महाराजा हरीसिंह के निधन के समय राजकुमार रूपसिंह की आयु सोलह साल थी। अभी उसे किशोरावस्था से निकलकर यौवन की चौखट पर पैर धरना शेष था। वह महाराजा किशनसिंह के तृतीय पुत्र भारमल का एक मात्र पुत्र था। या यूं कहें कि किशनगढ़ राजवंश का वह अकेला टिमटिमाता हुआ दीपक था। जिस समय उसे अपने चाचा महाराजा हरीसिंह के निधन की सूचना मिली, उस समय वह भारत भूमि से कई सौ योजन दूर बलख में उजबेकों पर तलवार बजा रहा था। किशनगढ़ राजवंश के सोलह साल के इस कुलदीपक को शाहजहाँ ने क्रूर उजबेकों के विरुद्ध झौंक रखा था। बलख की भयानक घाटियों में ही इस राठौड़ कुलदीपक का राजतिलक किया गया।
अपने वंश में अकेले रह जाने का भयावह समाचार मिलने पर भी वह सोलह साल का राजकुमार किंचित् भी नहीं घबराया। वह उसी मनोयोग से तलवार चलाता रहा, जिस मनोयोग से अब तक चलाता आया था। क्रूर उजबेक उस आंधी के समान थे जिन्हें बड़े से बड़ा पर्वत भी रोक नहीं पाता था। फिर भी महाराजा रूपसिंह लड़ता ही जा रहा था।
महीनों की मेहनत के बाद महाराजा रूपसिंह और उसके राठौड़ सिपाही अपनी जान पर खेलकर बड़ी कठिनाई से उजबेकों को बलख से कुछ दूरी तक खदेड़ पाए थे किंतु कुछ ही दिनों बाद उजबेक फिर से आ धमके थे। राठौड़ों ने फिर से उजबेकों को पीछे धकेलने की तैयारी की किंतु हर बार की तरह इस बार भी उजबेक गहरी घाटियों में उतर कर छिप गए थे। पूरे एक साल तक यह खेल चलता रहा था। अंत में रूपसिंह ने निर्णय लिया कि वह युद्ध की आर्य-मर्यादाओं को भंग करके उजबेकों का भयानक संहार करेगा और तब तक उन्हें मारता रहेगा जब तक कि वे हमेशा के लिए बलख से दूर नहीं चले जाएं।
रूपसिंह ने उजबेकों के लिए फंदा तैयार किया और कई हजार राजपूत योद्धा गहरी खाइयों में छिपा कर बैठा दिए। जब उजबेक चढ़कर आए तो महाराजा ने मैदान छोड़कर भाग जाने का अभिनय किया। उजबेक उसके झांसे में आ गए और उसे धकेलते हुए काफी दूर तक उसके पीछे चले आये। रूपसिंह को इसी अवसर की तलाश थी।
योजनानुसार खाइयों में छिपकर बैठे हुए राजपूतों ने पीछे से आकर उजबेकों को घेर लिया। उजबेकों की स्थिति ऐसी हो गई जैसे चक्की के दो पाटों के बीच में पिसने पर हो जाती है। हजारों उजबेक घेरकर मार दिए गए। बलख की पहाड़ियां उजबेकों और राजपूतों के खून से नहा उठीं। इस युद्ध में इतना भयानक नरसंहार हुआ कि बड़े-बड़े पहाड़ी पक्षियों के लिए कई माह के भोजन का प्रबंध हो गया।
इस ऐतिहासिक युद्ध का विजयी महाराजा रूपसिंह अपने राठौड़ों को लेकर आगरा पहुँचा। मुगल बादशाहों की परम्परा के विरुद्ध, शाहजहाँ ने तख्ते ताउस से नीचे उतरकर इस पराक्रमी राजा को गले से लगा लिया। उसने रूपसिंह को एक हजारी जात और सात सौ सवारों का मनसब देकर किशनगढ़ रियासत का महाराजा स्वीकार कर लिया और उसे भारी उपहार तथा पुरस्कार देकर प्रसन्न किया। बादशाह से छुट्टी लेकर महाराजा रूपसिंह पहली बार अपनी राजधानी किशनगढ़ आया।
उसने राजधानी की बुरी हालत देखी तो सिहर उठा। उसके खानदान में पुरुष के नाम पर उसके अपने सिवाय कोई जीवित नहीं बचा था। सब के सब, मुगलिया सल्तनत की सीमाएं बढ़ाते हुए काम आ चुके थे। जहाँ मुगलों की राजधानियां दिल्ली और आगरा रौशनियों से जगमगा रही थीं, वहीं किशनगढ़ पूरी तरह श्रीहीन दिखाई देती थी।
महाराजा ने अपने पुरखों की राजधानी को संवारने का काम फिर से शुरू किया। महाराजा रूपसिंह को अभी अपनी राजधानी में रहते हुए कुछ ही दिन हुए थे कि शाहजहाँ ने फिर से उसे अपने दरबार में बुला लिया। उसने अपनी राजधानी में चल रहे निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी अपने दीवान पर डाली और स्वयं मुगलों की राजधानी दिल्ली में उपस्थित हुआ।
शाहजहाँ ने नौजवान महाराजा का रुतबा बढ़ाने की घोषणा करते हुए उसे एक हजारी जात और एक हजार सवारों का मनसब प्रदान किया और उसके अगले ही क्षण उसे शहजादे मुराद के साथ बलख-बदखषां के बादशाह नजर मुहम्मद खाँ पर चढ़ाई करने के आदेश सुना दिए।
उजबेकिस्तान की जिन गहरी घाटियों और नुकीली चोटियों को रूपसिंह उजबेकों के खून से तर-ब-तर करके आया था, उन घाटियों और चोटियों में एक बार फिर से उजबेक आ बैठे थे। आखिर उन गहरी खाइयों और पहाड़ियों में कितने उजबेक रहते हैं! रूपसिंह के आश्चर्य का पार न था। एक बार फिर वह तलवार उठाकर उजबेकों का संहार करने के लिए निकल पड़ा।
महीनों तक ताबड़तोड़ यात्रा करने के बाद महाराजा रूपसिंह अपने राठौड़ों को लेकर बदखशां पहुँचा। इस बार उसे शहजादे मुराद के अधीन रहकर लड़ना था। फिर भी उसने इस युद्ध में भी वैसा ही प्रदर्शन किया मानो इस लड़ाई को जीतने की समस्त जिम्मेदारी अकेले उसी की है।
शहजादा मुराद बदतमीज किस्म का इंसान था। वह किसी भी क्षण किसी भी व्यक्ति से बदसलूकी कर बैठता था। फिर भी पूरे एक साल तक महाराजा रूपसिंह और उसके राजपूत मुराद के नियंत्रण में रहकर उजबेकों का सफाया करते रहे किंतु बलख का बादशाह नजर मुहम्मद खाँ किसी भी तरह हार मानने को तैयार नहीं होता था। एक दिन नजर मुहम्मद स्वयं सेना लेकर आया।
उस दिन महाराजा रूपसिंह, बादशाह नजर मुहम्मद खाँ के आदमियों को तो अधिक हानि नहीं पहुँचा पाया किंतु वह बादशाह के साथ घोड़े पर चल रहे उसके ध्वज और नगाड़े को छीनने में सफल रहा। उन दिनों युद्ध के मैदान में किसी बादशाह से उसका ध्वज और नगाड़े छीन लेना, बड़ी भारी विजय माना जाता था।
उजबेकों के ध्वज में काली, सफेद और लाल रंग की चौड़ी पट्टियाँ लगी थीं। महाराजा रूपसिंह को यह ध्वज बड़ा पसंद आया। उसने ध्वज के काले रंग को तमोगुण, सफेद रंग को सतोगुण और लाल रंग को रजोगुण का प्रतीक मानते हुए उसी समय ध्वज का नाम श्याम सुंदर लाल रखा और उसे अपने राज्य का ध्वज घोषित कर दिया।
ध्वज छिन जाने से बादशाह नजर मुहम्मद खाँ की बड़ी किरकिरी हुई। वह समझ गया कि मुगलिया ताकत इस समय अपने उफ़ान पर है, इस समय उसका मुकाबला करना समंदर की लहरों से लड़ने के समान है। उसने महाराजा रूपसिंह के पास संधि का प्रस्ताव भिजवाया।
महाराजा की अनुशंसा पर शहजादे मुराद ने नजर मुहम्मद खाँ से संधि कर ली और उसे मुगलिया सल्तनत के अंतर्गत बलख-बदखशां का अर्धस्वतंत्र शासक स्वीकार कर लिया।
इस बड़ी सफलता के बाद महाराजा रूपसिंह, श्याम सुंदर लाल को एक घोड़े पर रखकर धौंसा बजाता हुआ बदखशां से चला और सीधा आगरा में आ घुसा। इस अद्भुत विजेता के ठाठ को देखने के लिए स्वयं शाहजहाँ लाल किले की प्राचीर पर चढ़ा। जब रूपसिंह ने किले में प्रवेश किया तो उस पर चारों ओर से फूलों की झड़ी लग गई। दिल्ली में किसी हिन्दू सरदार का ऐसा भव्य स्वागत मुगलों की याददाश्त में इससे पहले कभी नहीं हुआ था।
जब महाराजा रूपसिंह, बादषाह शाहजहाँ के सम्मुख उपस्थित हुआ तो बादशाह ने उसे चांदी के आभूषणों से सजा हुआ एक घोड़ा भेंट किया। इस घोड़े पर बादशाह ने स्वयं अपनी देखरेख में किशनगढ़ रियासत का राजचिह्न अंकित करवाया था। आज बादशाह, रूपसिंह पर पूरी तरह मेहरबान हो गया। वह इस मेहरबानी को दिखाना भी चाहता था।
उसने महाराजा का मनसब बढ़ाकर डेढ़ हजारी जात और एक हजार सवारों का कर दिया। इतने पर भी बादशाह संतुष्ट नहीं हुआ। वह चाहता था कि महाराजा स्वयं अपने मुख से कोई इच्छा प्रकट करे और बादशाह उसकी इच्छा पूरी करे।
बादशाह ने तख्ते ताउस के निकट खड़े शहजादे दारा से कहा- ‘शहजादे! महाराज से कहो कि वे हमसे कुछ मांगें। आज हम उनकी हर इच्छा पूरी करेंगे।’
दारा ने अपने स्थान से थोड़ा आगे बढ़कर बुलंद आवाज में बादशाह की इच्छा को दोहराया ताकि हर अमीर, उमरा और राजा उसे सुन सके। राठौड़ों का यह अद्भुत महाराजा, शहंशाह की इस कृपा-वृष्टि से अभिभूत हो गया। काफी देर तक वह मौन खड़ा रहा।
जब बादशाह ने बार-बार अपनी बात दोहराई तो महाराजा ने मुँह खोला-
‘शहंशाह! आपके दादा हुजूर शहंशाह जलालुद्दीन अकबर का राज्य पूर्व में कामरूप से लेकर उत्तर में चित्राल और पश्चिम में काबुल-कांधार तक विस्तृत था। आपके पिता हुजूर शहंशाह नूरुद्दीन जहाँगीर ने उसमें कांगड़ा, मेवाड़ और दक्कन के बालाघाट प्रदेश जोड़े किंतु आपने तो उस राज्य को बलख, बुखारा, समरकंद और हेरात तक विस्तृत कर दिया। आपकी इन उपलब्धियों पर हम आपको हृदय से बधाई देते हैं। बादशाही सफलताओं से हम अत्यंत प्रसन्न हैं। आपके बाप-दादों ने हमारे बाप-दादों को किशनगढ़ का राज्य दिया था, हम उसमें प्रसन्न हैं। हमें और कुछ नहीं चाहिये। फिर भी आप यदि कुछ देना ही चाहते हैं तो हमारी एक विनती है।’
‘महाराज हमें बताएं कि आपकी कृतज्ञता के बोझ से दबा हुआ हिन्दुस्तान का यह शहंशाह आपका क्या प्रिय कर सकता है? आप विश्वास रखें कि आज आप जो भी मांगेंगे, बिना पाए न रहेंगे फिर भी हमें यही लगेगा कि हम आपको कुछ दे नहीं सके।’ शहशांह ने प्रसन्न होकर कहा।
‘बादशाह सलामत! हम राजपूतों के लिए अपनी धरती से बढ़कर और कुछ नहीं होता। हम धन, स्त्री और पूत का त्याग कर सकते हैं किंतु अपनी धरा नहीं छोड़ सकते। आपके आदेश से भाटी रामचंद्र जैसलमेर का रावल हुआ बैठा है जबकि राज्य का वास्तविक अधिकारी भाटियों का राजकुमार सबलसिंह है। इसलिए शहंशाह से हमारी अभ्यर्थना है कि वे राजकुमार सबलसिंह को जैसलमेर का राज्य लौटा दें।’
महाराजा रूपसिंह की इस विचित्र मांग से पूरा दरबार सकते में आ गया। कइयों को लगा कि पुरस्कार पाना तो दूर, यह राजपूत राजा तो अब अपने सिर से भी हाथ धो बैठेगा। समस्त अमीर, उमराव, सरदार और राजे-महाराजे एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। निश्चित ही इस युवक महाराजा ने सोच समझ कर अपनी बात नहीं कही थी।
भाटी राजकुमार सबलसिंह इससे पहले भी कई बार बादशाह के दरबार में उपस्थित होकर जैसलमेर का राज्य मांग चुका था। उसने मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह के माध्यम से भी कहलवाया था किंतु बादशाह ने हर बार सबलसिंह की मांग को ठुकरा दिया था और यह घोषणा कर दी थी कि अब जो कोई भी राजा, महाराजा, अमीर, उमराव हमारे पास सबलसिंह का पक्ष लेकर आयेगा, वह हमारा सबसे बड़ा शत्रु समझा जायेगा। यही कारण था कि दरबार में उपस्थित राजपुरुषों को लगा कि महाराजा रूपसिंह अवश्य ही किसी बड़ी मुसीबत में फंसने वाला है।
एक बार तो स्वयं शाहजहाँ भी महाराजा की इस बात को सुनकर आश्चर्य से जड़वत् हो गया किंतु अगले ही क्षण वह संभल गया।
उसके चेहरे पर मुस्कान आई और महाराजा पर कृपा-दृष्टि फैंकते हुए बोला- ‘महाराज रूपसिंह! हम आपकी किन लफ्जों में तारीफ करें। हम तो आपके मुरीद हो गए। आपने मांगने के लिए मुँह तो खोला लेकिन अपने लिए कुछ नहीं मांगा। यही बड़े दिल की पहचान होती है। जाइये, हमने आपकी यह ख्वाहिश इसी वक्त पूरी की। हम भाटी सबलसिंह को जैसलमेर का टीका देते हैं। आपकी कुछ और ख्वाहिश भी हो तो बताईये।’ बादशाह ने प्रसन्न होकर कहा।
यह एक अप्रत्याशित बात थी। बादशाह महाराजा रूपसिंह की मांग पर कुपित होने के स्थान पर गद्गद हो रहा था।
‘आभारी हूँ शहंशाह! आपने इस राजपूत की बात रखी।’
‘आप निःसंदेह बड़े राजपूत हैं महाराज। आपकी बात कौन नहीं रखना चाहेगा!’ बादशाह ने भी उसी मुलायम स्वर में उत्तर दिया। बादशाह उठकर खड़ा हो गया। बख्शी ने दरबार मुल्तवी होने का ऐलान किया।
महाराजा ने सिर झुकाकर बादशाह को मुजरा किया और अपने श्याम सुंदर लाल को लेकर दरबार से बाहर आ गया। धौंसा बजने लगा। रंग और अबीर उड़ने लगा। राठौड़ रूपसिंह की जय-जयकार होने लगी। राठौड़ों के इस अद्भुत राजा की जय-जयकार में अब भाटियों का उत्साहित स्वर भी ठीक वैसे ही सम्मिलित हो गया था, जैसे प्रयागराज में यमुनाजी की विराट श्याम धारा, गंगाजी की श्वेत उज्वल धारा में कल-कल करती हुई सम्मिलित हो जाती है।
गंगा-यमुना के इस मिलन में सरस्वती भला कैसे पीछे रह सकती थी! आम्बेर के कच्छवाहों ने भी महाराज रूपसिंह की जय-जयकार से आकाश गुंजा दिया। भाटी सबलसिंह इन्हीं कच्छवाहों की राजकुमारी के पेट से जन्मा था।