कोटा का फौजदार झाला जालिमसिंह, कोटा राज्य को पिण्डारियों एवं मराठों से मुक्त करवाने के लिए किसी बड़े अवसर की तलाश में रहता था। जब उसने देखा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी पिण्डारियों को समाप्त कर रही है तो वह भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मैत्री करने की जुगत करने लगा किंतु लगभग दस साल पहले ई.1804 में झाला जालिमसिंह ने कर्नल मौन्सन के प्रति जो व्यवहार दर्शाया था, उसके कारण जालिमसिंह अंग्रजों से दोस्ती का हाथ बढ़ाने में हिचकिचाता था।
दूसरी ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी अमीर खाँ के जहरीले दांत तोड़कर पिण्डारियों और मराठों की बची-खुची शक्ति से शीघ्र ही छुटकारा चाहती थी। इस समय तक कम्पनी झाला जालिमसिंह के मूल्य को अच्छी तरह समझ चुकी थी और यह जानती थी कि जब तक झाला जालिमसिंह की सहायता नहीं मिलेगी, तब तक राजपूताने से पिण्डारियों तथा मराठों का सफाया करना संभव नहीं है।
ई.1817 में कर्नल टॉड रावठे के मुकाम पर झाला जालिमसिंह की सेवा में उपस्थित हुआ और निवेदन किया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी देश में पिण्डारियों का दमन करके देश में शांति स्थापित करना चाहती है। इस समय तक झाला बहुत वृद्ध हो चुका था। उसकी दोनों आँखें बेकार हो गई थीं तथा उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता था। अतः वह कहने वाले के शब्दों पर ही विचार करके उसकी नीयत का पता लगाता था।
कर्नल टॉड की बात सुनकर झाला एक मिनट तक चुप रहा और फिर मुस्कुराकर बोला- मैं जानता हूँ कि आज से दस वर्ष बाद सारे भारत में कम्पनी का राज्य होने वाला है। मैं पिण्डारियों को कुचलने में कम्पनी की सहायता अवश्य करूंगा।
लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने दो लाख सिपाहियों को पिण्डारियों के विरुद्ध झौंक रखा था। जालिमसिंह ने उसी समय मराठों से अपने सम्बन्ध समाप्त कर लिए तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कोटा राज्य की तरफ से एक हजार पाँच सौ पैदल सिपाही तथा चार तोपें प्रदान कीं। इसके अतिरिक्त विपुल धनराशि, रसद तथा अन्य संसाधन भी उपलब्ध करवाए।
जब पिण्डारी नेता करीम खाँ अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आया तो अंग्रेजों ने फिर से झाला जालिमसिंह के दरबार में हाजरी बजायी। झाला ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति झौंककर करीम खाँ को पकड़ लिया। जब इस सेवा के बदले में अंग्रेजों ने झाला को चौमहला का परगना जागीर के रूप में देना चाहा तब झाला ने कहा कि मैं तो कोटा राज्य का सेवक हूँ इसलिए आप यह परगना महाराव उम्मेदसिंह को भेंट कर दें।
शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी झाला जालिमसिंह, महाराव उम्मेदसिंह का बड़ा आदर करता था। एक बार झाला जालिमसिंह के पुत्र माधोसिंह ने राजकुमार किशोरसिंह के प्रति कुछ अशिष्टता कर दी। इससे कुपित होकर झाला ने अपने पुत्र को तीन वर्ष के लिए कैद में डाल दिया।
इस आदर भाव के उपरांत भी कोटा राज्य के जागीरदार, झाला के विरुद्ध महाराव के कान भरते रहते थे। महाराव उम्मेदसिंह भी जालिमसिंह से भयभीत रहता था।
एक बार झाला जालिमसिंह बृजनाथजी के मंदिर में दर्शनों के लिए गया। उसी समय वहाँ पर राजकुमार बिशनसिंह तथा पृथ्वीसिंह भी आए। मंदिर का फर्श कुछ गीला था। जब जालिमसिंह ने देखा कि राजकुमार बैठना चाहते हैं तो जालिमसिंह ने अपना दुशाला उतारकर फर्श पर बिछा दिया।
दोनों राजकुमार उस पर बैठ गए। जब दोनों राजकुमार वहाँ से चले गए तो नौकर ने यह सोचकर दुशाला उठा लिया कि अब जालिमसिंह उस दुशाले को काम में नहीं लेगा। जालिमसिंह ने दुशाला नौकर के हाथ से छीन लिया और कहा कि देखता नहीं इस पर मेरे स्वामी के चरणचिह्न अंकित हो गए हैं। अब इसकी कीमत लाखों रुपये हो गई है।
जालिमसिंह की स्वामि-भक्ति एवं स्वामि-भक्ति प्रदर्शन के कई किस्से राज्य में प्रचलित थे। फिर भी राज्य के जागीरदारों एवं सामंतों को लगता था कि झाला जालिमसिंह कोटा राज्य को हड़प लेगा, इसलिए वे जालिमसिंह को जान से मार डालने का उद्यम करते रहते थे।
जब झाला जालिमसिंह ने मराठों से सम्बन्ध तोड़ लिए तथा पिण्डारियों के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता देने का वचन दिया तो अंग्रेजों ने पिण्डारी नेता अमीर खाँ को भी घेरना आरम्भ कर दिया।
पिण्डारी नेता अमीर खाँ और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सम्बन्ध विगत दस वर्षों में कई उतार-चढ़ाव देख चुके थे। ईस्वी 1804 में भरतपुर के घेरे में अंग्रेजों से 32 हजार रुपये की रिश्वत खाकर, अपने स्वामी जसवंतराव होलकर को अंग्रेजों के हाथों सौंप देने का वचन देने वाला अमीर खाँ अब भी होलकर की सेना में घुड़सवार सेना का प्रधान बना हुआ था। इतना ही नहीं, उसने होलकर से सिरोंज की जागीर भी हथिया ली थी।
ईस्वी 1810 में अमीर खाँ नागपुर के मोर्चे पर लड़ने गया किंतु उसे बीच में ही लौटना पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने उसकी जागीर सिरोंज पर आक्रमण कर दिया था। उन्हीं दिनों जसवंतराव होलकर के मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया जिससे मालवा का सारा प्रबन्ध अमीर खाँ के हाथों में आ गया।
इस प्रकार पिण्डारी अमीर खाँ जसवंतराव होलकर का सहारा पाकर ऐसी शक्ति बन चुका था जिसकी उपेक्षा करना अंग्रेजों के वश में भी नहीं था किंतु झाला जालिमसिंह की सहायता मिल जाने से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आत्मविश्वास में जबर्दस्त वृद्धि हुई।
ई.1817 में अंग्रेजों ने बड़ी सेना लेकर मालवा को घेर लिया। इस समय अमीर खाँ के पास दो सेनाएं थीं, एक तो अपनी स्वयं की तथा दूसरी जसवंतराव होलकर की किंतु फिर भी इस बार अमीर खाँ कम्पनी सरकार तथा कोटा राज्य की सम्मिलित सेनाओं से परास्त हो गया तथा उसे अंग्रेजों के समक्ष हथियार रखने पड़े।
इस अवसर पर हुई संधि के अनुसार अमीर खाँ ने अपनी अधिकांश सेना ईस्ट इण्डिया कम्पनी को समर्पित कर दी तथा अंग्रेजों ने अमीर खाँ को टोंक जागीर का नवाब मान लिया। इस प्रकार राजपूताने में पहली मुस्लिम रियासत अस्तित्व में आई। विगत काफी समय से मराठों के अधिकार क्षेत्र में चली आ रही सिरोंज, पिड़ावा, गोगला तथा निम्बाहेड़ा की जागीरों को अमीर खाँ की व्यक्तिगत जागीरें मान लिया गया। टोंक तथा रामपुरा के दुर्ग भी अमीर खाँ को दे दिए गए।
अंग्रेजों ने अमीर खाँ की सामरिक शक्ति नष्ट करने के लिए उसकी समस्त तोपें तथा हथियार छीन लिए तथा उनके बदले में अमीर खाँ को रुपये पकड़ा दिए। अंग्रेजों ने अमीर खाँ को तीन लाख रुपये नगद दिए ताकि वह अपना राज्य स्थापित कर सके। उसके पुत्र को जेवर के निकट पलवल की जागीर दी गई। इस जागीर से अमीर खाँ के पुत्र को प्रति-माह बारह हजार पाँच सौ रुपये की आय होने लगी।
अमीर खाँ के नवाब बनते ही उसके कई शत्रु स्वतः ही नष्ट हो गए। अब वह पहले जैसा उठाई-गिरा नहीं रहा था, अपितु एक शानदार रियासत का इज्जतदार शासक था। उसे मौलवियों ने घेर लिया तथा उसे इस्लामी कानून के अनुसार राज-काज चलाने के लिए प्रेरित करने लगे। इस समय तक अमीर खाँ उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गया था, जहाँ पहुंच कर वह और अधिक समय तक युद्ध के मैदान और घोड़े की पीठ पर नहीं टिक सकता था। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने ई.1832 में अजमेर में दरबार किया तो अमीर खाँ ने भी बड़ी शानो-शौकत से उस दरबार में भाग लिया। गवर्नर जनरल के दरबार में अमीर खाँ की भी एक कुर्सी लगी जिसमें जोधपुर, जयपुर, बीकानेर और कोटा जैसी बड़ी-बड़ी रियासतों के शासकों की कुर्सियां लगी हुई थीं।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता