Saturday, October 12, 2024
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7. दुर्लभ चित्र

लाल किले के मध्यम में स्थित शाहजहाँ का विशाल महल दुनिया भर से लूट-खसोट और छीन कर एकत्रित की गई हजारों तरह की कीमती वस्तुओं से भरा पड़ा था। उसके खजाने में लाखों की संख्या में बड़े-बड़े लाल, हीरे, मोती, फिरोजा और पुखराज जगमगाते थे। महल की दीवारों पर देश-देश से लाई हुई सोने, चांदी, ताम्बे, पीतल और काष्ठ की सैंकड़ों कलात्मक वस्तुएं, कटारें, तलवारें, गुप्तियां एवं मूर्तियाँ सजी हुई थीं।

बादशाहों, बेगमों और शहजादों ने जिन हिरणों, शेरों, गैण्डों और मगरमच्छों के शिकार किए थे, उनके सींग, खाल और मुण्ड भी यत्र-तत्र टंगे हुए थे। संगमरमर पर नक्काशी की हुई कलाकृतियों की तो कोई सीमा ही नहीं थी। हाथी दांत और चंदन की लकड़ी से बनी ऐसी-ऐसी दुर्लभ वस्तुएं उस विशाल महल के कमरों, दालानों और बारामदों में मौजूद थीं कि उन्हें देखकर सिर चकराने लगता था।

इन दुर्लभ वस्तुओं में दीवारों पर सजी हुई वे सैंकड़ों तस्वीरें भी मौजूद थीं जिन्हें दुनिया भर के सिद्धहस्त चित्रकारों ने बड़े परिश्रम से बनाया था। मुगल बादशाहों, उनकी बेगमों और शहजादियों ने करोड़ों दीनारें और मोहरें इन चित्रों को बनाने वाले चित्रकारों पर न्यौछावर कर दी थीं। इन्हीं दुर्लभ चित्रों के बीच एक चित्र ऐसा भी था जो बादशाह सिकंदर लोदी के समय से दिल्ली के बादशाहों के खास महल की शोभा बढ़ा रहा था। जब फरगना से आए बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत पर अपना अधिकार किया तब लोदियों के महलों से लूटी गई लाखों बेषकीमती चीजों में यह चित्र भी षामिल था। लिखने-पढ़ने के शौकीन बाबर ने इसे बेषकीमती चित्र समझकर अपने खास महल में टांग लिया था। जीवन भर का दुर्भाग्यशाली बाबर तो शीघ्र ही मर गया और यह चित्र हुमायूँ के महल की शोभा बढ़ाने लगा।

जब शेरशाह सूरी के सेनापति बरमजीद गौड़ ने हुमायूँ को आगरा से बाहर निकाला तो उसने हुमायूँ के महल को ठीक उसी अंदाज में लूटा जिस अंदाज में एक दिन बाबर ने इब्र्राहीम लोदी के महल को लूटा था। बरमजीद ने मुगलों द्वारा अर्जित बेशकीमती हीरे-मोती और जवाहरात तो अपने पास रख लिए तथा हुमायूँ के महल का बाकी रहा बेशकीमती सामान अपने सिपाहियों में बांट दिया।

उसने हुमायूँ के महल की उन बहुत सारी दुर्लभ वस्तुओं को जला कर राख कर दिया जिन्हें वह इस्लाम के विरुद्ध समझता था। यह दुर्लभ चित्र भी निश्चय ही उसी दिन अग्निदेव को समर्पित हो जाता यदि ठीक समय पर आगरा पहुँचकर शेरशाह सूरी अपने इस उद्दण्ड सेनापति को ऐसा करने से न रोक देता।

जब शेरशाह हिन्दुस्तान का शासक हुआ तो यह दुर्लभ चित्र सूरवंश के बादशाहों के महल की शोभा बढ़ाने लगा। पंद्रह साल बाद जब हुमायूँ लौटकर आगरा आया तब उसे यह चित्र बादशाह आदिलशाह के महल में सही सलामत मिल गया। हुमायूँ ने इस चित्र को पहचान लिया। यह वही चित्र था जिसे सिकंदर लोदी ने अपने सामने बैठकर बनवाया था।

यह चित्र हुमायूँ को जी-जान से प्यारा था। उसका वश चलता तो इस चित्र को वह अपने साथ ईरान ले जाता किंतु बरमजीद गौड़ ने उसे आगरा से कुछ भी ले जाने का अवसर नहीं दिया था।

एक तरह से यह अच्छा ही हुआ था क्योंकि यदि हुमायूँ उस चित्र को अपने साथ ले गया होता तो निश्चित तौर से वह चित्र विगत पंद्रह साल की भागमभाग में हुमायूँ से अलग हो ही गया होता। हुमायूँ ने चित्र पर पड़ी धूल को अपने रेशमी रूमाल से साफ किया और अपने खास महल में ले जाकर दीवार पर ठीक उसी स्थान पर लगवा दिया जिस स्थान पर पंद्रह साल पहले वह लगा हुआ छोड़ गया था।

आगरा में बादशाह बदलते रहे थे, उनके महल भी बदलते रहे थे किंतु हुमायूँ से लेकर अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में भी यह चित्र उनके महलों में एक ही स्थान पर टंगा रहा। बादशाह के महल की बांदियां महल की सारी वस्तुओं को समय-समय पर इधर से उधर उठाती-धरती रहती थीं किंतु इस चित्र को वे भूल कर भी हाथ नहीं लगाती थीं। जब शाहजहाँ ने दिल्ली में अपने लिए लाल किला बनवाया तो वह इस चित्र को आगरा के लाल किले से दिल्ली ले आया और अपने खास महल में लगवा लिया।

जब महाराजा रूपसिंह बलख-बदखशां के बादशाह से मुगलों की अधीनता स्वीकार करवाकर लौटा तो बादशाह ने उसकी जीत का जश्न मनाया और एक शाम उसने महाराजा रूपसिंह को अपने खास महल में दावत दी। जब महाराजा रूपसिंह अपने राजपूत मंत्रियों के साथ बादशाह के महल में दावत खाने के लिए पहुँचा तो बादशाह ने स्वयं घूम-घूमकर उसे अपना महल दिखाया।

ऐसा अवसर शायद ही कभी आया हो जब बादशाह ने किसी राजा-महाराजा को स्वयं अपना महल दिखाया हो। रूपसिंह के लिए यह सचमुच ही बड़े सम्मान की बात थी। शाहजहाँ ने उसके स्वागत-सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

बादशाह ने महाराजा रूपसिंह को वह चित्र भी दिखाया जो उसके खास महल में उसके परबाबा हुमायूँ के समय से मौजूद था। महाराजा रूपसिंह ने इस चित्र को देखा तो देखता ही रह गया। काफी देर तक वह पलकें भी नहीं झपका सका। बादशाह ने महाराजा को इस भाव-विभोर अवस्था में देखा तो वह भी चकित हुए बिना नहीं रहा। जाने क्या था इस चित्र में जो वह महाराजा रूपसिंह के नेत्रों में सदैव के लिए अंकित हो गया!

‘महाराज! क्या आप कृपा करके हमें बतायेंगे कि आप इस चित्र में क्या देख रहे हैं?’ शाहजहाँ ने हैरान होकर पूछा।

‘क्या शहंशाह जानते हैं कि यह चित्र किनका है?’ रूपसिंह ने बादशाह के सवाल का जवाब न देकर, स्वयं अपनी तरफ से सवाल किया।

‘यकीनन! यह अक्स गोकुलिए गुसाइयों के मरहूम दादाजान वल्लभाचार्य का है जिसे बादशाह सिकन्दर लोदी ने बनवाया था।’

‘क्या बादशाह हुजूर इस चित्र के बारे में कुछ और भी जानते हैं?’

‘यकीनन हम यह भी जानते हैं।’ बादशाह ने मुस्कुराकर कहा- ‘बादशाह सिकंदर लोदी ने गोकुलिए स्वामी वल्लभाचार्य और और इस अक्स को बनाने वाले कलाकार, दोनों को अपने सामने बैठाकर अपनी देखरेख में इसे बनवाया था।’

‘और क्या जानते हैं बादशाह हुजूर इनके बारे में?’

‘और जानना चाहते हैं इसीलिए तो महाराज से पूछ रहे हैं।’

‘आज उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक और पश्चिम में सौराष्ट्र से लेकर पूर्व में कामरूप तक वैष्णव धर्म का जो डंका बज रहा है तथा हिन्दू जन मानस में तंत्र-मंत्र और वामाचार का जो प्रभाव समाप्त हो रहा है, उस सबका श्रेय इन्हीं महाप्रभु वल्लभाचार्यजी और उनके शिष्यों को जाता है।’ महाराजा रूपसिंह ने नेत्र बंद करके जवाब दिया।

‘हमने सुना है कि किशनगढ़ के राठौड़ राजा भी गोकुलिए गुसाइयों के शिष्य होते हैं!’

‘आपने ठीक सुना है शहंशाह किंतु किशनगढ़ ही नहीं, जोधपुर, मेड़ता और बीकानेर के राठौड़ राजवंश भी इन्हीं गोकुलिए गुसाइयों के शिष्य होने से बाल-गोपाल बंशीवाले की रूप माधुरी के उपासक हैं। कोटा और बूंदी के हाड़ा भी इन्हीं गोकुलियों के शिष्य हैं। आपके दादा हुजूर अकबर के समय में बाबा सूरदास, नंददास, कुंभनदास, हितहरिवंश, मीरांबाई, अब्दुर्रहीम और रसखान जैसे महान कृष्ण भक्तों ने ब्रजभूमि में गोपीजन वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति की सरिताएं बहाईं, उनकी प्रेरणा भी यही गुसाईं वल्लभाचार्य हैं….. .

…… सैंकड़ों साल के मुसलमानी शासन के उपरांत भी यदि आज वृंदावन, मथुरा और गोकुल में फिर से कृष्ण भक्ति के गीत सुनाई पड़ते हैं तो उनकी प्रेरणा भी यही भगवान वल्लभाचार्य हैं। एक समय था जब भारत की भूमि पर या तो तांत्रिकों और वामाचारियों की गूंज थी या फिर सूफियों के कलाम सुनाई पड़ते थे। यदि आज भारत के गांव-गांव में लोगों ने जायसी की पद्मावत की निस्सारता को समझ कर तुलसी की रामायण को गाना आरंभ किया है तो उनकी प्रेरणा भी यही महाप्रभु वल्लभाचार्य हैं…….

…… यदि आज भारत के निर्धन ग्रामवासियों ने कबीर की उलटबासियों, नाथों की रहस्यमयी वाणियों और अघोरियों के तामसी साधनाओं से ध्यान हटाकर यशोदा नंदन कृष्ण कन्हाई और कौशल्या नंदन श्रीराम की मर्यादा को स्वीकार किया है, तो उनकी प्रेरणा भी यही तैलंग भट्ट स्वामी वल्लभाचार्य हैं। आज भारत ने शैव और शाक्तों की वाम साधनाओं को त्याग कर यदि वैष्णव धर्म को गले लगाया है और नरमुण्डों तथा रुद्राक्षों की जगह तुलसी की मालाओं को धारण किया है तो उसकी प्रेरणा भी यही वैष्णवाचार्य भगवान वल्लभाचार्य हैं।’

महाराजा रूपसिंह जिह्वा को विराम दिए बिना बोले जा रहा था। उसके शब्द जिह्वा या कण्ठ से से नहीं, अंतस की अनदेखी गहराई से निकल रहे थे। उसे इस समय इस बात का भान ही नहीं रह गया था कि वह इस समय मुसलमान बादशाह के महल में खड़ा होकर वे सब बातें कह रहा है जिन्हें सुनकर किसी भी मुसलमान बादशाह की पेशानी पर सलवटें पड़ जातीं किंतु शाहजहाँ भी जैसे उस समय इस दुनिया में नहीं था, वह कभी तो अपने विस्फारित नेत्रों से महाराजा रूपसिंह का तेजस्वी मुखमण्डल देखता था और कभी गुसाईं वल्लभाचार्य के चित्र पर टकटकी लगा लेता था।

उस समय महाराजा रूपसिंह और शाहजहाँ को देखकर ऐसा लगता था मानो रूपसिंह कोई संपेरा था जो अपने तन-मन की सुध बिसराकर अलौकिक बीन बजा रहा था और बादशाह शाहजहाँ मंत्रमुग्ध सर्प की भांति अपना पूरा फन फैलाकर बीन की स्वर लहरी पर इधर-उधर लहरा रहा था। उसकी पगड़ी में लगा कोहिनूर ऐसे दमक रहा था मानो किसी नाग के फन पर मणि चमक रही हो।

भगवान वल्लभाचार्य का चित्र देख लेने के बाद महाराजा रूपसिंह का मन फिर किसी काम में नहीं लगा। उसे दावत में भी आनंद नहीं आया। बादशाह हँस-हँस कर उससे बलख-बदखशां के मोर्चे के समाचार पूछ रहा था, महाराजा उसके प्रश्नों के जवाब तो दे रहा था किंतु उसका मन कहीं और था। उसने इस चित्र के बारे में अपने दादा महाराजा किशनसिंह के मुँह से सुना था किंतु इस चित्र को देखने का सौभाग्य उसे पहली बार मिला था।

महाराजा की इच्छा हुई कि वह इस चित्र को शाहजहाँ से मांग ले किंतु वह मांग नहीं सका, यदि बादशाह ने मना कर दिया तो! यही सोचकर वह चुप रहा। अवश्य ही कभी अवसर आने पर वह इस चित्र को प्राप्त करने का प्रयास करेगा। बड़ी कठिनाई से वह दावत खाकर अपनी हवेली को लौटा।

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