफलक में अंकित है। इस शिलालेख में बीस संस्कृत श्लोक लिखे गये हैं। इस शिलालेख की प्रारम्भि पंक्तियां इस प्रकार से हैं- ओं नमो रत्नत्रयाय। जयन्तिः वादाः सुगतस्य निर्म्मलाः समस्तसन्देह निरासभासुराः कुतर्क्कसम्पात् निपातहेतवो युगान्तवाता इव विश्वन्ततेः। अर्थात् यह एक प्रशस्ति है जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियों में त्रिरत्नों- बुद्ध, संघ और धर्म का उल्लेख है तथा बुद्ध को सुगत कहा गया है।
इस लेख में देवदत्त सामंत द्वारा अपने शासन के सातवें वर्ष में संवर्द्धन गिरि नामक पर्वत के पूर्व में बौद्ध मंदिर और विहार का निर्माण करवाये जाने का उल्लेख किया गया है। हीनयान मतानुयायी बुद्ध को सुगत कह कर सम्बोधित करते थे। इससे अनुमान होता है कि यह स्थान हीनयान से सम्बन्धित था।
इस प्रशस्ति में लेखक जज्जक ने स्वयं को शाक्यकुलोदधि कहा है अर्थात् इस शिलालेख का लेखक एक बौद्ध भिक्षु था और संभवतः उसने उसी कुल में जन्म लिया था जिस कुल में भगवान बुद्ध जन्मे थे। इस लेख से यह भी ज्ञात हो जाता है कि राजस्थान में हीनयान मतानुयायी भी छठी-सातवीं शताब्दी में संस्कृत भाषा का प्रयोग कर रहे थे।
बौद्ध धर्म का ह्रास
बौद्ध धर्म अपने प्रकाट्य से लेकर लगभग एक हजार साल तक अर्थात् छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर पांचवी शताब्दी ईस्वी तक भली-भांति फलता-फूलता रहा किंतु गुप्तों के उत्थान के साथ बौद्ध धर्म की चमक फीकी पड़ने लगी। फिर भी बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म अपना अस्तित्व बनाये रहे। पांचवी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ह्रास आरम्भ हुआ तथा अगले सात सौ वर्षों में अर्थात् बारहवीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक यह धर्म भारत भूमि से लगभग पूरी तरह उन्मूलित हो गया।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि विदेशों में आज भी बौद्ध धर्म विद्यमान है परन्तु अपनी जन्म भूमि भारत में वह लुप्त प्रायः है। बौद्ध धर्म के पतन के कई कारण थे जिनमें बौद्ध धर्म की एकता का भंग होना, ईश्वर से विमुखता के कारण जन सामान्य का उससे उकता जाना, बौद्ध धर्म में अनुष्ठान, समारोह, आडम्बर तथा अन्धविश्वासों का प्रचलित हो जाना तथा अनेक देवी-देवताओं की पूजा आरम्भ हो जाना, बौद्ध संघों में भिक्षुओं का विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत करना, विहारों में नाच-गानों का आयोजन होना, ब्राह्मण धर्म के पुररुत्थान का काम आरम्भ हो जाना, ब्राह्मण धर्म में शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट आदि उच्च कोटि के विद्वानों तथा दार्शनिकों का जन्म लेना, रामानुज आदि भक्तिमार्गी सन्तों द्वारा भक्ति का सरल मार्ग प्रतिपादित करना, बौद्ध धर्म को राज्याश्रय का अभाव होना आदि कई ऐसे कारण उत्पन्न हो गये जिनके कारण बौद्ध धर्म सिमटने लगा।
हूणों की विनाश लीला
पांचवी शताब्दी ईस्वी में बैक्ट्रिया से एक विप्लवकारी तूफान उठा। बैक्ट्रिया भारत और ईरान के मध्य में तथा हिन्दुकुश पर्वत के पश्चिम में स्थित था। इसे ईसा के जन्म से लगभग 325 वर्ष पहले, एलेक्जेण्ड्रिया के राजा सिकन्दर ने मध्य एशिया में अपनी प्रांतीय राजधानी के रूप में स्थापित किया था। बैक्ट्रिया से उठा विनाशकारी तूफान हूंगनू नामक एक प्राचीन चीनी जाति की विध्वंसकारी विजय यात्रा के कारण उत्पन्न हुआ था जिन्हें भारत में हूण कहा जाता है तथा जिन्हें यूचियों के कारण अपना मूल स्थान छोड़कर बैक्ट्रिया में आकर रहना पड़ा था।
पांचवी शताब्दी ईस्वी में हूणों के नेता अत्तिल ने मध्य एशिया की दो बड़ी राजधानियों- रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया पर भयानक आक्रमण करके उन्हें तहस-नहस कर डाला तथा ईरान को परास्त करके वहाँ के राजा को मार डाला।
उनकी बर्बर सेनाओं ने डैन्यूब नदी पार करके सिंधु नदी तक के क्षेत्र को रौंद डाला। ऐसे विषम समय में गुप्तों के महान राजा स्कन्दगुप्त (415-455 ई.) ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की किंतु इस कार्य में गुप्त साम्राज्य की इतनी शक्ति क्षीण हो गई कि बाद के गुप्त-सम्राट्, भारत को हूणों के प्रहारों से नहीं बचा सके।
पांचवी शताब्दी के अन्त में (484 ईस्वी के आसपास) हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। उसने पहले गान्धार पर और बाद में गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भागों पर प्रभुत्व स्थापित किया तथा मालवा को भी जीत लिया। आधुनिक राजस्थान प्रांत के झालावाड़, कोटा, बारां आदि जिले तथा मध्यप्रदेश का मंदसौर क्षेत्र इसी मालवा में स्थित थे।
मेवाड़ के कुछ हिस्से भी इसमें आते थे। इस प्रकार तोरमाण भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रदेश के बहुत बडे़ भू-भाग पर अधिकार करके, पंजाब में स्थित स्यालकोट को राजधानी बनाकर शासन करने लगा। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा हुआ। उत्तर भारत में उसके सिक्के पर्याप्त संख्या में मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उस काल में काश्मीर, पंजाब, राजस्थान, मालवा आदि विशाल प्रदेश हूणों के आधिपत्य में चले गये थे।
मिहिरकुल बड़ा ही निर्दयी तथा रक्त पिपासु था। उसने मगध के गुप्त सम्राट बालादित्य पर आक्रमण किया। बालादित्य ने मिहिरकुल को जीवित ही बंदी बनाया। वह मिहिरकुल का वध करना चाहता था किन्तु राजमाता के आदेश पर उसे जिंदा छोड़ दिया गया। मिहिरकुल ने भाग कर कश्मीर में शरण ली किंतु कुछ समय बाद विश्वासघात करके वहां के राजा को मार दिया तथा स्वयं कश्मीर का राजा बन गया।
उसने गान्धार नरेश को मारकर गान्धार पर भी अधिकार कर लिया। जब मिहिरकुल गुप्तों के हाथों से फिसल गया तब मालवा के राजा यशोधर्मा (यशोवर्मन) ने मिहिरकुल पर आक्रमण किया तथा उसे बुरी तरह परास्त किया। मन्दसौर अभिलेख कहता है कि यशोधर्मा से पराजित होने के पूर्व मिहिरकुल ने स्थाण् (भगवान शिव) के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाया।