ई.1857 का विद्रोह समाप्त हो जाने के बाद भारत में अंग्रेजों की राजनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये। अंग्रेज राजनीतिज्ञों ने देशी राजाओं के महत्त्व को अच्छी तरह समझ लिया। अब देशी राजाओं के राज्य समाप्त कर उन्हें ब्रिटिश भारत में मिलाने की बात सदा के लिये समाप्त हो गई। 1857 के विद्रोह में समस्त बड़े राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया था जबकि उनके सामंतों ने विद्रोही सेनाओं को सहायता एवं समर्थन देकर विद्रोह को सफल बनाने का प्रयास किया था।
इसलिये अंग्रेज सरकार अब तक सामंतों को दबाने की जिस नीति पर चल रही थी, उसे छोड़ दिया गया तथा बड़े सामंतों से भी उसी प्रकार का अच्छा व्यवहार किया जाने लगा जिस प्रकार का व्यवहार राजाओं के साथ किया जाता था। इस कारण देशी राज्यों में सामंतों की अनुशासनहीनता की स्थिति पुनः उसी प्रकार पनपने लग गई जिस प्रकार वह ई.1818 की संधियों से पहले थी।
अंग्रेज सरकार द्वारा सर्वोच्चता का प्रदर्शन
सैनिक विद्रोह का पूरी तरह दमन कर दिये जाने के बाद अंग्रेजों की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि अब तक वे देशी राजाओं को अपना मित्र कहते आये थे किंतु अब उन्होंने देशी राज्यों पर सर्वोच्चता एवं परमोच्चता का प्रदर्शन करना आरम्भ किया। ई.1862 में लॉर्ड केनिंग ने घोषणा की कि इंग्लैण्ड के शासक समस्त भारत के असंदिग्ध शासक हैं तथा उनमें सर्वोच्च सत्ता निहित है।
लॉर्ड एल्गिन (ई.1862-63) ने भारतीय रियासतों एवं ब्रिटिश राज्य को निकट लाने के उद्देश्य से वाराणसी, कानपुर, आगरा तथा अम्बाला में अनेक दरबार आयोजित किये। इन दरबारों के आयोजन का परिणाम यह हुआ कि देशी रियासतों की स्वतंत्रता घट गयी और वे पूर्णतः अधीनस्थ स्थिति में आ गयीं। लॉर्ड मेयो (ई.1869-72) ने राजपूताने के शासकों के समक्ष घोषणा की कि-
(1.) अंग्रेज सरकार भारतीय शासकों के कुशासन के कारण उनके राज्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार रखती है।
(2.) अंग्रेज सरकार राज्य में विद्रोह को दबाने का अधिकार रखती है।
(3.) अंग्रेज सरकार राज्य में गृहयुद्ध नहीं होने देगी।
पॉलिटिकल एजेंट कार्यालय का नीमच से उदयपुर आना
ई.1818 में मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेंट का कार्यालय नीमच में स्थापित किया गया था किंतु महाराणा शंभुसिंह के शासन काल में पॉलिटिकल एजेंट का कार्यालय नीमच से उदयपुर में स्थानांतरित कर दिया गया। सामंतों के झगड़ों के कारण, राज्य के आंतरिक मामलों में विशेषकर पॉलिटिकल एजेंट का हस्तक्षेप बढ़ गया।
उदयपुर में व्यापारिक वर्ग की हड़ताल
दिसम्बर 1863 में मेवाड़ के रेजीडेण्ट ईडन ने ‘आण प्रथा’ को अच्छे प्रशासन और कुशल नियमों के विरुद्ध बताकर बंद करने के आदेश पारित कर दिये। 23 मार्च 1864 को एक और आदेश जारी किया कि यदि कोई व्यक्ति आण का प्रयोग करके अपने ऋण को वसूल करने का प्रयास करेगा तो उसे बाद में न्यायालयों की सहायता नहीं मिलेगी। आण प्रथा को बंद करने का यह खुला प्रयत्न था। इससे जनता में यह धारणा बन गई कि महाराणा की सत्ता के स्थान पर पोलिटिकल एजेंट की सत्ता स्थापित हो गई है।
इसलिये उदयपुर में भारी आंदोलन आरम्भ हो गया और 30 मार्च 1864 को व्यापारी वर्ग ने हड़ताल कर दी। कई दिन तक बाजार बंद रहे। यह पहला अवसर था जब किसी भी भारतीय राज्य में इतने व्यापक स्तर पर सविनय प्रतिरोधक आंदोलन चलाया गया था। इस आंदोलन का नेतृत्व प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यापारी सेठ चम्पालाल कर रहा था। इस आंदोलन से ईडन की बड़ी किरकिरी हुई और उसे बड़ा अपमान सहना पड़ा। आंदोलन को बड़ी तरकीब से तुड़वाया गया। बोहरों को दुकान खोलने के लिये राजी किया गया। इससे कुछ दिनों में स्थिति सामान्य हो गई।
अंग्रेजों की नीति में राष्ट्रव्यापी परिवर्तन
उदयपुर के व्यापारी आंदोलन से अंग्रेज सरकार, सत्ता की मदहोशी से बाहर आई तथा पूरे देश में ये आदेश जारी किये गये कि ‘पॉलिटिकल अधिकारियों द्वारा शीघ्र बहुत कुछ करने के स्थान पर धीमी गति से चला जाये’ तथा जितने भी परिवर्तन किये जाएं, वे राजा की आज्ञाओं द्वारा ही किए जाएं। समस्त आदेश शासक के नाम में ही निकाले जाएं। उदयपुर राज्य में इसके बाद महाराणा के वयस्क होने तक कोई परिवर्तन नहीं किया गया। जब महाराणा वयस्क हो गया तब उसके आदेशों से ही न्यायिक परिवर्तन करवाये जा सके।
महाराणा के अनुरोध पर जागीरी क्षेत्रों में न्यायालयों की स्थापना
ई.1870 में महाराणा ने अंग्रेज एजेंट से न्यायालयों को जागीरी क्षेत्र में भी स्थापित करने का अनुरोध किया, चाहे सामंत इस पर आपत्ति ही करें। महाराणा को न्यायिक परिवर्तनों में सामंतों पर नियंत्रण का साधन और अंग्रेजों को समाज पर परम्परा के बंधन ढीले करने का माध्यम दिखाई पड़ा। अंग्रेजों ने मेवाड़ में इन न्यायिक परिवर्तनों को बहुत महत्त्वपूर्ण माना क्योंकि फिर कोई अन्य राजा उन्हें नहीं रोक सकेगा। मेवाड़ में अर्जुनसिंह और समीन अलीखां के नेतृत्व में दीवानी और फौजदारी न्यायालयों का गठन किया गया।
इस पद्धति में अधिकारियों का कार्यक्षेत्र और उनके दण्ड तथा जुर्माना करने की सीमाएं निर्धारित होती थीं। न्यायालयों का श्रेणीबद्ध ढांचा स्थापित करके पैतृक प्रशासन की उस पद्धति को, जो पीढ़ियों से चली आ रही थी, समाप्त कर दिया गया। 1870-71 की प्रशासनिक रिपोर्ट में उदयपुर दरबार द्वारा अनुरोध पत्र प्रकाशित करके एजीजी ने सामंतों तथा प्रजा को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि महाराणा के अनुरोध पर ही न्यायिक परिवर्तन किए गये। इस प्रकार मेवाड़ की प्रजा में महाराणा की सर्वमान्यता की स्थिति ने अंग्रेज शासकों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जिसका प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर तय होने वाली नीतियों पर होना निश्चित था।
राजपूताना के नरेशों में महाराणा की सर्वोच्च स्थिति
महाराणा शंभुसिंह के शासनकाल में ई.1870 में गवर्नर जनरल लॉर्ड मेयो ने अजमेर दरबार का आयोजन किया। इसमें मेवाड़ महाराणा को भी आमंत्रित किया गया। महाराणा शंभुसिंह ने अजमेर दरबार में उपस्थित होने की सहमति इस शर्त पर दी कि उसकी प्रतिष्ठा और उच्चता को ध्यान में रखा जायेगा। महाराणा की इस शर्त को स्वीकार कर लिया गया। महाराणा सैन्य सहित अजमेर गया।
अजमेर और मेवाड़ की सीमा पर बर में अंग्रेज अधिकारी महाराणा के स्वागत के लिये आये। अजमेर दरबार में महाराणा को पहली पंक्ति में बैठाया गया। जोधपुर राजा को मेवाड़ तथा जयपुर के बाद की सीट दी गई । इस पर जोधपुर नरेश तख्तसिंह नाराज होकर अपने राज्य को लौट गया। अंग्रेजांे ने उसकी सलामी की तोपों की संख्या घटा दी, उसे तुरंत अजमेर से निकाल दिया गया तथा उसके इस अपमान की घटना को सरकारी गजट में प्रकाशित करवाकर उसकी प्रति राजस्थान के प्रत्येक राजा को दी गई।
एम. एस. जैन ने लिखा है कि ई.1870 के अजमेर दरबार में वे सम्मान महाराणा को नहीं मिले जो उसके पूर्वज जवानसिंह को 1832 के अजमेर दरबार में मिले थे। तर्क यह दिया गया कि मेयो इंग्लैण्ड की रानी का प्रतिनिधि था जबकि बैंटिक कम्पनी के संचालक मण्डल का। जैन का यह कथन स्वीकार करने योग्य नहीं है। अंग्रेजों की ओर से महाराणा के प्रोटोकॉल का सूक्ष्मता से निर्वहन किया गया।
महाराणा द्वारा राजराणा पृथ्वीसिंह को मान्यता
अंग्रेज सरकार ने ई.1838 में झाला जालिमसिंह के वंशज मदनसिंह को कोटा राज्य के 17 परगने दिलाकर झालावाड़ का राजा बनाया था परन्तु राजपूताना के राजाओं ने अंग्रेजों के बनाये हुए राजा को राजा मानने से इन्कार कर दिया। ई.1870 के अजमेर दरबार के समय झालावाड़ के राजा पृथ्वीसिंह की पेशवाई के लिये मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेंट भेजा गया।
राजराणा ने उससे कहा कि आप महाराणा साहब से मेरी मुलाकात करा दें। पॉलिटिकल एजेंट कर्नल निक्सन ने महाराणा से कहा कि राजराणा जालिमसिंह के वंशज मदनसिंह को अंग्रेज सरकार ने झालवाड़ का राजा बनाया था परन्तु अब तक राजपूताने के किसी भी राजा ने झालावाड़ के स्वामी को राजा नहीं माना है। प्रत्येक राजा उसे अपनी बराबरी का समझने में और गद्दी पर अपने बराबर बैठाये जाने पर आपत्ति करता है।
ऐसी दशा में जिसको सरकार ने राजा बनाया है उसको वैसा ही स्वीकार कर राजपूताने में उदाहरण रखने की आशा आपके सिवा और किससे की जा सकती है! पॉलिटिकल एजेंट द्वारा इस आग्रह को कई बार दोहराये जाने पर महाराणा शंभुसिंह ने राजराणा पृथ्वीसिंह से नसीराबाद में भेंट की। कोटा के राजा के समान उसका आदर करके उसे अपनी बाईं तरफ बैठाया तथा मोरछल, चंवर आदि लवाजमा रखने की अनुमति दी और हाथी, घोड़े, खिलअत तथा जेवर देकर उसे विदा किया।
अंग्रेजों द्वारा महाराणा पर परमोच्चता लादने के प्रयास
अंग्रेज सरकार, भारतीय नरेशों पर अपनी सर्वोच्च्ता को स्थापित करने के लिये हर संभव प्रयास करने लगी। जनवरी 1860 में पहली बार सलामी तालिका प्रकाशित की गई जिसे समय-समय पर परिवर्तित किया गया। भारतीय नरेशों को उपाधियां देने के लिये स्टार ऑफ इण्डिया की शृंखला आरम्भ की गई तथा ई.1862 में समस्त नरेशों को उत्तराधिकारी गोद लेने का अधिकार दिया गया।
गोद लेने की स्वतंत्रता तभी मिल सकती थी जब वे इंग्लैण्ड के शासक के प्रति निष्ठावान रहें। ई.1871 में एजेण्ट टू गवर्नर जनरल कर्नल बु्रक ने अंग्रेज सरकार की तरफ से महाराणा को ग्रैण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया मेडल दिये जाने की सूचना दी। इस पर महाराणा ने कहा कि उदयपुर के महाराणा बहुत प्राचीन काल से हिन्दुआना सूरज कहलाते हैं। इसलिये मुझे स्टार अर्थात् तारा बनने की आवश्यकता नहीं है। इसके बिना भी मैं सरकार का कृतज्ञ हूँ।
इसके उत्तर में गवर्नर जनरल ने कहलवाया कि हमारे यहाँ बराबरी वालों को यह मैडल दिया जाता है। इससे आपकी अप्रतिष्ठा नहीं अपितु प्रतिष्ठा ही होगी। इस पर संतुष्ट होकर महाराणा ने मेडल लेना स्वीकार किया। 6 दिसम्बर 1871 को महलों में दरबार हुआ जिसमें कर्नल बु्रक ने महाराणा को मेडल आदि पहनाकर उदयपुर के राज्यचिह्न सहित एक झण्डा दिया।