Sunday, November 10, 2024
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2. सवाई जयसिंह के पूर्वज

भारत के प्राचीन क्षत्रिय राजवंश अपना सम्बन्ध सूर्यवंश, चन्द्रवंश एवं यदुवंश में से किसी एक के साथ मानते थे। सूर्यवंश में इक्ष्वाकु कुल प्राचीन क्षत्रिय कुल था। इक्ष्वाकुओं की एक शाखा महाराज रघु के नाम पर रघुकुल कहलाती थी। इसी कुल में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम हुए जिन्होंने अयोध्या को राजधानी बनाकर विशाल भूभाग पर शासन किया। श्रीराम के पुत्र कुश हुए, जयसिंह के पूर्वज स्वयं को इन्हीं कुश का वंशज मानते थे तथा कुश के नाम पर ही यह वंश कच्छवाहा कहलाता था। कच्छप शब्द से भी कच्छवाहा शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है। इस कारण इसे कूर्म वंश भी कहा जाता है।

राजस्थान की राजनीति में कच्छवाहों का उदय

राजस्थान की राजनीति में आने से पहले कच्छवाहों का राज्य ग्वालियर तथा नरवर क्षेत्र में था। नरवर के राजा सोढादेव का पुत्र दूल्हाराय अथवा धौलाराय हुआ। इसका वास्तविक नाम तेजकरण बताया जाता है। राजस्थान की राजनीति में कच्छवाहों का उदय बारहवीं शती ईस्वी में हुआ। धौलाराय ने लालसोट के चौहान शासक रलहन्सी की राजकुमारी मारोनी से विवाह कर लिया। उस समय इस क्षेत्र में यही एकमात्र चौहान शासक था, इसके चारों ओर बड़गूजरों के ठिकाने थे। लालसोट के चौहान सरदार से सम्पर्क हो जाने के बाद धौलाराय ने नरवर से चलकर ढूंढार प्रदेश में प्रवेश किया तथा मीणों को परास्त कर अपने राज्य की नींव रखी। इस प्रकार कच्छपों अर्थात् कछुओं ने मत्स्यों अर्थात् मछलियों को परास्त कर ढूंढार प्रदेश में अपना शासन स्थापित किया। धौलाराय ने बड़गूजरों से दौसा, तथा मीणों से माची छीन लिये। उसने चान्दा मीणा से खोह छीन लिया तथा देवती के किले पर अधिकार कर लिया। ढूंढार प्रदेश में शासन जमाने के लिये कच्छवाहों को मीणों एवं बड़गूजरों से कड़ा संघर्ष करना पड़ा।

काकिलदेव से चन्द्रसेन तक

धौलाराय का पुत्र काकिलदेव हुआ जिसने मीणा शासक भुट्टो को परास्त करके उससे आमेर छीन लिया। इस प्रकार दौसा, रामगढ़, खोह, झोटवाड़ा, गेटोर आदि क्षेत्र भी कच्छवाहों के अधिकार में आ गये। इस वंश में पंचनदेव पराक्रमी शासक हुआ। इसका काल 1070 से 1094 ई. निर्धारित किया गया है। उसके बाद मालसी, जिलदेव, रामदेव, किल्हण, कुन्तल जणशी, उदयकरण, नरसिंह, उदरण एवं चन्द्रसेन कच्छवाहों के सिंहासन पर बैठे। चन्द्रसेन भगवान का बड़ा भक्त था। उसने आमेर राज्य में भगवान शिव एवं विष्णु के अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया।

पृथ्वीराज

चन्द्रसेन का पुत्र पृथ्वीराज भी अपने पिता की तरह भगवान का बड़ा भक्त हुआ। उसने महाराणा सांगा के साथ खानवा के युद्ध में भाग लिया तथा बुरी तरह घायल होकर आमेर लौटा। पृथ्वीराज के नौ रानियां थीं जिनसे उसे अठारह पुत्र हुए थे। इनमें से छः पुत्र पृथ्वीराज के सामने ही काल कवलित हो गये थे। खानवा से लौटकर पृथ्वीराज ने अपने राज्य को अपनी बारह कोटड़ियों (खण्डों) में विभक्त किया तथा प्रत्येक पुत्र को एक कोटड़ी का राजा बना दिया। इस विभाजन के कुछ माह बाद पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई।

राजा पूर्णमल से राजा रत्नसिंह तक

पृथ्वीराज की मृत्यु होने पर उसका छोटा पुत्र पूरणमल 5 नवम्बर 1527 को आमेर की गद्दी पर बैठा। उसकी माता बालाबाई, बीकानेर के राव लूणकरण की पुत्री थी। बालाबाई ने ही पूरणमल को आमेर का शासक बनवाया था। पूरणमल के भाई भीमसिंह ने 1534 ई. में पूरणमल की हत्या करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया। भीमसिंह 13 साल तक शासन करता रहा तथा 1547 ई. में अपने पुत्रों द्वारा मार डाला गया। भीमसिंह के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह आमेर का राजा हुआ। वह आराम पसंद राजा था। इस कारण राज्यभार उसके मंत्री तेजसी रायमलोत के कंधों पर आ गया। कुछ स्रोत इस राजा को पागल भी बताते हैं। रत्नसिंह को शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। रत्नसिंह के चाचा सांगा ने बीकानेर के राव जैतसी की सहायता से आमेर के निकट मौजमाबाद तथा निकटवर्ती क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर लिया और अपने नाम से सांगानेर बसाया।

राजा भारमल

सांगा की मृत्यु के बाद सांगा के छोटे भाई भारमल (बिहारीमल) ने रत्नसिंह से वैमनस्य जारी रखा। रत्नसिंह के सामंत, अपने शराबी और निकम्मे राजा से प्रसन्न नहीं थे। इस कारण वे भारमल के कहने पर रत्नसिंह के छोटे भाई आसकरण के पक्ष में हो गये। आसकरण ने राजा रत्नसिंह को जहर दे दिया और स्वयं आमेर का शासक बन गया। जून 1547 में आसकरण तीर्थ यात्रा पर गया। भारमल ने अवसर का लाभ उठाते हुए आसकरण के सामंतों को अपनी ओर मिला लिया तथा आसकरण को पदच्युत करके स्वयं आमेर का राजा बन गया।

तीर्थ यात्रा से लौटने के बाद आसकरण, शेरशाह सूरी के पुत्र सलीमशाह के सरदार हाजी खाँ पठान की शरण में चला गया। जब पठान अपनी सेना लेकर आमेर आया तो भारमल ने अपनी पुत्री किसनावती का डोला उसके पास भेज दिया। हाजी खाँ किसनावती पाकर प्रसन्न हुआ और वापस लौट गया। इस प्रकार आसकरण देखता ही रह गया और भारमल आमेर का वास्तविक शासक बन गया। उस समय भारमल की आयु 50 वर्ष थी। कुछ समय बाद हाजी खाँ पठान ने नारनौल पर आक्रमण किया। भारमल ने हाजी खाँ को नारनौल से सेनाएं वापस लौटाने के लिये सहमत कर लिया। नारनौल के सूबेदार मजनूं खाँ ने भारमल के प्रति कृतज्ञ होकर दिसम्बर 1556 में भारमल को दिल्ली बुलवाया तथा वहाँ अकबर से उसकी भेंट करवाई। अकबर उस समय केवल 14 साल का लड़का था और उसे दिल्ली और आगरा पर अधिकार किये हुए कुछ ही दिन हुए थे। इसलिये अकबर के लिये यह भेंट बहुत मूल्यवान थी।

1558 ई. में आमेर के स्वर्गीय राजा पूरणमल के पुत्र सूजा ने मेवात के सूबेदार सर्फुद्दीन के साथ मिलकर आमेर पर आक्रमण किया। भारमल को भागकर पहाड़ियों में छिप जाना पड़ा। 1561 ई. में सर्फुद्दीन आमेर आया तो भारमल ने उसे विपुल धनराशि देकर तथा अपने पुत्र को उसके पास रेहन रखकर अपना राज्य वापस ले लिया। पारिवारिक क्लेश आमेर के राजाओं को चैन से नहीं बैठने दे रहा था। इसलिये भारमल ने किसी ऐसी शक्ति का संरक्षण ढूंढना आरम्भ कर दिया जो भारमल के राज्य तथा भारमल के राज्याधिकार दोनों को सुरक्षा दे सके। जनवरी 1562 में अकबर अजमेर की जियारत पर निकला। जब वह सांगानेर पहुंचा तो भारमल ने चकताई खाँ के माध्यम से अकबर से भेंट करके उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध

जब बादशाह अजमेर से वापस लौटा तो भारमल ने सांभर में उससे भेंट की। अकबर ने सर्फुद्दीन को आदेश दिया कि वह भारमल के पुत्र एवं उसके परिवार को छोड़ दे। इसके बाद भारमल ने अपनी पुत्री हीराकंवर (हरखू बाई) का विवाह अकबर से कर दिया। सांभर में विवाह करने के बाद अकबर आगरा की ओर लौटते हुए जब रामपुरा पहुंचा तब भारमल अपने परिवार के साथ पुनः अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। अकबर ने उसे बहुमूल्य उपहार दिये तथा भारमल के ज्येष्ठ पुत्र भगवन्तदास और पौत्र मानसिंह को अपने साथ आगरा ले गया। अकबर ने भगवन्तदास और मानसिंह को उच्च पद प्रदान किये। भारमल को भी पांच हजारी मनसब प्रदान किया। इसके बाद भारमल निर्विघ्न आमेर पर शासन करता रहा तथा अकबर के लिये कई युद्ध लड़े। अगले दस वर्षों में उसका राजनैतिक महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया। राजा भारमल ने शाही सेवा में विभिन्न पदों पर रहते हुए साम्राज्य की सेवा की। अकबर ने भारमल की पुत्री हीराकंवर को बेगम मरियम उज्मानी के नाम से अपने हरम में रख लिया। आगे चलकर इसकी कोख से सलीम का जन्म हुआ जिसने जहांगीर के नाम से 22 साल तक भारत पर शासन किया।

राजपूत शासकों में वर्चस्व वृद्धि की होड़

जब राजपूत शासकों ने देखा कि राजा भारमल ने अकबर से अपनी पुत्री का विवाह करके मुगलों के दरबार में अपनी स्थिति सबसे मजबूत बना ली है तो राजपूत राजाओं में वर्चस्व वृद्धि की होड़ मच गई। राजा भारमल का अनुकरण करके राजपूताने के बड़े-बड़े राजाओं ने अपनी राजकुमारियों के विवाह अकबर तथा उसके पुत्रों एवं राज्याधिकारियों से करने आरम्भ कर दिये। इनमें जोधपुर का मोटाराजा उदयसिंह प्रमुख था जिसने अपनी पुत्री जगत गुसाईं का विवाह सलीम से कर दिया। बीकानेर तथा जैसलमेर की राजकुमारियों के विवाह भी मुगल शहजादों से किये गये। मेवाड़ इस प्रथा का अपवाद रहा। बूंदी के सुर्जन हाड़ा ने भी जब अकबर से संधि की तब यह शर्त रखी कि हाड़ों की राजकुमारी का डोला मुगलों को नहीं जायेगा।

राजा भगवंतदास

जनवरी 1573 में भारमल की मृत्यु हो गई। उसके दस पुत्र थे। भारमल के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र भगवन्तदास अथवा भगवानदास (1573-1589 ई.) आमेर का शासक हुआ। अकबर ने उसे भी पांच हजारी मनसब दिया। भगवंतदास ने अकबर के लिये कई लड़ाइयां लड़ीं। भगवंतदास की पुत्री मानबाई का विवाह सलीम के साथ किया गया। 1589 ई. में भगवंतदास की मृत्यु हो गई।

राजा मानसिंह

भगवन्तदास के बाद उसका पुत्र मानसिंह (1589-1614 ई.) आमेर का शासक हुआ। अकबर, मानसिंह का फूफा लगता था किंतु उन दोनों की आयु में बहुत कम अंतर था इस कारण वे आपस में घनिष्ठ मित्र थे। दोनों साथ बैठकर शराब पीते तथा शराब के नशे में एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था हो जाते। जब नशा उतर जाता तो शर्म के कारण कुछ दिनों तक एक दूसरे के सामने नहीं पड़ते। भारमल, भगवंतदास तथा मानसिंह ने अकबर की बड़ी सेवा की। तीनों ने ही अकबर के लिये कई युद्ध जीते और अकबर के राज्य का विस्तार किया। मानसिंह ने अकबर की तरफ से मेवाड़ पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में मुगल सल्तनत की सम्पूर्ण शक्ति झौंक दी गई। हल्दीघाटी के मैदान में दोनों पक्षों में कठिन युद्ध हुआ।

युद्ध के दौरान महाराणा का प्रसिद्ध चेतक घोड़ा कुंवर मानसिंह के हाथी पर जा कूदा तथा महाराणा ने अपने भाले से मानसिंह पर वार किया किन्तु मानसिंह होदे में झुककर इस वार को बचा गया। महाराणा ने उसे मरा हुआ समझकर छोड़ दिया। इस दौरान मानसिंह के हाथी के दाँतों से अथवा हाथी के पैरों में बंधी तलवारों से चेतक की अगली दोनों टांगें जख्मी हो गयी। महाराणा को मैदान छोड़ना पड़ा। महाराणा प्रतापसिंह के पिता उदयसिंह ने अकबर के आक्रमण के समय चित्तौड़ का परित्याग करके उदयपुर को राजधानी बनाया था, महाराणा प्रताप ने उदयपुर का परित्याग करके गोगूंदा को राजधानी बनाया किंतु अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने नाराज होकर मानसिंह की ड्यौढ़ी बंद कर दी।

मानसिंह की बहिन मानबाई का विवाह सलीम से हुआ था। सलीम ने एक दिन शराब के नशे में धुत्त होकर, रानी मानबाई की कोड़े से इतनी निर्मम पिटाई की कि मानबाई मर गई। इस घटना के बाद मानसिंह, सलीम का शत्रु हो गया। जब 1605 ई. में अकबर की मृत्यु निकट आई तो अकबर ने मानसिंह को बंगाल से अपने पास आगरा बुला लिया। मानसिंह के पास अब तक पांच हजार का मनसब था किंतु अब अकबर ने उसे सात हजार का मनसब देकर अपने पौत्र खुसरो तथा अपनी बहिन को मानसिंह के संरक्षण में दे दिया। इससे पहले किसी भी हिन्दू को सात हजार का मनसब नहीं दिया गया था।

अकबर की इच्छा जानकर राजा मानसिंह ने प्रयास किया कि अकबर के बाद सलीम एवं मानबाई के पुत्र खुसरो को मुगलों के तख्त पर बैठाया जाये। मानसिंह तथा मिर्जा कोका ने सलीम को बंदी बनाने की तैयारी की किंतु रामदास कच्छवाहा द्वारा सलीम का समर्थन किये जाने के कारण राजा मानसिंह अपनी योजना में सफल नहीं हुआ। 5 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु हो गई। सलीम ने तख्त पर बैठते ही 10 नवम्बर 1605 को मानसिंह को बंगाल में युद्ध करने के लिये भेज दिया और खुसरो की आंखें फोड़कर उसे ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। बाद में खुसरो को खुर्रम (शाहजहां) के हाथों सौंप दिया गया। खुर्रम ने उसे बेदर्दी से मार दिया। मई 1607 ई. में जहांगीर ने मानसिंह को अपने पास तलब किया। उस समय बादशाह काबुल में था। इसलिये मानसिंह तुरंत रवाना नहीं हुआ तथा उसने बादशाह के आगरा लौट आने तक प्रतीक्षा की। जब फरवरी 1608 में बादशाह आगरा पहुंचा तो मानसिंह उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। जहांगीर बुरी तरह से चिढ़ गया। उसने मानसिंह को कपटी और बूढ़ा भेड़िया कहकर उसकी भर्त्सना की।

संभवतः बादशाह को प्रसन्न करने के लिये 8 जून 1608 को मानसिंह के पुत्र जगतसिंह की पुत्री का विवाह जहांगीर से किया गया। कुछ दिन बाद मानसिंह को जहांगीर की ओर से एक अरबी घोड़ा तथा मानसिंह के पुत्र भावसिंह को 2000 का मनसब दिया गया तथा उन्हें शहजादे परवेज के अधीन, दक्षिण के मोर्चे पर लड़ने भेज दिया गया। अकबर के समय में मानसिंह मुगलों का प्रधान सेनापति था किंतु जहांगीर ने शहजादे परवेज को प्रधान सेनापति बनाकर, उसके नीचे तीन सेनापति रखे जिनमें से मानसिंह एक था। 6 जुलाई 1614 को एलिचपुर में राजा मानसिंह की मृत्यु हो गई। जहांगीर तथा ब्लीचमैन ने मानसिंह की रानियों की संख्या 1500 बताई है तथा प्रत्येक से दो या तीन बच्चे होने का उल्लेख किया है। संभवतः यह संख्या सही नहीं है। आमेर की पुरानी वंशावलियों में मानसिंह की लगभग दो दर्जन स्त्रियों एवं एक दर्जन बच्चों का उल्लेख हुआ है। उसके रनिवास में विभिन्न प्रांतों से आई हुई स्त्रियां भी रहती थीं।

मिर्जा राजा जयसिंह

मानसिंह की मृत्यु के समय उसके दो पुत्र भावसिंह तथा कल्याणसिंह जीवित थे। इनमें से भावसिंह आमेर की राजगद्दी पर बैठा। जहांगीर ने उसे 3000 का मनसब दिया और बंगाल का गवर्नर बनाकर भेज दिया। कुछ दिन बाद उसे 4000 का मनसब देकर दक्षिण भेज दिया गया। भावसिंह जीवन भर दक्षिण में उलझा रहा जहाँ, मलिक अम्बर गुरिल्ला युद्ध करके उसकी सेना को क्षति पहुंचाता रहा। कुछ समय बाद जहांगीर ने भावसिंह का मनसब पांच हजार कर दिया। नवम्बर 1621 में बुरहानपुर में राजा भावसिंह की निःसंतान अवस्था में मृत्यु हो गई। वह अधिक शराब पीने से मरा। इस समय तक उसका कोई भाई भी जीवित नहीं था। भावसिंह का एक भतीजा महासिंह भी मई 1617 ई. में मर चुका था। महासिंह संभवतः मानसिंह के कुंवर जगतसिंह का पुत्र था। अतः जहांगीर ने महासिंह के पुत्र जयसिंह को आमेर का शासक बनाया। उस समय जयसिंह केवल 11 साल का था। भारमल, भगवन्तदास तथा मानसिंह तक की तीन पीढ़ियों ने अकबर की सेवा की थी किंतु जयसिंह (1621-1668 ई.) ने तीन बादशाहों- जहांगीर (1605-1627 ई.) शाहजहां (1627-1658 ई.) तथा औरंगजेब (1658-1707 ई.) की सेवा की।

जहांगीर ने जयसिंह को तीन हजार जात तथा 1500 सवारों का मनसबदार बनाया। शाहजहां ने उसे पहले 4000 का तथा फिर 5000 का मनसब दिया। 1635 ई. में जयसिंह ने छत्रपति शिवाजी के पिता शाहजी भौंसले के 3 हजार आदमी और 8 हजार बैल पकड़ लिये। इन बैलों पर बड़ा भारी तोपखाना और बारूद लदा हुआ था। इस भारी जीत के उपलक्ष्य में जयसिंह जयपुर आया और लगभग दो वर्ष तक यहाँ रहा। इस काल में उसने कला एवं साहित्य पर ध्यान दिया तथा अपने समय के सबसे बड़े कवि बिहारीलाल को अपने दरबार में स्थान देकर उसका बड़ा सम्मान किया। बिहारी, ‘सतसई’ लिखकर हिन्दी साहित्य में अमर हो गया।

1636 ई. में शाहजहां ने राजा जयसिंह को मिर्जा राजा की उपाधि दी। इस कारण यह राजा, भारत के इतिहास में मिर्जा राजा जयसिंह के नाम से विख्यात हुआ। 1647 ई. में शाहजहां बल्ख और बदख्शां में असफल होकर काबुल में फंस गया। धन की कमी के कारण उसकी हालत पतली हो गई। तब मिर्जा राजा जयसिंह आगरा से 1 करोड़ 20 लाख रुपये लेकर काबुल पहुंचा। शाहजहां ने उसका बड़ा सम्मान किया तथा उसका मनसब छः हजारी कर दिया। जयसिंह ने बल्ख पर आक्रमण करके उसे जीत लिया। जयसिंह के सेनापति माधोसिंह को बल्ख का सूबेदार बनाया गया। (माधोसिंह कोटा का राजा भी था।) शाहजहां के जीवन काल में ही एक बार औरंगजेब बल्ख में फंस गया। तब मिर्जा राजा जयसिंह उसे उजबेगों से बचाकर काबुल ले आया। इस पर शाहजहां ने उसकी बड़ी प्रशंसा की।

जब शाहजहां के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तब मिर्जा राजा जयसिंह को शहजादा सुलेमान शेखों का संरक्षक बनाया गया। जयसिंह ने शुजा को परास्त करके उसका शिविर लूट लिया। जब यह समाचार शाहजहां के पास पहुंचा तो शाहजहां ने जयसिंह को सात हजारी मनसब प्रदान किया। उत्तराधिकार के युद्ध में जब औरंगजेब जीत गया तो जयसिंह ने उसी को अपना स्वामी मान लिया और दारा के पीछे पड़ गया। जहाँ-जहाँ दारा गया, जयसिंह उसका दुर्भाग्य बनकर उसके पीछे लगा रहा। अंत में उसने दारा को पकड़कर भयानक अपमान और पीड़ादायक मृत्यु के लिये औरंगजेब के हाथों सौंप दिया। इससे प्रसन्न होकर औरंगजेब ने उसे ढाई लाख की जागीर दी तथा 14 हजार की सेना देकर छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण में भेज दिया। 11 जून 1665 को छत्रपति शिवाजी तथा मुगलों के बीच पुरंदर की विख्यात संधि हुई। इस संधि के लिये छत्रपति को मिर्जा राजा जयसिंह ने अपनी तलवार के जोर पर विवश किया था। यह संधि मिर्जा राजा के जीवन की सबसे बड़ी सफलता और शिवाजी की सबसे बड़ी विफलता थी। इस संधि के परिणाम स्वरूप शिवाजी ने अपने अधिकार वाले 35 दुर्गों में से 23 दुर्ग औरंगजेब को दे दिये तथा स्वयं शिवाजी ने आगरा पहुंचकर औरंगजेब के दरबार में उपस्थित होना स्वीकार कर लिया।

कच्छवाहों से नाराजगी

छत्रपति को आशा थी कि जिस प्रकार छत्रपति ने संधि की समस्त शर्तें पूरी कर दी हैं, उसी प्रकार औरंगजेब भी संधि की शर्तों का पालन करेगा किंतु धूर्त औरंगजेब ने छत्रपति के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया। उन्हें तथा उनके पुत्र शंभाजी को मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह की देख-रेख में आगरा में नजरबंद कर लिया गया। छत्रपति तथा उनका पुत्र शंभाजी, अपने सहायकों की सहायता से, रामसिंह के पहरे से भाग निकले तो औरंगजेब कच्छवाहों का शत्रु हो गया। वह जीवन पर्यंत इस घटना को नहीं भुला सका। यहाँ तक कि अपने वसीयतनामे में भी औरंगजेब ने इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया- ‘देखो, किस प्रकार उस अभागे शिवा का पलायन जो असावधानी के कारण हुआ, मुझे मृत्यु-पर्यंत परेशान करने वाली मुहिमों में उलझाये रहा।’ औरंगजेब ने जयसिंह को पहले तो औरंगाबाद भेजा और फिर वहाँ से बुलाकर बुरहानपुर के मोर्चे पर भेज दिया। 2 जुलाई 1668 को बुरहानपुर के मोर्चे पर ही मिर्जा राजा जयसिंह की हत्या कर दी गई। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘जयसिंह की मृत्यु एलिजाबेथ के दरबार के सदस्य वॉलघिम की भांति हुई जिसने अपना बलिदान ऐसे स्वामी के लिये किया जो काम लेने में कठोर तथा काम के मूल्यांकन में कृतघ्न था।’

मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रामसिंह आमेर का शासक हुआ। छत्रपति शिवाजी के आगरा से निकल भागने की घटना से औरंगजेब रामसिंह से नाराज चल रहा था। औरंगजेब ने अपने हाथों से रामसिंह का राजतिलक किया तथा उसे अत्यंत सामान्य मनसब देकर राजधानी से बहुत दूर आसाम के मोर्चे पर भेज दिया। औरंगजेब चाहता था कि रामसिंह या तो युद्ध में मारा जाये या आसाम के खराब मौसम से बीमार होकर मर जाये किंतु रामसिंह 1676 ई. में आसाम का मोर्चा जीतकर दिल्ली लौट आया। औरंगजेब ने बुझे मन से उसका स्वागत किया तथा तुरंत खैबर के दर्रे के लिये रवाना कर दिया तथा उसके पुत्र किशनसिंह को दक्षिण के मोर्चे पर भेज दिया। 10 अप्रेल 1682 को दक्षिण के मोर्चे पर किशनसिंह की मृत्यु हो गई। इससे रामसिंह टूट गया और 6 वर्ष तक पुत्र शोक में तड़पता-गलता 10 अप्रेल 1688 को कोहट के मोर्चे पर मर गया।

1688 ई. में रामसिंह की मृत्यु के बाद किशनसिंह का पुत्र बिशनसिंह मात्र 16 वर्ष की आयु में आमेर का राजा हुआ। औरंगजेब ने उसे ढाई हजार जात और 2000 जात का मनसबदार बनाया तथा जाटों के विरुद्ध झौंक दिया। किशनसिंह ने कई हजार जाटों का कत्ल किया तथा कई हजार कच्छवाहे खोये। उसका सारा जीवन जाटों से संघर्ष करने में बीता। अंत में 27 वर्ष की आयु में 1699 ई. में उसे अफगानिस्तान भेजा गया जहाँ 19 दिसम्बर 1699 को उसकी मृत्यु हो गई। यह भाग्य की ही विडम्ना थी कि आमेर के कच्छवाहों की पांच पीढ़ियों- मिर्जा राजा जयसिंह, रामसिंह, किशनसिंह, बिशनसिंह तथा सवाई राजा जयसिंह ने औरंगजेब जैसे धूर्त्त स्वामी की सेवा की।

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