ई.1942 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और युद्ध में अंग्रेजों की हालत पतली होने लगी थी तब मित्र राष्ट्रों ने इंग्लैण्ड पर दबाव डाला कि वह भारत को तुरंत आजाद करे। इस पर अंग्रेज सरकार द्वारा क्रिप्स मिशन की नियुक्ति की गई ताकि भारत को आजादी देने की प्रक्रिया निर्धारित की जा सके।
क्रिप्स योजना से मेवाड़ की उदासीनता
11 मार्च 1942 को लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स में ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने क्रिप्स मिशन की नियुक्ति की घोषणा की। भारत पहुँचने से पहले क्रिप्स ने वायसराय को लिखा कि वे भारत में सभी प्रमुख दलों के नेताओं से मिलना चाहेंगे। 22 मार्च 1942 को सर स्टैफर्ड क्रिप्स दिल्ली पहुंचे। नरेंद्र मण्डल के प्रतिनिधि मण्डल के रूप में नवानगर, बीकानेर, पटियाला, भोपाल, सर वी. टी. कृष्णामाचारी, सर सी. पी. रामास्वामी अय्यर, नवाब छतारी, सर एम. एन. मेहता तथा मीर मकबूल मुहम्मद आदि ने कमीशन के समक्ष भारतीय नरेशों का पक्ष रखा।
एक ओर कांग्रेसी तथा मुस्लिम लीगी नेताओं ने तथा दूसरी ओर नरेन्द्र मण्डल के राजाओं ने इस येाजना में इतने प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिये कि क्रिप्श मिशन स्वतः विफल हो गया। मिशन के असफल हो जाने पर चर्चिल ने मित्र राष्ट्रों को सूचित किया कि कांग्रेस की मांगों को मानने का एक ही अर्थ होता कि हरिजनों तथा अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक हिंदुओं की दया पर छोड़ दिया जाता। अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को उसने समझा दिया कि भारतीय नेता परस्पर एकमत नहीं हैं। उदयपुर राज्य, क्रिप्स मिशन की कार्यवाहियों से लगभग अनुपस्थित रहकर सतर्क अवलोकन की मुद्रा में बना रहा।
मंत्रिमण्डल योजना (कैबीनेट मिशन प्लान) से उदयपुर की उदासीनता
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भारत की आजादी की मांग ने जोर पकड़ लिया जिसे अमरीका तथा रूस सहित विभिन्न देशों का समर्थन प्राप्त हो गया। अंतर्राष्ट्रीय दबावों एवं युद्ध में जर्जर हुए इंग्लैण्ड की आंतरिक दुर्दशा ने इंग्लैण्ड की सरकार को विवश कर दिया कि भारत की आजादी का मार्ग शीघ्रातिशीघ्र ढूंढा जाये। 19 फरवरी 1946 को ब्रिटिश सरकार ने भारत सचिव लार्ड पैथिक लारेन्स, व्यापार मण्डल के अध्यक्ष सर स्टैफर्ड क्रिप्स और फर्स्ट लॉर्ड आफ द एडमिरेल्टी ए. वी. अलैक्जेंडर की एक समिति बनाई जिसे कैबिनेट मिशन कहा जाता है।
15 मार्च 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री मि. एटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में घोषणा की कि लेबर सरकार, ब्रिटेन और हिन्दुस्तान तथा कांग्रेस और मुस्लिम लीग के गतिरोध को समाप्त करने का प्रयास करने के लिये एक कैबीनेट मिशन भारत भेज रही है। मुझे आशा है कि ब्रिटिश भारत तथा रियासती भारत के राजनीतिज्ञ, एक महान नीति के तहत, इन दो भिन्न प्रकार के अलग-अलग भागों को साथ-साथ लाने की समस्या का समाधान निकाल लेंगे। हमें देखना है कि भारतीय राज्य अपना उचित स्थान पायें। मैं एक क्षण के लिये भी इस बात पर विश्वास नहीं करता कि भारतीय राजा भारत के आगे बढ़ने के कार्य में बाधा बनने की इच्छा रखेंगे अपितु जैसा कि अन्य समस्याओं के मामले में हुआ है, भारतीय इस समस्या को भी स्वयं सुलझायेंगे।
अन्य राजाओं से विलग राजनीति
भारत के देशी राज्य, एक ओर तो ब्रिटिश सरकार को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये विपुल संसाधन सौंपकर, अंग्रेजों के प्रति अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते रहे थे तथा दूसरी ओर भारत संघ के निर्माण की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तावित क्रिप्स प्रस्ताव तथा कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में रुचि नहीं दिखा रहे थे जबकि मेवाड़ राज्य आरम्भ से राष्ट्रीय विचारधारा पर चल रहा था तथा अपनी स्वतंत्र प्रकृति के कारण कई बार ब्रिटिश राजसत्ता को नाराज कर चुका था।
क्रिप्स एवं कैबिनेट मिशन की कार्यवाहियों में जहाँ भारत के अन्य राज्य, अपने अधिकारों की रक्षा को लेकर अत्यंत उद्वेलित हो उठते थे, वहीं मेवाड़ राज्य उनकी गतिविधियों को सावधानी पूर्वक देखता रहता था। जयपुर, जोधपुर एवं बीकानेर के प्रतिनिधियों ने नरेंद्र मण्डल के माध्यम से क्रिप्स एवं कैबीनेट मिशन के साथ हुई वार्त्ताओं में भाग लिया किंतु उदयपुर दोनों ही बार लगभग अनुपस्थित दिखायी दिया।
भारत की स्वतंत्रता का आकांक्षी मेवाड़
भारती रे का आलकन है कि जयपुर एवं जोधपुर राज्य ब्रिटिश प्रधानमंत्रियों एवं पुलिस अधिकारियों के माध्यम से प्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण में थे तो उदयपुर राज्य भी ब्रिटिश साम्राज्य के हाथों की कठपुतली बना रहा। उदयपुर के सम्बन्ध में भारती रे का यह आकलन सही नहीं है। महाराणा ने लिनलिथगो के समय भारत संघ योजना में सम्मिलित होने के सम्बन्ध में जिस दृढ़ता का परिचय दिया था तथा राष्ट्रीयता के जिन उदात्त भावों का प्रदर्शन वह अब तक करता आ रहा था, वैसा करना भारत के किसी अन्य राजा के लिये संभव नहीं था।
पहले क्रिप्स मिशन में एवं बाद में कैबीनेट मिशन में उदयपुर की अनुपस्थिति का केवल इतना ही अर्थ लिया जाना चाहिये कि उदयपुर बेकार के बहस-मुसाहिबों में फंसने की बजाय वस्तु-स्थिति एवं अपने लक्ष्य पर दृष्टि केन्द्रित किये हुए था। वह भारत की स्वतंत्रता का आकांक्षी था तथा अपने किसी भी कृत्य से वह भारत की जनता को यह संदेश नहीं देना चाहता था कि मेवाड़ भी अन्य राजाओं की तरह भारत की स्वतंत्रता के मार्ग में रोड़े अटका रहा है।
जब मेवाड़ ने आठ सौ साल तक विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं से रक्त-रंजित संघर्ष किया तथा मुगलों की सत्ता को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया तब फिर मेवाड़, अंग्रेजों के भारत में बने रहने के किसी भी प्रयास को कैसे समर्थन दे सकता था!