जब कोटा का वकील मरुधरपति को निराश करके चला गया तो मरुधरानाथ ने उसके स्वाभाविक प्रतिद्वंद्वी बूंदी की नब्ज टटोली। बूंदी के महाराव उम्मेदसिंह का भाई देवीसिंह हाड़ा पिछले पच्चीस साल से महाराजा विजयसिंह के पास रह रहा था। वह एक बूढ़ा और समझदार आदमी था। उसने समय के बड़े थपेड़े झेले थे और कुलीय प्रतिस्पर्धा के चलते अपने बाप दादों का राज्य छोड़कर मरुधरानाथ के राज्य में अपने दिन काट रहा था।
मरुधरानाथ ने वृद्ध देवीसिंह हाड़ा को बुलवाया। औपचारिक अभिवादन आदि के पश्चात् वास्तविक उद्देश्य पर आने से पूर्व मरुधरानाथ ने ठाकुर देवीसिंह का रुख जानने के लिये पहला पासा फैंका-‘ठाकरां! आपने अपनी लम्बी उम्र में राजपूतों को मुगलों के चंगुल से निकलते हुए और मराठों की ठोकर खाकर गिरते हुए देखा है। आपका क्या लगता है, क्या राजपूत इसी तरह मराठों की ठोकरों में पड़े रहेंगे।’
-‘इन ठोकरों के लिये राजपूत स्वयं जिम्मेदार हैं महाराज! मराठों को दोष देना व्यर्थ है।’ ठाकुर ने अपनी श्वेत लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए राजा के शब्दों की थाह पाने का प्रयास किया।
-‘विगत पचास साल की अवधि में मराठों ने राजपूतों का जो खून चूसा है, क्या राजपूतों को उसके बाद भी अक्ल नहीं आई?’
-‘इन मराठों से पार पाना राजपूतों के वश की बात नहीं है, यह तो कोई दैवीय शक्ति ही राजपूतों का मराठों से पीछा छुड़ा सकती है।’ ठाकुर ने जवाब दिया। उसकी समझ नहीं आ रहा था कि आज मरुधरानाथ उससे मराठों के सम्बन्ध में प्रश्न क्यों कर रहे थे!
-‘दैवीय शक्ति भी उन्हीं का भला कर सकती है, जो अपना भला स्वयं चाहते हैं।’
-‘इसमें क्या संदेह है!’ वृद्ध देवीसिंह ने राजा के मंतव्य को भांपने का प्रयास करते हुए कहा।
-‘आपने लम्बी उम्र ली है और आप मराठों के दांव-पेच अच्छी तरह समझते हैं।’
-‘मराठों के दांव पेच समझने का दावा तो मैं नहीं कर सकता किंतु मैंने मराठों को बहुत निकट से देखा है।’
-‘क्या हम मराठों के विरुद्ध कुछ कर सकते हैं?’ मरुधरानाथ ने अपनी दृष्टि ठाकुर की आँखों में गड़ा कर पूछा।
-‘क्या?’
-‘इन दिनों बड़ा ही टेढ़ा प्रसंग उपस्थित हुआ है। मराठे तुंगा की पराजय का बदला लेने की चेष्टा कर रहे हैं। अभी इस बात की किसी को जानकारी नहीं है। हम जयपुर के विवाद में शामिल हुए और हमने उनके राज्य की रक्षा की। माँ चामुण्डा की कृपा से हमें विजय श्री भी प्राप्त हुई। हम चाहते हैं कि राजपूतों की कीर्ति इसी तरह अक्षय रहे।’
-‘यह बूढ़ा आपकी क्या सेवा कर सकता है?’ वृद्ध देवीसिंह का चेहरा आवेश से लाल हो गया।
-‘आप जानते हैं कि इस युद्ध में कच्छवाहों ने हमारा साथ नहीं दिया। इसीसे मराठे युद्ध के मैदान से जीवित भागने में सफल हो गये। हम चाहते हैं कि इस बार यदि युद्ध का अवसर उपस्थित हो तो कच्छवाहे पूरे मन के साथ युद्ध करें। इसलिये आप हमारा यह संदेश लेकर जयपुर पधारें। हम यह भी चाहते हैं कि आप किशनगढ़ तथा कोटा को भी भावी युद्ध के लिये मराठों के विरुद्ध तैयार करें। मेवाड़ तथा बीकानेर को तैयार करने का दायित्व हमारा रहेगा। इस सेवा के बदले आपको मारवाड़ राज्य में एक लाख की जागीर, हाथी और पालकी दी जायेगी तथा आपके पौत्र के पास पचास हजार रुपये की आय वाली वंशानुगत जागीर रहेगी। यदि इसमें कोई अन्यथा बात हो जाये तो भगवान बालकृष्ण लाल साक्षी हैं। सारे राजपूत आपके अनुयायी हो जायेंगे तो हमारी सेना की शक्ति बढ़ेगी और हम मराठों को सबक सिखा देंगे।’
-‘महाराज! मैंने तो पहले भी आपको यही सुझाव दिया था किंतु आपने उस पर विचार नहीं किया और किशनगढ़ वालों से सम्बन्ध बिगाड़ लिये। अब यदि मराठों के साथ फिर से बिगाड़ करना है तो पहले खूब अच्छी तरह सोच लें। मेरा अब बुढ़ापा है….. जैसा आप कहेंगे, मैं कर दूंगा किंतु आप भी राजपूतों को अच्छी तरह जानते हैं। आज से पचास साल पहले हुरड़ा में जो कुछ भी हुआ, परिस्थितियाँ आज भी वही हैं। राजपूत ठोकर खाकर भी संभल नहीं रहे हैं। अपनी आन-बान और शान के लिये रक्त तो खूब बहाते हैं किंतु…….।’ वृद्ध ठाकुर ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी और सांस लेकर बोला, ‘बिल्लियां चूहों को पीठ पर लेकर घूम सकती हैं, साँप भी मेंढकों को अपनी पीठ पर लेकर चल सकते हैं किंतु राजपूताने के राजपूत कभी एक नहीं हो सकते।’
-‘इतिहास अपनी गति से चल रहा है ठाकरां। आज हम इतिहास के वर्तमान में खड़े हैं, आने वाले कल में हम भी अतीत में परिवर्तित हो जाने वाले हैं। यदि आज हमने कुछ नहीं किया तो आने वाला कल भी हमारी उसी तरह चर्चा करेगा जिस तरह आज हम हुरड़ा सम्मेलन में विफल हुए अपने पूर्वजों की चर्चा कर रहे हैं।’
-‘तो ठीक है, दरबार के आदेश से मैं कोटा, किशनगढ़ तथा जयपुर रियासतों के दरबार से बात करूंगा। बूंदी से….।’ वृद्ध ठाकुर ने एक बार फिर अपनी बात अपूर्ण छोड़ दी।
-‘बूंदी से हम स्वयं बात कर लेंगे।’ आप तो हमारा यह काम कर दें। मरुधरानाथ ने वृद्ध के कंधे पर स्नेह-सिक्त हाथ धरा। महाराजा जब विशेष प्रसन्न होता था तभी सामने वाले के कंधों पर हाथ रखता था इस बात की जानकारी वृद्ध देवीसिंह को भी अच्छी तरह थी किंतु देवीसिंह पर बुढ़ापा इस कदर छा चुका था कि अब वह चाहकर भी मरुधरानाथ की कोई सहायता नहीं कर सकता था। कुछ ही दिनों में मरुधरानाथ भी इस सत्य से परिचित हो गया।