भारतवर्ष के मध्यभाग में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर, विन्ध्याचल पर्वत शृंखला स्थित है। इस पर्वत के लगभग समानांतर, नर्मदा नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। विन्ध्याचल पर्वत तथा नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित भूभाग उत्तरापथ अथवा उत्तर भारत कहलाता है और दक्षिण में स्थित भूभाग दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भारत कहलाता है।
प्राचीन काल में विन्ध्याचल पर्वत तथा इसके निकट का भूभाग घने वनों से आच्छादित था, जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर था। यही कारण था कि जिन बर्बर हूणों ने यूरोप पहुंच कर रोम-साम्राज्य को नष्ट किया, आक्सस नदी को पार करके फारस को बर्बाद किया और जो, हिंदुकुश पर्वत को पार करके सिंधु नदी की परवाह किये बिना गंगा-यमुना के मैदानों में घुस आये, वे बर्बर हूण, नर्मदा को पार करके दक्षिण तक नहीं पहुंच सके।
जिस समय छठी शताब्दी ईस्वी में गुहिल, गुहदत्त अथवा गुहादित्य, आगरा और चाटसू क्षेत्र में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था, उस समय दक्षिण भारत में भी कई प्रभावशाली राज्य पुष्पित एवं पल्लवित हो रहे थे। विदेशी आक्रांताओं की पहुंच से दूर होने के कारण दक्षिण के ये राज्य हिन्दू धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति के उन्नयन का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये।
ईसा की चौथी शताब्दी ईस्वी से चोड अथवा चोल देश के पूर्वी समुद्र तट पर पल्लवों का राज्य चला आ रहा था जिनकी राजधानी कांची थी। गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने चौथी शताब्दी ईस्वी में पल्लवों के राजा विष्णुगोप को अपने अधीन किया था। पल्लव राजा सिंहविष्णु, गुहिल का समकालीन राजा था। वह ई.575 में सिंहासन पर बैठा। वह शक्तिशाली सम्राट् था। उसने पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने सम्भवतः श्रीलंका के राजा पर भी विजय प्राप्त की। उसने ई.600 तक शासन किया।
जिन चालुक्यों ने बीजापुर जिले में स्थित बादामी (वातापी) को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे वातापी के चालुक्य कहलाये। इन चालुक्यों ने ई.550 से ई.750 तक शासन किया। अर्थात् जिस समय उत्तर भारत में गुहिल अपने राज्य की शक्ति बढ़ा रहा था, ठीक उसी समय बादामी के चालुक्यों ने अपने राज्य की भी नींव रखी।
इस वंश का पहला राजा जयसिंह था। वह बड़ा ही वीर तथा साहसी था। उसने राष्ट्रकूटों से महाराष्ट्र छीना था। जयसिंह के बाद रणराज, पुलकेशिन् (प्रथम) कीर्तिवर्मन, मंगलेश आदि कई राजा हुए। गुहिल के काल में चालुक्यों का यही एक राज्य था। आगे चलकर चालुक्यों की कल्याणी तथा वंेगी शाखायें भी अस्तित्व में आईं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता