Saturday, December 21, 2024
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बौद्ध धर्म की उन्नति के कारण

बुद्ध के जीवन काल में ही बौद्ध धर्म का संगठित रूप सामने आ चुका थ किंतु उनके निर्वाण के बाद उनके शिष्यों द्वारा इस धर्म को तेजी से फैलाया गया। छठी शताब्दी ई.पू. में भारतवर्ष में जितने क्रांतिकारी आन्दोलन आरम्भ हुए उनमें सबसे अधिक लोकप्रिय बौद्ध धर्म ही था। कुछ ही समय में इसका प्रचार सम्पूर्ण उत्तरी भारत में हो गया। धीरे-धीरे दक्षिण भारत में भी इसका प्रचार हुआ और कालान्तर में न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् बर्मा, श्रीलंका, तिब्बत, चीन, जापान, मध्य एशिया, इण्डोचीन, कम्बोज आदि देशों में भी बौद्ध धर्म का प्रचार हो गया।

गौतम बुद्ध

‘बौद्ध’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘बुद्ध’ शब्द से बना है। बुद्ध उस व्यक्ति को कहते हैं जिसे बोधि अथात् ज्ञान प्राप्त हो गया है। बुद्ध के अनुयायियों को बौद्ध कहते हैं और जिस धर्म का ये लोग अनुसरण करते हैं उसे बौद्ध धर्म कहते हैं। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे। उनका जन्म 563 ई.पू. में कपिलवस्तु नामक एक छोटे से गणराज्य के प्रधान शुद्धोदन के सबसे बड़े पुत्र के रूप में हुआ।

बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ की माता का नाम महामाया अथवा मायादेवी था जो गोरखपुर जिले में स्थित एक गणराज्य के प्रधान की कन्या थी। जब मायादेवी नैहर जा रही थी तो मार्ग में लुम्बिनी नामक वन में, जो नेपाल की तराई में स्थित है, सिद्धार्थ का जन्म हुआ। प्रसव पीड़ा से मायादेवी का निधन हो गया। सिद्धार्थ का पालन-पोषण उनकी विमाता प्रजापति देवी गौतमी ने किया। सिद्धार्थ के जन्म पर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि राजकुमार या तो महान् चक्रवर्ती सम्राट होगा या महान् सन्यासी होगा।

गौतमी द्वारा पालन किये जाने के कारण सिद्धार्थ को गौतम कहा जाता है तथा शाक्य क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण उन्हें शाक्य मुनि कहा जाता है। बुद्धत्व अर्थात् ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद वे बुद्ध कहलाये। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोदन सूर्यवंशी शाक्य क्षत्रिय थे तथा उनका राज्य कपिलवस्तु वर्तमान बस्ती जिले की पूर्वी सीमा पर स्थित था। युवा होने पर सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी से किया गया जिससे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया। 

महा-अभि-निष्क्रमण

सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही बड़े गम्भीर तथा चिन्तनशील थे। वे प्रायः एकान्त में बैठकर चिन्तन किया करते थे और इतने विचार मग्न हो जाते थे कि उन्हें किसी बात की सुध-बुध नहीं रह जाती थी। उन्हें वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु; मनुष्य के सबसे भंयकर शत्रु प्रतीत हुए। वे इनसे मुक्ति पाने का मार्ग ढूंढने के लिए व्यग्र हो उठे। विवाह के बारह-तेरह वर्ष बाद तक गृहस्थाश्रम में रहकर ही वे चिन्तन करते रहे।

जब वे 29 वर्ष के हुए तो एक दिन रात्रि के समय उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया और अपनी सोती हुई पत्नी, पुत्र और राज्य-वैभव को त्याग कर अपने सारथी छंदक के साथ एक रथ में बैठकर सत्य की खोज के लिए निकल गये। बौद्ध साहित्य में इसी घटना को ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहते हैं।

निष्क्रमण का अर्थ होता है निकल जाना। जब सिद्धार्थ अपने पिता के राज्य की सीमा के बाहर निकल गए तब उन्होंने अपने सारथी तथा घोड़े लौटा दिये और अपने राजसी वस्त्र तथा आभूषण एक भिखारी को देकर एक सन्यासी का रूप धारण करके सत्य की खोज में चल दिये।

सम्बोधि

सिद्धार्थ मगध की राजधानी राजगृह गये जहां उच्च कोटि के ब्राह्मण आचार्यों के अनेक आश्रम स्थित थे। सिद्धार्थ उनके शिष्य बन गये परन्तु शीघ्र ही उन्हें निराश होकर वहां से चला जाना पड़ा क्योंकि ब्राह्मण आचार्य उन्हें निवृत्ति का मार्ग नहीं दिखा सके। जब सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ा तब पांच और साथी उनके साथ हो लिए। सिद्धार्थ ने गया के समीप उरूवेल नामक वन में पांच साथियों के साथ प्रवेश किया और छः वर्ष तक ऐसी कठिन तपस्या की कि उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया परन्तु उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई।

तब वे इस नतीजे तक पहुंचे कि शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं और स्वस्थ शरीर से ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके पांचों साथियों की श्रद्धा उनमें समाप्त हो गई और वे उनका साथ छोड़कर काशी की ओर चले गए। अब सिद्धार्थ ने अकेले ही चिन्तन करना प्रारंभ किया। 35 वर्ष की अवस्था में वैशाखी पूर्णिमा की रात्रि में जब वे एक बरगद वृक्ष के नीचे समाधि लागा कर चिन्तन में लीन थे तब उन्हें सत्य के दर्शन हुए।

बौद्ध धर्म में इस घटना को ‘सम्बोधि’ (उचित ज्ञान की प्राप्ति) कहा गया है। सिद्धार्थ इसी समय से बुद्ध कहलाये क्योंकि उन्हे बोधि अर्थात् ज्ञान प्राप्त हो गया था और उनके द्वारा प्रचलित धर्म, बौद्ध धर्म कहलाया। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें सम्बोधि प्राप्त हुई थी वह बोधि वृक्ष कहलाया और गया का नाम बोधिगया पड़ गया।

 प्रतीत्य समुत्पात

सम्बोधि में सिद्धार्थ को ‘प्रतीत्य समुत्पात’ के सिद्धान्त का बोध हुआ और उन्होंने ‘निर्वाण’ प्राप्त कर लिया। प्रतीत्य का अर्थ होता है प्रतीति अथवा विश्वास और समुत्पात का अर्थ होता है उत्पत्ति। इस प्रकार ‘प्रतीत्य समुत्पात’ का शब्दिक अर्थ हुआ उत्पत्ति में विश्वास।

व्यापक अर्थ में ‘प्रतीत्य समुत्पात’ का अर्थ है, ‘संसार की सभी वस्तुएं और वासनाएं कार्य और कारण पर निर्भर हैं।’

इसका तात्पर्य यह हुआ कि कार्य तथा कारण में बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है और जो कुछ भी इस संसार में होता है उसका कोई न कोई कारण अवश्य है। ‘निर्वाण’ का शाब्दिक अर्थ होता है मुक्ति, परन्तु व्यापक अर्थ में ‘निर्वाण’ सांसारिक तृष्णाओं, दुःखों और बन्धनों से छुटकारा पा लेने की अवस्था है, जो कि चरम सत्य है। इस प्रकार बुद्ध को संसारिक बन्धनों से छुटकारा पाने का मार्ग ज्ञात हो गया।

धर्म-चक्र-प्रवर्तन

 मान्यता है कि बुद्ध अपने धर्म का प्रचार नहीं करना चाहते थे परन्तु जब उन्होंने देखा कि संसार के लोग ना-ना प्रकार के दुःखों में डूबे हुए हैं और उनसे छुटकारा पाने के लिए छटपटा रहे हैं तब उनका कोमल उदार हृदय अपार करुणा से पिघल गया और उन्होंने अपने धर्म का प्रचार करने का निर्णय लिया। बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश काशी के समीप सारनाथ नामक स्थान पर अपने उन पांचों सथियों को दिया जो उनका साथ छोड़ कर चले गए थे। बौद्ध साहित्य में उस प्रथम उपदेश को ‘धर्म-चक्र-प्रवर्तन कहा जाता है जिसका अर्थ है धर्म रूपी चक्र का चलाना। बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा- “चारों दिशाओं में जाओ और अपने धर्म का प्रचार करो।”

बुद्ध ने स्वयं भी अपने जीवन के शेष 45 वर्ष अपने धर्म का प्रचार करने में व्यतीत किये। उन्होंने अपने उपदेश जनसाधारण को पालि भाषा में दिये। उनके धर्म प्रचार का प्रधान क्षेत्र आधुनिक बिहार, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग तथा नेपाल था। बुद्ध के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि राजा तथा रंक सभी उनके उपदेशों के प्रभाव आ जाते थे। बुद्ध के जीवन काल में ही उनके अनुयायियों का एक अच्छा संघ बन गया।

महा-परि-निर्वाण

लगभग 80 वर्ष की आयु में अपने धर्म का प्रचार करते हुए महात्मा बुद्ध मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे। यहाँ वे अतिसार (पेचिश) रोग से पीड़ित हो गए। पावा से वे कुशीनगर गये और वहीं पर अस्सी वर्ष की आयु में 483 ई.पू. में उनकी देह शांत हुई। बौद्ध धर्म में इस घटना को ‘महा-परि-निर्वाण’ (महान् मोक्ष की प्राप्ति) कहते हैं। बुद्ध का स्थान संसार के महान् धर्म प्रवर्तकों में है जिनके धर्म का न केवल सारे भारतवर्ष में वरन् एशिया में बहुत बड़े भाग में प्रचार हुआ।

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