नवम्बर 1720 में फर्रूखसीयर को गद्दी से उतारकर मौत के घाट उतार दिया गया तथा पहले रफी-उद्-दराजात को और बाद में मुहम्मदशाह रंगीला को बादशाह बनाया गया। 21 अप्रेल 1721 को मुहम्मदशाह ने जयसिंह को सरमद-ए-राजा-ए-हिन्द की उपाधि दी। ऐसा लगता है कि मुहम्मदशाह ने तख्त पर बैठते समय जयसिंह के लिये एक विशेष भूमिका भी सोच रखी थी।
जाट नेता चूड़ामन ने थूण संधि में जितने वचन दिये थे, उनमें से एक भी पूरा नहीं किया था तथा सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में जाटों की गतिविधियां तेज गति से चल रही थीं। इस बीच चूड़ामन की मृत्यु हो गई थी तथा उसका पुत्र मोहकमसिंह जाटों का नेतृत्व कर रहा था। चूंकि जाटों की गतिविधियों का केन्द्र मुगलों की राजधानी आगरा से लेकर जयपुर राज्य की सीमा के बीच स्थित था। इसलिये जयपुर नरेश ही जाटों के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही में अधिक सफल हो सकता था। अतः 1722 ई. में जयसिंह को पुनः जाटों का दमन करने का काम सौंपा गया। जयसिंह को अकेले ही इस अभियान की पूरी जिम्मेदारी सौंपी गई तथा उसे आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया ताकि वह जाटों के प्रभाव वाले पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण कर सके। जयसिंह अपने 14 हजार सैनिकों को साथ लेकर जाटों के विरुद्ध अभियान पर चल पड़ा। जयसिंह ने थूण पहुंचकर मोहकमसिंह को दुर्ग के भीतर घुस जाने पर विवश कर दिया तथा फिर तेजी से दुर्ग के चारों ओर का जंगल काटकर अपनी सेनाओं को दुर्ग के इतने निकट पहुंचा दिया कि दुर्ग की दीवारें तोपों की प्रहार सीमा में आ जायें। तीन सप्ताह तक जाटों ने जयसिंह का सामना किया। वे रात्रि में जयसिंह की सेनाओं पर आक्रमण करते और भाग जाते।
चूड़ामन का भतीजा बदनसिंह, मोहकमसिंह से नाराज चल रहा था क्योंकि मोहकमसिंह धोखेबाज व्यक्ति था और उसने चूड़ामन की सम्पत्ति में से बदनसिंह को फूटी कौड़ी भी नहीं दी थी। इसलिये बदनसिंह ने जयसिंह से सम्पर्क किया तथा मोहकमसिंह की रणनीतिक कमजोरियां बताकर दो बाहरी दुर्गों- सोहगर और सांसनी पर जयसिंह का अधिकार करवा दिया। इस बीच मोहकमसिंह ने जोधपुर से भाड़े की सेना बुलवाई। जोधुपर का सेनापति विजयराज भण्डारी 23 अक्टूबर 1722 को जोबनेर पहुंच गया। इसलिये जयसिंह ने थूण पर दबाव बढ़ा दिया। मोहकमसिंह ने निराश होकर 7-8 नवम्बर 1722 की रात्रि में दुर्ग के भीतर बारूद में आग लगा दी और सारा खजाना लेकर भाग गया।
बदनसिंह के माध्यम से जयसिंह को इस बात का पता लग गया कि आज रात में मोहकमसिंह दुर्ग के भीतर बारूद में आग लगायेगा। अतः महाराजा जयसिंह, अपनी सेना लेकर थूण गढ़ से दूर चला गया। इस कारण उसके तथा उसके सैनिकों के प्राण बच गये। इस घटना के बाद जयसिंह, बदनसिंह का मित्र बन गया। जयसिंह ने विद्रोही जाटों के कई गढ़ तथा गढ़ी नष्ट कर दिये तथा थूण दुर्ग में गधों से हल चलवाया। मोहकमसिंह जोधपुर की तरफ चला गया और जाटों के उपद्रव शान्त हो गये। बदनसिंह को जाटों का नेता मान लिया गया और उसे ‘राजा’ की पदवी दी गई।
जाट राज्य की स्थापना
थूण दुर्ग पर विजय प्राप्त करके सवाई जयसिंह ने 2 दिसम्बर 1722 के दिन बदनसिंह के सिर पर सरदारी की पाग बांधी तथा राजाओं की भांति उसका तिलक किया। जयसिंह ने बदनसिंह को पांच परिधानों के साथ पचरंगी निसान देकर ठाकुर के पद से सम्मानित किया। इस प्रकार बदनसिंह कच्छवाहों का खिदमती जागीरदार बन गया। बदनसिंह को डीग का राजा घोषित किया गया तथा ब्रजराज की उपाधि दी गई। उसकी तरफ से दिल्ली के बादशाह को दिया जाने वाला वार्षिक कर निर्धारित कर दिया गया। इस प्रकार 1722 ई. में जयसिंह के प्रयत्नों से भरतपुर नामक नवीन रियासत का गठन हुआ। बदनसिंह विनम्र तथा विश्वसनीय व्यक्ति था इस कारण वह एक बड़े राज्य की स्थापना कर सका तथा राजा का पद पा सका। वह इतना विनम्र था कि उसने कभी स्वयं को राजा नहीं कहा। वह सदैव स्वयं को जयसिंह का सामंत मानता रहा और अपने लिये ठाकुर शब्द का प्रयोग करता रहा। उस युग में जब समस्त शक्तियां एक दूसरे को निगल जाने की होड़ में थीं, सवाई जयसिंह जैसा वीर राजा ही इतनी बड़ी सोच रख सकता था कि जाटों को अखिल भारतीय स्तर पर एक राज्य के रूप में संगठित होने का अवसर दे ताकि वे उत्तर भारत की राजनीति में मुख्य धारा के अंग बन सकें।
जयसिंह को राजराजेश्वर की उपाधि
बादशाह मुहम्मदशाह ने राजा जयसिंह की उपलब्धियों से प्रसन्न होकर 2 जून 1723 को उसे ‘राजराजेश्वर श्री राजाधिराज महाराजा सवाई जयसिंह’ की उपाधि से सम्मानित किया। तब से जयसिंह के उत्तराधिकारी शासक स्वयं के नाम के आगे सवाई शब्द लिखने लगे।
बूंदी की राजनीति में हस्तक्षेप
महाराव बुद्धसिंह की दो बार सहायता
बूंदी का राज्य, जयपुर राज्य की दक्षिण-पूर्वी सीमा पर स्थित था। बूंदी का राजा बुद्धसिंह, सवाई जयसिंह का बहनोई था। जहांदारशाह और फर्रूखसीयर के झगड़े में बूंदी के राजा ने जहांदार शाह का साथ दिया। इसलिये जब फर्रूखसीयर बादशाह बना तो 12 दिसम्बर 1713 को उसने बूंदी का राज्य जब्त करके कोटा के महाराव को दे दिया। इस पर बुद्धसिंह ने सवाई जयसिंह से अनुरोध किया कि उसका राज्य वापस दिलवाये। जयसिंह ने फर्रूखसीयर से कहकर बुद्धसिंह को बूंदी का राज्य वापस दिलवा दिया तथा जयसिंह ने अपने मंत्री साहू मोहनदास को बूंदी का प्रशासक बना दिया। 1719 ई. में कोटा के महाराव ने पुनः बूंदी पर आक्रमण करके बूंदी राज्य पर अधिकार कर लिया तथा जयसिंह के मंत्री साहू मोहनदास के स्थान पर धाभाई भगवानदास को बूंदी का प्रशासक नियुक्त कर दिया। बूंदी के महाराव बुद्धसिंह ने फिर से जयसिंह के पास गुहार लगाई। भाग्यवश 1720 में कोटा महाराव भीमसिंह की मृत्यु हो गई तथा कोटा और बूंदी का झगड़ा भी समाप्त हो गया। जयसिंह ने बुद्धसिंह को फिर से बूंदी की गद्दी पर बैठा दिया।
जयसिंह की महत्त्वाकांक्षा
मुहम्मदशाह के समय में मुगल सल्तनत का शिकंजा ढीला होने लगा। इससे मुगल सूबेदार अपने-अपने नये राज्य स्थापित करने लगे। सवाई जयसिंह की महत्त्वाकांक्षाएं भी बढ़ने लगीं। अब वह अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने के साथ-साथ सम्पूर्ण राजपूताने में अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था। इसलिए उसने मालवा की सूबेदारी से लाभ उठाकर दक्षिणी-पूर्वी राजपूताने को अपने नियन्त्रण में लाने का प्रयास किया। उसकी दृष्टि बूंदी पर टिक गई।
बूंदी राज परिवार में गृह कलह
बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी अमर कुंवरि के पेट से 30 जुलाई 1719 को एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम भवानीसिंह रखा गया। अमर कुंवरि राजा जयसिंह की सौतेली बहिन थी। जयसिंह का छोटा भाई विजयसिंह तथा अमर कुंवर एक ही माँ के पेट से उत्पन्न हुए थे। भवानीसिंह जब आठ साल का हुआ तो उसके लिये मेवाड़ की राजकुमारी से वैववाहिक सम्बन्ध की बात चली। इस पर बूंदी के महाराव बुद्धसिंह ने मेवाड़ के महाराणा से कहा कि भवानीसिंह मेरा पुत्र नहीं है। जयसिंह ने क्रोधित होकर बुद्धसिंह से पूछा कि यदि ऐसी बात थी तो बुद्धसिंह ने भवानीसिंह को उसके बचपन में ही क्यों नहीं मार डाला। अवश्य ही वह झूठ बोल रहा है क्योंकि वह अपनी चूण्डावत रानी के पुत्र उम्मेदसिंह को बूंदी का राजा बनाना चाहता है। जयसिंह ने यह भी आरोप लगाया कि बुद्धसिंह, कच्छवाही रानी के पुत्र को इसलिये राजा नहीं बनाना चाहता कि बुद्धसिंह वाममार्गी है तथा कच्छवाही रानी वैष्णव धर्म में विश्वास करती है। इस पर बुद्धसिंह ने कहा कि कच्छवाही रानी कभी मेरे बिस्तर पर आई ही नहीं। इसलिये भवानीसिंह मेरा पुत्र कैसे हो सकता है। इस पर भी जयसिंह को बुद्धसिंह पर विश्वास नहीं हुआ। उसने बुद्धसिंह से कहा कि यदि ऐसी बात है तो वह भवानीसिंह को अब मार डाले। बुद्धसिंह ने जयसिंह की बात स्वीकार कर ली तथा जयसिंह के कहने पर यह भी लिखकर दे दिया कि वह अपनी किसी भी रानी के पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनायेगा तथा महाराजा जयसिंह जिसे कहेगा, उसे गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देगा।
इस प्रकार भवानीसिंह का विवाह टल गया। जब जयसिंह उदयपुर से बूंदी आया तो बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी ने अपने भाई जयसिंह से पूछा कि भवानीसिंह का सम्बन्ध मेवाड़ से क्यों नहीं हुआ? जयसिंह ने अपनी बहन से नाराज होकर कहा कि तेरा पति तेरे चरित्र पर लांछन लगा रहा है, ऐसी स्थिति में यह विवाह कैसे हो सकता है! इस उत्तर से अमर कुंवर इतनी क्रुद्ध हुई कि उसने जयसिंह की कमर में से कटार निकाल ली। इस पर जयसिंह अमर कुंवर को धक्का देकर कक्ष से बाहर निकल गया तथा उसने कक्ष का द्वार बाहर से बंद कर दिया। अमर कुंवर पीछे के रास्ते से महल से बाहर निकल गई।
बुद्धसिंह की राज्यच्युति
बुद्धसिंह ने जयसिंह को दिये अपने वचन के अनुसार, एक दिन एक पहाड़ी दुर्ग में भवानीसिंह को मार डाला। जयसिंह जानता था कि बुद्धसिंह झूठ बोल रहा था कि भवानीसिंह उसका पुत्र नहीं था। केवल अपनी बात सही ठहराने के लिये उसने भवानीसिंह को मार डाला था। इसलिये अब जयसिंह ने बुद्धसिंह को सिंहासनाच्युत करने का निश्चय किया। जयसिंह ने बादशाह मुहम्मदशाह को लिख भेजा कि यह नशेड़ी राजा अब न तो अपने शाही मनसब को निभा सकता है और न बूंदी को संभाल सकता है। अब उसके कोई वैध संतान भी नहीं है क्योंकि उसका इकलौता वैध पुत्र पदमसिंह एक बीमारी से मर चुका है और बूंदी का काम जयपुर का एक प्रतिनिधि कर रहा है। इस पर मोहम्मदशाह ने जयसिंह के कहने पर करवर के जागीरदार सालिमसिंह के पुत्र दलेलसिंह को बूंदी का राजा बनाने की सहमति दे दी। बुद्धसिंह ने पहले तो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किंतु जब 1729 ई. में बुद्धसिंह की चूण्डावत रानी के पेट से एक पुत्र उत्पन्न हुआ तो बुद्धसिंह ने उसी को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहा। इसका नाम उम्मेदसिंह रखा गया। बुद्धसिंह ने एक चाल चली, उसने सवाई जयसिंह के छोटे भाई बिजयसिंह को, जो कि 1713 ई. से बंदीगृह में था, मुक्त करके जयपुर की गद्दी पर बैठाने की योजना बनाई। जब जयसिंह को इस योजना की जानकारी हुई तो जयसिंह ने विजयसिंह की हत्या करवा दी। इसके बाद सेना भेजकर बूंदी के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा दलेलसिंह को बूंदी की गद्दी पर बैठा दिया। उस समय बुद्धसिंह बूंदी में नहीं था। इस प्रकार बुद्धसिंह को अपने पैतृक राज्य से वंचित हो जाना पड़ा। बूंदी का नया शासक, सवाई जयसिंह पर आश्रित होकर उसके सामन्तों की श्रेणी में आ गया।
बुद्धसिंह द्वारा राज्य प्राप्त करने का प्रयास
1729 ई. के अन्त में जब जयसिंह आमेर से मालवा चला गया, तब बुद्धसिंह ने अपने खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए 15,000 सैनिकों के साथ बूंदी पर आक्रमण किया। बूंदी की रक्षा के लिये जयपुर से सेना आ पहुँची। पंचोला नामक स्थान के पास दोनो पक्षों में जमकर युद्ध हुआ। बुद्धसिंह को पराजित होकर भागना पड़ा किंतु इस युद्ध में कच्छवाहों के कई बड़े सरदार मारे गये। इनमें सरसोप का फतहसिंह, ईसरदा का कोजूराम, सिवाड़ का श्यामलदास, बुद्धानी का बहादुरसिंह, रसोड़ का घासीराम तथा नरवर का खाण्डेराव भी सम्मिलित थे।
प्रतापसिंह तथा अमर कुंवर में सांठ-गांठ
बूंदी की राजनीति में हस्तक्षेप करके जयसिंह ने दो व्यक्तियों को अपना शत्रु बना लिया। पहला था, दलेलसिंह का बड़ा भाई प्रतापसिंह और दूसरी थी, जयसिंह की सौतेली बहिन अमर कुंवर। दलेलसिंह के बून्दी का राजा बन जाने से प्रतापसिंह के स्वाभिमान को गहरा धक्का लगा और उसने बुद्धसिंह का पक्ष लेने का निश्चय किया। अमर कुंवर ने अपने दूसरे पुत्र को बून्दी का राज्य दिलवाने का बीड़ा उठाया और प्रतापसिंह को मराठों की सहायता प्राप्त करने के लिए भेजा। इस सहायता के बदले में प्रतापसिंह ने होल्कर और सिन्धिया को 6 लाख रुपया देने का वचन दिया।
जयसिंह की पुत्री का दललेसिंह से विवाह
जिस समय बुद्धसिंह ने बूंदी पर आक्रमण किया उस समय जयसिंह उज्जैन में था। इस युद्ध की सूचना मिलते ही वह उज्जैन से बूंदी के लिये चल पड़ा। 19 मई 1730 को जयसिंह ने दलेलसिंह को पुनः गद्दी पर बैठाया और उसका विधिवत् राज्याभिषेक किया। फिर वह कुसथल पंचोलास गया और अपने मृत सरदारों के लिये छतरियां बनवाने और चारों ओर बगीचा लगाने का काम आरम्भ करवाकर अपनी राजधानी आम्बेर लौट आया। 1730 ई. में बुद्धसिंह की मृत्यु हो गई। दो वर्ष बाद 1732 ई. में जयसिंह ने अपनी पुत्री कृष्णा कुमारी का विवाह दलेलसिंह के साथ कर दिया।
दूसरी बार मालवा की सूबेदारी
मालवा की प्रथम सूबेदारी के बाद से सवाई जयसिंह उत्तर भारत में ही बना हुआ था। इस अवधि में मालवा की स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती चली गई और मराठों का आतंक बढ़ता चला गया। 1728 ई. में पेशवा बाजीराव ने पालखेद नामक स्थान पर निजाम को चारों ओर से घेरकर सन्धि करने के लिये विवश कर दिया। इस सन्धि से मराठों को बरार और खानदेश होकर, उत्तर की ओर जाने का मार्ग मिल गया। उधर मालवा के सूबेदार गिरधर बहादुर और उसके भाई दया बहादुर ने मराठों का डटकर सामना किया परन्तु नवम्बर 1728 में अमझेरा के निकट हुए युद्ध में गिरधर बहादुर अपने अनेक बंधु-बांधवों सहित मारा गया। इस विजय से मराठों को मालवा में लूट-खसोट करने का अवसर मिल गया। मराठों ने मालवा के दक्षिणी भाग में अपनी छावनियाँ जमा लीं, जहाँ से वे मालवा में घुसकर लूट-खसोट करते थे।
ऐसी विकट परिस्थिति में अक्टूबर 1729 में मुहम्मदशाह ने सवाई जयसिंह को दूसरी बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया। जयसिंह मालवा की विषम स्थिति से परिचित था। वह इस समस्या को सैनिक शक्ति से हल करने के पक्ष में नहीं था। उसने मराठों व मुगल सरकार के बीच एक ऐसे समझौते का प्रयास किया जो मराठा आकांक्षाओं की पूर्ति के साथ-साथ मुगल बादशाह के सार्वभौमिक अधिकार की रक्षा भी कर सके। जयसिंह चाहता था कि शाहू के दत्तक पुत्र कुशलसिंह को, मालवा में मराठा आक्रमण को तुरन्त रोकने की शर्त पर, दस लाख रुपये वार्षिक आय की जागीर दे दी जाये। यद्यपि यह प्रस्ताव पेशवा बाजीराव की उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की नीति के विरुद्ध था, फिर भी शाहू ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
जयसिंह ने बादशाह के पास प्रस्ताव भिजवाया कि मराठों को मालवा और गुजरात की चौथ के बदले क्रमशः 11 लाख और 15 लाख रुपये वार्षिक दे दिये जायें। यह राशि, युद्ध में व्यय होने वाली राशि से बहुत कम थी। बादशाह ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तथा इस आशय की चिट्ठी जयसिंह को भिजवा दी। जयसिंह और मराठों के बीच समझौते की बात अन्तिम दौर में थी कि मुगल दरबार में कमरूद्दीन खाँ, सादत खाँ और निजामुउल्मुल्क आदि स्वार्थी अमीरों ने बादशाह का मन फेर कर समझौते के प्रस्ताव को रद्द करवा दिया। बादशाह मुहम्मदशाह ने जयसिंह पर काहिली और दगाबाजी का आरोप लगाते हुए सितम्बर 1730 में जयसिंह को मालवा से वापिस बुला लिया और उसके स्थान पर मुहम्मद बंगश को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया। इस प्रकार मालवा की दूसरी सूबेदारी में जयसिंह मुगल दरबार के षड़यंत्रों का शिकार हो गया और उसे कोई सफलता नहीं मिली।
तीसरी बार मालवा की सूबेदारी
मालवा के नये सूबेदार मुहम्मद बंगश को भी मराठों के विरुद्ध कोई सफलता नहीं मिली। जिस प्रकार 1729 ई. में बुन्देलखण्ड में उसे मराठों से परास्त होना पड़ा था, ठीक वैसे ही अब मालवा में भी उसे मराठों से पराजित होना पड़ा। परिणामस्वरूप 1732 ई. में उसे वापस बुला लिया गया और सवाई जयसिंह को तीसरी बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। जयसिंह ने मराठों को मालवा में रोकने के लिये मेवाड़ राज्य से भी सैनिक सहयोग लेने का निश्चय किया। इस सम्बन्ध में दोनों शक्तियों के बीच एक समझौता भी हुआ। इस समझौते के अनुसार इस अभियान के लिये मेवाड़ राज्य 9 हजार घुड़सवार तथा 9 हजार पैदल सिपाही और जयपुर राज्य 15 हजार घुड़सवार और 15 हजार पैदल सैनिक देगा। मालवा से मिलने वाली मालगुजारी और पेशकश से होने वाली आय का एक तिहाई हिस्सा मेवाड़ को तथा दो तिहाई हिस्सा जयपुर को मिलेगा। मनसबदारों से इजारे पर लिए हुए परगनों की आय में से इजारे की रकम चुकाने के बाद इसी प्रकार एक तिहाई और दो तिहाई का बंटवारा होगा। जयपुर की सेना की तरह मेवाड़ की सेना भी अपने लिए खाद्य सामग्री और पशुओं के लिये दाना स्वयं जुटायेगी।
मेवाड़ से संधि करने के बाद सवाई जयसिंह, जयपुर से चलकर दिसम्बर 1732 में मालवा पहुंचा। जनवरी 1733 में गुजरात की तरफ से मल्हारराव होल्कर और राणाजी सिन्धिया ने मालवा में प्रवेश किया। आनन्दराव पवार और विठोजी बुले वहाँ पहले से ही मौजूद थे। ऊदाजी पवार भी इन लोगों से आ मिला। मराठों की इन सेनाओं में छापामार घुड़सवारों की संख्या अत्यधिक थी। इन सेनाओं ने जयसिंह को मंदसौर के निकट, चारों तरफ से घेर लिया। मेवाड़ से हुई संधि के अनुसार जो घुड़सवार और पैदल सैनिक मराठों के विरुद्ध भेजे जाने थे, वे अब तक नहीं आये थे इसलिये जयसिंह को विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। उसने मराठों को 6 लाख रुपये नकद देने का प्रस्ताव दिया।
अभी यह वार्ता चल ही रही थी कि सूचना मिली कि बादशाह स्वयं मराठों से लड़ने युद्ध क्षेत्र में आ रहा है। इस पर दोनों पक्षों में युद्ध आरम्भ हो गया। होल्कर ने जयसिंह की सुरक्षा पंक्ति के सेनानायक को मार डाला और युद्ध का मोर्चा छोड़कर 30 मील पीछे भाग गया। जयसिंह ने 16 मील तक उसका पीछा किया किंतु होल्कर ने अचानक पीछे पलट कर वार किया और जयसिंह को घुटने टेकने पर विवश कर दिया। जयसिंह ने होल्कर को 6 लाख रुपये मुआवजा राशि देना स्वीकार कर लिया तथा मुआवजा राशि के बदले में मालवा के 28 परगने होल्कर को सौंप दिये। यह मराठों की बड़ी जीत थी। इसके बाद 18 मार्च 1733 को मराठों ने मालवा छोड़ दिया। इस घटना के बाद सवाई जयसिंह भी अपनी राजधानी लौट आया क्योंकि राजपूताना में उसकी उपस्थिति अधिक आवश्यक हो गई थी। जयसिंह के बाद निजामुल्मुल्क आसिफजाह को मालवा की सूबेदारी दी गई। इस प्रकार मालवा की तीसरी सूबेदारी में भी जयसिंह विशेष सफल नहीं हुआ।
हुरडा सम्मेलन
मालवा, गुजरात और बुन्देलखण्ड में मराठों की प्रगति को रोकने में मुगल बादशाह की असफलता तथा बूंदी के मामले में मराठों के हस्तक्षेप ने राजस्थान के राजाओं में बेचैनी उत्पन्न कर दी। उन्होंने अनुभव किया कि यदि उन्होंने संगठित होकर मराठों को रोकने का प्रयास नहीं किया तो उनके राज्यों की भी वही दशा हो जायेगी जो मालवा और गुजरात की हुई है। अतः मराठों का सफलतापूर्वक सामना कर सकने के लिये उपाय सोचने हेतु सवाई जयसिंह ने लगभग समस्त प्रमुख राजपूत राजाओं को हुरडा नामक स्थान (उत्तरी मेवाड़ में अजमेर की सीमा के निकट) पर एकत्रित होने के लिये आमंत्रित किया। 16 जुलाई 1734 को हुरड़ा सम्मेलन आरम्भ हुआ। मेवाड़ के नये महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में सवाई जयसिंह, जोधपुर नरेश अभयसिंह, नागौर का बख्तसिंह, बीकानेर महाराजा जोरावरसिंह, कोटा का दुर्जनसाल, बूंदी का दलेलसिंह, करौली का गोपालदास, किशनगढ़ का राजसिंह आदि कई शासक सम्मिलित हुए। दीर्घ विचार-विमर्श के बाद 17 जुलाई 1734 को सम्मेलन में उपस्थित सभी राजाओं ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते में समस्त राजाओं ने भविष्य में एकता बनाये रखने, एक दूसरे की प्रतिष्ठा का सम्मान करने, एक राज्य के विद्रोही को दूसरे राज्य द्वारा शरण न देने और वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरुद्ध ठोस कार्यवाही करने का संकल्प व्यक्त किया। समस्त शासकों ने मराठों के विरुद्ध ठोस कार्यवाही करने हेतु अपनी सेनाओं सहित वर्षा ऋतु के बाद रामपुरा में एकत्रित होने का निर्णय लिया।
हुरडा सम्मेलन में राजपूत राजाओं द्वारा एक स्थान पर बैठकर विचार करना तथा मराठों का संयुक्त रूप से सामना करने का निर्णय लेना, एक महत्त्वपूर्ण बात थी परन्तु दुर्भाग्वश किसी भी निर्णय को कार्यान्वित करने के लिये कुछ भी नहीं किया गया। कोई भी राजपूत शासक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने को तैयार नही था। सवाई जयसिंह, महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) और जोधपुर नरेश अभयसिंह, इन तीन प्रमुख राजाओं में भी एक दूसरे के प्रति सद्भावना का अभाव था। अतः 1734 ई. की वर्षा ऋतु के बाद राजपूत राजाओं ने रामपुरा में एकत्र होने की बजाय मुगल बादशाह द्वारा मराठों के विरुद्ध आयोजित अभियान में सम्मिलित होना अधिक श्रेयस्कर समझा।
मराठों के विरुद्ध विशाल अभियान
मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा अब पूरी तरह दांव पर लग चुकी थी। यदि मराठों के विरुद्ध कोई बड़ी कार्यवाही नहीं की जाती तो मराठे, निश्चित रूप से मुगल सल्तनत को बड़ी क्षति पहुंचाने वाले थे। इसलिये नवम्बर 1734 में वजीर कमरूद्दीन के नेतृत्व में एक विशाल सेना मालवा भेजी गई। दूसरी शाही सेना मीरबख्शी खाने दौरां के नेतृत्व में राजपूताने की ओर भेजी गई ताकि मराठों को वहाँ से भगाया जा सके। मार्ग में जयसिंह भी अपनी सेना लेकर मीरबख्शी से आ मिला। जोधपुर का राजा अभयसिंह तथा कोटा का राजा दुर्जनसाल भी इस सेना से आ मिले। इस कारण मुगल सेना अत्यंत विशाल दिखाई देने लगी। इस सेना में अगणित सैनिकों के साथ गोला-बारूद की असंख्य गाड़ियां भी थीं। जब यह लश्कर मुकुंद दर्रा पार करके रामपुरा क्षेत्र में पहुंचा तो फरवरी 1735 के आरम्भ में उसका सामना होल्कर और सिंधिया की सेनाओं से हुआ। शाही सेना पूरी तरह असंगठित थी। खानेदौरां अनुभवहीन, कायर और अयोग्य सेनापति था। मल्हार राव होल्कर तथा राणोजी सिंधिया के छापामार घुड़सवारों ने खानेदौरां को घेर लिया। आठ दिन तक खानेदौरां मराठों की घेराबंदी में रहा। इस बीच मराठों द्वारा मुगलों की रसद पंक्ति तोड़कर लूट ली गई।
बूंदी पर मराठों का आक्रमण
एक ओर तो मराठे खानेदौरां को घेर कर खड़े हो गये और दूसरी ओर उन्होंने भयानक चाल चली। उन्हें ज्ञात था कि कोटा, बूंदी, जयपुर और जोधपुर राज्यों की समस्त सेनाएं इस समय खानेदौरां के साथ हैं तथा वे राज्य पूरी तरह असुरक्षित हैं। इसलिये मराठों की सेनाएं इन राज्यों के लिये रवाना हो गईं। अप्रैल 1734 में मल्हारराव होल्कर और राणोजी सिन्धिया ने बूंदी पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया तथा बुद्धसिंह के पुत्र उम्मेदसिंह को बूंदी की गद्दी पर बैठा दिया। इस अवसर पर कच्छवाही रानी ने मल्हारराव होल्कर को राखी बांधी।
कोटा, जयपुर और जोधपुर पर मराठों के आक्रमण
बूंदी के साथ-साथ मराठे तेजी से कोटा, जयपुर और जोधपुर राज्यों में जा घुसे जिनकी सुरक्षा का इस समय कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था। 18 फरवरी 1735 को सांभर में भारी लूट हुई। सांभर में मुगलों की ओर से फौजदार नियुक्त था। मराठों ने उसकी अतुल सम्पत्ति लूट कर उसे खाली हाथ कर दिया। सांभर का काजी अपनी औरतों का कत्ल करके, मराठों से लड़ने के लिये आया और घायल होकर धरती पर गिर पड़ा। मराठों की इस चाल से सभी राजपूत शासक खानेदौरां का साथ छोड़कर, अपने राज्यों को लौट गये। अन्त में सवाई जयसिंह की मध्यस्थता से खानेदौरां और मराठों में समझौता हुआ जिसके अनुसार खानेदौरां ने बादशाह की ओर से मालवा की चौथ के रूप में 22 लाख रुपये मराठों को देना स्वीकार किया।
बूंदी पर जयसिंह का अभियान
मराठों के बूंदी से लौटते ही सवाई जयसिंह ने 20,000 सैनिकों को बूंदी पर आक्रमण करने के लिये भेजा। इस सेना ने बूंदी पर अधिकार कर उम्मेदसिंह को हटा दिया तथा दलेल सिंह को पुनः बूंदी का शासक बना दिया। प्रतापसिंह बूंदी से भागकर पुनः मराठों से सहायता प्राप्त करने गया परन्तु पेशवा ने जयसिंह को नाराज न करने का निर्णय लिया तथा प्रतापसिंह को और सहायता देने से मना कर दिया।
जयसिंह के विरुद्ध कार्यवाही
मराठों के विरुद्ध इतना विशाल अभियान बुरी तरह विफल हो जाने तथा मराठों को 22 लाख की चौथ निर्धारित हो जाने पर दिल्ली दरबार में जयसिंह के विरुद्ध नये सिरे से षड़यंत्र रचा गया। दरबारियों ने जयसिंह के विरुद्ध बादशाह के कान भरे। अवध के नवाब सआदत खाँ ने बादशाह से कहा कि यदि मुझे आगरा और मालवा की सूबेदारी दे दी जाये तो मैं मराठों से मालवा को मुक्त करा लूंगा क्योंकि मेरा मित्र निजाम, मराठों को नर्मदा पार नहीं करने देगा। उसने जयसिंह तथा खानेदौरां पर आरोप लगाया कि उन्होंने मराठों से सांठ-गांठ कर ली है। सरबुलंद खाँ ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई। इस पर जयसिंह ने बादशाह को समझाया कि पेशवा से मित्रता रखकर उसे जागीर देने से वह मुगलों का अधीनस्थ सामंत हो जायेगा। पेशवा को या चीमाजी को दरबार में लाने का भी प्रयास किया जायेगा। बादशाह ने जयसिंह की एक भी बात नहीं सुनी। अगस्त 1735 में सवाई जयसिंह को मालवा की सूबेदारी से हटा दिया गया तथा वे दो प्रांत जो जयसिंह को लिखित आदेश द्वारा जीवन भर के लिये मिले थे, वे भी छीन लिये।
मराठों से सहयोग
जयसिंह की नीति में परिवर्तन
मुगल दरबार की ऐसी बुरी स्थिति देखकर जयसिंह ने अब अपनी नीति में परिवर्तन करने का विचार किया। वह समझ गया कि मुगल दरबार की राजनीति उसे कभी भी मराठों के विरुद्ध सफल नहीं होने देगी और यदि जयसिंह सफल हो भी गया तो भी उसे सफलता का पुरस्कार मिलने के स्थान पर मुगल बादशाह की ओर से दण्ड ही मिलेगा। इसलिये जयसिंह ने अब मुगल बादशाह के स्थान पर, मराठों के साथ सहयोग करने का निश्चय किया।
पेशवा बाजीराव को निमंत्रण
जयसिंह ने पेशवा बाजीराव को जयपुर बुलाने तथा जयपुर से दिल्ली ले जाकर बादशाह से मिलवाने का निश्चय किया। उसने पेशवा के पास अपना एक दूत भेजा तथा पेशवा को लिखा कि वह मराठों और मुगलों के बीच स्थायी शांति की स्थापना के लिये जयपुर आये। पेशवा 5000 सवारों को अपने साथ लेकर आये तथा मार्ग में किसी तरह की लूट-मार न करे। इस यात्रा के लिये जयसिंह पेशवा को 50 हजार रुपये प्रति दिन का भुगतान करेगा तथा पीलाजी यादव की जागीर भी उससे तय करके पेशवा को किराये पर दिलवा देगा। पेशवा को हर हालत में सुरक्षित लौटा लाने की जिम्मेदारी पर बादशाह से मिलवाने भी ले जाया जायेगा। बाजीराव ने सवाई जयसिंह का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और 9 अक्टूबर 1735 को सेना सहित पूना से रवाना होकर 15 जनवरी 1736 को डूंगरपुर तथा फरवरी 1736 में उदयपुर पहुंच गया। महाराणा ने पेशवा को डेढ़ लाख रुपये सालाना चौथ देने का वचन दिया। यहाँ से पेशवा ने अपने दूत महादेव भट हिंगाड़े को जयपुर भेजा जिसे राजामल अथवा राजा आया मल ने जयसिंह से मिलवाया। जयसिंह ने पेशवा को नगद और सम्पत्ति के रूप में 5 लाख रुपये देने स्वीकार कर लिये। राजामल स्वयं यह प्रस्ताव लेकर पेशवा के पास गया और पेशवा को जयपुर चलने के लिये कहा। स्थायी शांति की आशा में पेशवा ने राजपूताने में स्थित अपने सेनापतियों को लड़ाई बंद करके दक्षिण को लौट जाने के आदेश दिये तथा नाथद्वारा होते हुए जयपुर की ओर रवाना हुआ।
सवाई जयसिंह और पेशवा की भेंट
अजमेर से 30 मील पहले भमोला गांव में जयसिंह उससे मिला। वहाँ दो शिविर बनाये गये तथा दो शिविरों के बीच में भेंट के लिये एक अलग मण्डप बनाया गया जिसके दोनों तरफ सशस्त्र मराठे और राजपूत सैनिक नियुक्त किये गये। 25 फरवरी 1736 को दोनों सरदार अलग-अलग दिशाओं से भमोला पहुंचे और एक साथ हाथियों से उतरकर गले मिले। दोनों महानुभाव एक ही मसनद पर बैठे। बाजीराव पुरोहित कुल में उत्पन्न होते हुए भी राजसी शिष्टाचारों से अनभिज्ञ था। सुसभ्य और सुसंस्कृत सवाई जयसिंह ने अर्द्धसभ्य मराठा नेता की अशिष्टताओं को देखा किंतु अपने चेहरे पर असंतोष का कोई भाव नहीं आने दिया। इस शिष्टाचार भेंट के बाद कई दिनों तक दोनों में निरन्तर विचार विमर्श हुआ।
संधि के प्रयासों में विफलता
सवाई जयसिंह ने बादशाह मुहम्मदशाह को पेशवा की मांगों के बारे में सूचित कर दिया परन्तु बादशाह ने जयसिंह को लिखा कि जयसिंह को मालवा का नाममात्र का सूबेदार तथा पेशवा को नायब सूबेदार बनाकर मालवा, पेशवा को सौंप दिया जायेगा किंतु पेशवा की और कोई मांग नहीं मानी जायेगी। बादशाह की ओर से सन्तोषजनक उत्तर न आने पर पेशवा वापस पूना लौट गया। सवाई जयसिंह ने पेशवा और बादशाह के मध्य समझौता कराने का पूरा-पूरा प्रयास किया था परन्तु पेशवा की बढ़ती हुई मांगों, मुगल दरबार के षड़यंत्रों और बादशाह की ढुलमुल नीति के कारण कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।
जयसिंह की भविष्यवाणी और दिल्ली का मान-मर्दन
जयसिंह का विचार था कि जिन मराठों से औरंगजेब जैसे बादशाह को भी मुंह की खानी पड़ी थी, उन मराठों से मुहम्मदशाह जैसा कमजोर, निकम्मा और अदूरदर्शी बादशाह कैसे लड़ सकता था! एक न एक दिन मुगलों को मराठों के हाथों नीचा देखना पड़ेगा। जयसिंह की भविष्यवाणी के सत्य सिद्ध होने का समय आ गया था। 12 नवम्बर 1736 को पेशवा बीजाराव ने एक शक्तिशाली सेना के साथ पुनः पूना से उत्तर भारत के लिए प्रस्थान किया। वह मालवा, बुंदेलखण्ड तथा दो-आब में जाटों के प्रदेश में तेजी से निकलता हुआ दिल्ली के निकट जा पहुंचा। उसने दिल्ली में घुसकर कालकाजी को लूट लिया तथा ताल कटोरा पर शाही सेना को भयानक पराजय का स्वाद चखाया और फिर पलटकर राजपूताना की ओर चल दिया। 1737 ई. में जयसिंह ने मराठों से संधि कर ली और उन्हें कर देना स्वीकार कर लिया। निजामुल्मुल्क बादशाह की सहायता के लिये आगे बढ़ा। इस पर जनवरी 1738 में मराठों ने निजामुल्मुल्क को भोपाल के निकट घेर लिया तथा उसे अपमानजनक सन्धि स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। 7 जनवरी 1738 को हुई दुराहा संधि ने मुगल प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ा कर रख दीं। मालवा सदैव के लिये मुगलों के हाथ से निकलकर पेशवा के अधिकार में चला गया और चम्बल तथा नर्मदा के बीच के सम्पूर्ण प्रदेश पर मराठों का अधिकार हो गया। निजामुल्मुल्क ने युद्ध की क्षति पूर्ति के रूप में पेशवा को 50 लाख रुपये देने स्वीकार किये। इस काल में मराठे पूरी तरह उफान पर थे और विकराल जोंक बनकर पूरे उत्तरी भारत का रक्त चूस रहे थे।
नादिरशाह के आक्रमण के
समय जयसिंह की निष्क्रियता
1739 ई. में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और लगभग दो माह तक दिल्ली में लूट-खसोट तथा कत्ले आम मचाया। इस अवसर पर सवाई जयसिंह और मराठे, मुगलों की सहायता के लिये आगे नहीं आये।
जयसिंह और बालाजी बाजीराव
28 अप्रैल 1740 को पेशवा बीजाराव का देहान्त हो गया। उसके उत्तराधिकारी पेशवा बालाजी बाजीराव ने 1741 में उत्तर भारत पर अभियान किया। मार्च 1741 में वह ग्वालियर पहुंच गया। दिल्ली और ग्वालियर के बीच आगरा सूबा स्थित था जिसका सूबेदार जयसिंह था। जयसिंह ने बादशाह को लिख भेजा कि पेशवा से लड़ने के स्थान पर संधि करना अधिक उचित होगा। साथ ही जयसिंह ने 12 मई 1741 को धौलपुर में पेशवा से वार्त्ता करके एक समझौता किया। इस समझौते की मुख्य बातें इस प्रकार थीं-
1. पेशवा को मालवा तथा गुजरात की सूबेदारी दिलवा दी
जायेगी परन्तु उसे यह वचन देना होगा कि मराठे, मुगल साम्राज्य के अन्य सूबों में लूट-मार तथा उपद्रव नहीं करेंगे।
2. पेशवा को 500 मराठा सवार बादशाह की सेवा में रखने
होंगे। आवश्यकता पड़ने पर पेशवा को 4,000 सवार बादशाह की सहायता के लिए भेजने होंगे जिसका व्यय मुगल सरकार देगी।
3. पेशवा को चम्बल के पूर्व एवं दक्षिण के जमींदारों से नजर
व पेशकश लेने का अधिकार होगा।
4. पेशवा की तरफ से बादशाह का एक पत्र लिखा जायेगा
जिसमें बादशाह के प्रति निष्ठा और मुगल सेवा स्वीकार करने का उल्लेख किया जायेगा।
5. भविष्य में पेशवा तथा उसके सरदार बादशाह से धन
सम्बन्धी कोई मांग नहीं करेंगे।
सवाई जयसिंह की सलाह पर 4 जुलाई 1741 को बादशाह ने धौलपुर समझौते को स्वीकृति दे दी परन्तु पेशवा की धन-लिप्सा तथा मराठा सरदारों की लूट-खसोट की वृत्ति के कारण यह समझौता शीघ्र ही भंग हो गया।
जयसिंह की मराठा नीति का मूल्यांकन
मराठों के प्रति जयसिंह की कोमल नीति, जहाँ एक ओर समयानुकूल और व्यावारिक थी, वहीं जयसिंह की बढ़ती हुई महत्त्वकांक्षाओं की परिचायक भी थी। उसने मुगलों की केन्द्रीय सत्ता की निर्बलता को अनुभव कर लिया था। इसीलिए उसने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने तथा राजपूताना में ही नहीं अपितु उत्तरी भारत की राजनीति में भी अपना प्रभाव तथा नेतृत्व स्थापित करने का प्रयास किया। यही कारण है कि प्रारम्भ में उसने भी सैन्य शक्ति के बल पर मराठों को रोकने का प्रयास किया परन्तु जब उसने मराठों की वास्तविक शक्ति का अनुमान लगा लिया तो उसने अपनी नीति में परिवर्तन कर दिया। अब उसकी नीति का उद्देश्य मराठों और मुगल बादशाह में एक ऐसा समझौता कराने का था जिसके अन्तर्गत मराठे मुगल साम्राज्य के आधार स्तम्भ बन जायें और लूट-मार त्यागकर शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने में सहयोग करें। इस नीति के पीछे राजपूत राज्यों को मराठों की लूट-मार से बचाने की दृष्टि भी काम कर रही थी परन्तु जब बून्दी की समस्या को लेकर मराठों ने राजपूताना की राजनीति में हस्तक्षेप किया तो जयसिंह हैरान रह गया। उसने हुरडा सम्मेलन बुलवाया और समस्त राजपूत राजाओं से मराठों के विरुद्ध मिल-जुल कर कार्यवाही करने की अपील की परन्तु राजपूत राजाओं के आन्तरिक मतभेदों, क्षुद्र बुद्धि एवं व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण यह योजना कार्यान्वित न हो पाई।
हुरडा सम्मेलन की विफलता के बाद जयसिंह ने पेशवा बाजीराव और मुगल बादशाह के बीच समझौता कराने का प्रयास किया परन्तु पेशवा द्वारा अपनी माँगों को बढ़ा देने से समझौता नही हो पाया। बाजीराव की मृत्यु के बाद भी उसने समझौता कराने का प्रयास किया परन्तु मराठों की लूट-खसोट की वृत्ति और उत्तरदायित्व-विहीन आचरण के कारण समझौता नहीं हो पाया। भले ही जयसिंह को अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिली परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह पहला राजपूत शासक था जिसने मराठा आतंक और उसके विनाशकारी परिणामों का सही-सही अनुमान लगा लिया था और उसे टालने के लिये अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखी थी।