जब अजमेर पर अधिकार को लेकर राठौड़ों और राजपूताने के मराठा सरदारों के बीच विवाद बढ़ता ही चला गया तब नाना साहब ने अपने सूबेदारों तथा सरदारों को आदेश भिजवाया कि अजमेर समस्या का अंत करने के लिये अजमेर को मरुधरानाथ या महादजी के नियंत्रण में न रखकर पेशवा सरकार के खालसे में दे दिया जाए। मराठा सरदार प्रयास करें कि जोधपुर नरेश द्वारा पिछले इकरारनामे के अनुसार बकाया राशि का भुगतान किया जाए तथा भविष्य में इस व्यवस्था को ढंग से संचालित किया जाए। यदि राजपूताने के मराठा सरदार इस विचार से सहमत हों तो महाराजा विजयसिंह का वकील पुणे आ जाये।
जब यह पत्र मारवाड़ पहुँचा तो गुलाब ने मरुधरानाथ की ओर से जवाब भिजवाया जिसमें लिखा कि हम मराठों को सदैव अपना मित्र मानते आये हैं। कुछ लोग आपको झूठी सच्ची कहानियाँ बताकर आपस में बिगाड़ करवाना चाहते हैं। आपको खण्डनी की राशि समय पर भिजवाई जा रही है। फिर मराठों के और हमारे सम्बन्ध अच्छे क्यो नहीं रह सकते! रही बात अजमेर की तो मराठा सरदारों को सोचना चाहिये कि अजमेर की हैसियत ही कितनी है! इसे वे अपनी ओर से मरुधरानाथ को दिया गया उपहार समझ कर ही छोड़ दें। वैसे भी आज तक मरुधरानाथ ने मराठा सरदारों को दिया ही दिया है, लिया क्या है। इसलिये आपसे विनती है कि रार न बढ़ायें। दोस्ती चल रही है, उसे आगे भी चलने दें। गुलाब ने यह पत्र कृष्णाजी जगन्नाथ को दिया और कृष्णाजी ने इसे अपने स्वामी नाना साहब को भेज दिया।
नाना साहब इस पत्र को पाकर और भी तिलमिला गया। उसने अपने वकील कृष्णाजी जगन्नाथ को पत्र लिखकर निर्देश दिये कि वह मरुधरानाथ को समझाये कि अजमेर का प्रकरण तय हुए बिना स्नेह सम्बन्ध किस तरह बने रह सकते हैं? वे कहते हैं कि अजमेर की हैसियत कितनी है तथा पेशवा सरकार को उसकी अपेक्षा कहीं अधिक लाभ मिल सकता है। इस पर मेरा कहना यह है कि यदि राजा विजयसिंह के लिये अजमेर महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर कौन सा संकट है? अजमेर का पैसा पहले की हुई लिखा पढ़ी के अनुसार देते आये हैं और भविष्य में भी देते रहेंगे, यदि आपको यह विश्वास हो तभी आप महाराजा विजयसिंह के वकील को लेकर पुणे आना।
नाना का पत्र पाकर कृष्णाजी जगन्नाथ ने महाराजा विजयसिंह की सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया-‘श्रीमन्त पेशवा पीढ़ी दर पीढ़ी आपके साथ स्नेह रखते आये हैं। अतः केवल अजमेर के मसले में इतनी तनाव की स्थिति लाना उचित नहीं है। आप यदि नहीं देंगे तो उनके सरदार हर कोशिश करके हथिया लेंगे। युद्ध होगा, दोनों ही पक्षों के आदमी मारे जायेंगे। मराठों की सेना का पलड़ा भारी है। यह विवाद खत्म करने से ही पूरा होगा। आप दो-एक साल की सामग्री की व्यवस्था भी कर लेंगे। मराठों का काम ही दूसरों के इलाकों में घूमते रहने का है।’
इस पर महाराजा ने कृष्णाजी जगन्नाथ को जवाब दिया-‘अजमेर ठेके पर हमारे पास ही रहना चाहिये। पिछला हिसाब हम साफ कर दंेगे किंतु हमारी जमीन पर आप अपना हक नहीं जतायें। यदि श्रीमन्त पेशवा को यह बात स्वीकार हो तो उनसे प्रत्युत्तर मंगवा लेंगे। उस हालत में हम आपके साथ वकील भेज सकते हैं किंतु अजमेर हमारी रहेगी। वे अजमेर को छोड़कर जो भी बात कहेंगे, हमें मान्य होगी।’
-‘अजमेर अपने पास रखने का दुराग्रह त्याग दें महाराज। तभी मराठों और राठौड़ों के मध्य स्नेह सम्बन्ध बने रह सकते हैं।’ जगन्नाथ ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।
जगन्नाथ की धृष्टता देखकर मरुधरानाथ भी भड़क गया। गरज कर बोला-‘तुम अपने स्वामियों को केवल इतना समझाओ कि इस्माईल बेग, राठौड़ों और कच्छवाहों की संयुक्त सेना का मुकाबला करना बहुत कठिन है!’ जगन्नाथ ने यह सारा हाल नाना साहब को लिख भेजा। उधर महादजी सिन्धिया ने भी मरुधरानाथ के विरुद्ध नाना साहब को शिकायत भिजवाई।