Thursday, July 25, 2024
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प्रजामण्डल आंदोलन एवं राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति मेवाड़ का व्यवहार

बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में देशी रियासतों में आरम्भ हुआ प्रजामण्डल आंदोलन एक राष्ट्रीय घटना का हिस्सा था। महाराणा इस आंदोलन में दो विरोधी शक्तियों के बीच फंस गया। एक ओर उसकी अपनी प्रजा थी जो 1400 साल से महाराणाओं के प्रति निष्ठा रखती आई थी और महाराणा के पूर्वजों के हर सुख-दुःख में तन-मन-धन से महाराणाओं के साथ रही थी तो दूसरी ओर वह गोरी सरकार थी जिससे महाराणा के पूर्वजों ने ई.1818 में अधीनस्थ मैत्री की संधि कर रखी थी।

यद्यपि आधुनिक इतिहासकारों ने विशेषतः प्रजामण्डल का इतिहास लिखने वालों ने निरीह जनता तथा प्रजामण्डल नेताओं पर राज्याधिकारियों द्वारा किये गये अत्याचारों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा है तथापि घटनाक्रम स्पष्ट संकेत देते हैं कि महाराणा का अपनी प्रजा को मूक समर्थन सदैव बना रहा। मेवाड़ सरकार, प्रजामण्डल आंदोलन के विरुद्ध कानून तो बना रही थी किंतु उसकी क्रियान्विति अत्यंत हल्के हाथों से हुई।

पाशविकता का जो नंगा नाच रघुवर दयाल तथा अन्य नेताओं के साथ बीकानेर में खेला गया, प्रजामण्डल के नेताओं के साथ जो सख्तियां जयनारायण व्यास एवं द्वारिकादास पुरोहित आदि के साथ जोधपुर में हुईं, जैसी दर्दनाक मौत जैसलमेर राज्य में सागरमोल गोपा को दी गई, वैसी घटना अपवाद स्वरूप भी मेवाड़ राज्य में देखने को नहीं मिलती।

जयपुर रियासत में जो व्यवहार जमनालाल बजाज के साथ हुआ, वैसा व्यवहार मेवाड़ राज्य की पुलिस ने किसी आंदोलनकारी नेता के साथ नहीं किया। राज्य द्वारा जारी निषेधाज्ञा के बावजूद 24 सितम्बर 1938 को नाथद्वारा में जुलूस निकाला गया। स्थानीय पुलिस एवं सेना दोनों ही जुलूस को नहीं रोक पाईं क्योंकि वह भी जनता के साथ थी। विजयदशमी के दिन उदयपुर में सरकारी प्रतिबंधों की उपेक्षा करते हुए जुलूस निकाला गया जिसमें 3000 लोग उपस्थित थे और उन्होंने प्रजामण्डल की नीति का समर्थन किया। नाथद्वारा, भीलवाड़ा, जहाजपुर, चित्तौड़ आदि स्थानों में आमसभाएं हुईं।

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नाथद्वारा में आंदोलन ने विशाल और सामूहिक रूप ग्रहण किया। वहाँ नरेन्द्रपालसिंह तथा नारायण दास नामक केवल दो व्यक्तियों की गिरफ्तारी हुई। इस पर भी आंदोलनकारियों ने जब उग्र रूप धारण कर लिया तब मेवाड़ सरकार ने धारा 144 लगाकर 40 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। इस पूरे आंदोलन के दौरान 2 फरवरी 1939 को केवल एक अमानवीय घटना हुई जिसमें माणिक्यलाल वर्मा को मेवाड़ राज्य की सीमा पर घसीटकर मेवाड़ की सीमा में लाया गया तथा उन पर अत्याचार किया गया।

इसके बाद मेवाड़ पुलिस के रवैये में सख्ती आई किंतु अमानुषिक अत्याचार का वह रूप कभी नहीं देखा गया जो बीकानेर, जयपुर, जैसलमेर एवं जोधपुर आदि रियासतों में देखा गया था। जयपुर राज्य के शेखावाटी क्षेत्र में तो आंदोलनकारियों पर पुलिस द्वारा ढाये गये कहर एवं अमानवीयता के सारे रिकॉर्ड छोटे पड़ गये थे।

भारत छोड़ो आंदोलन में मेवाड़ सरकार का संयम

ई.1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ भारतीय जनता में घटित हुई स्वतः स्फूर्त घटना थी जिसे अगस्त क्रांति भी कहा जाता है। यद्यपि अंग्रेज सरकार यह मानती थी कि यह आंदोलन कांग्रेस द्वारा चलाया गया था किंतु गांधीजी समेत समस्त बड़े नेताओं ने इस आंदोलन से कांग्रेस का सम्बन्ध होने से इन्कार किया। यह जानना रोचक होगा कि 8 अगस्त 1942 को बम्बई में आयोजित अखिल भाारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में गांधीजी ने ‘नाउ ऑर नेवर’ तथा ‘करो या मरो’ जैसे नारे दिये। इन नारों की भाषा उत्तेजक थी तथा इनमें अहिंसात्मकता की सुगंध मौजूद नहीं थी। इन उत्तेजक नारों की पृष्ठभूमि में अंग्रेजी सत्ता का भय कम था तथा सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज को पूर्वी बंगाल में मिल रही विजयों का भय अधिक काम कर रहा था।

कांग्रेस को लगने लगा था कि सुभाषचंद्र बोस के विमान किसी भी दिन दिल्ली में उतरकर लाल किले और वायसराय के महल पर तिरंगा फहरा देंगे और कांग्रेस, आजाद भारत की सत्ता से वंचित रह जायेगी। यही कारण था कि गांधीजी के करो या मरो नारे ने ब्रिटिश भारतीय प्रांतों में स्वतःस्फूर्त आंदोलन का रूप ले लिया जो कि व्यापक रूप से हिंसक था। भारत छोड़ो आंदोलन का देशी रियासतों में न्यूनतम प्रभाव था। रघुबीरिसिंह ने लिखा है- ‘राजपूताने में उदयपुर और कोटा शहरों के अतिरिक्त सर्वत्र पूर्ण शांति रही।

उदयपुर प्रजामण्डल के नेता माणिक्यलाल वर्मा ने 8 अगस्त 1942 के कांग्रेस अधिवेशन से लौटने के बाद 20 अगस्त 1942 को महाराणा को एक पत्र भेजकर चेतावनी दी कि यदि वे 24 घण्टे में ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध विच्छेद नहीं करते हैं तो जन-आंदोलन किया जायेगा। उसी दिन शाम को एक विशाल आमसभा का आयोजन किया गया जिसमें हजारों मनुष्य एकत्रित हुए। जब जुलूस के आयोजकों की गिरफ्तारियां हुईं तो उनके विरोध में मेवाड़ के इतिहास का सबसे बड़ा जुलूस निकाला गया।

मेवाड़ सरकार ने 23 अगस्त 1942 को जुलूस आदि पर प्रतिबंध लगा दिया। अगले दिन उदयपुर में सार्वजनिक हड़ताल हुई जिसमें दुकानदारों, ठेले और खोमचे वालों तथा तांगेवालों ने भी भाग लिया। बहुत बड़ी संख्या में सत्याग्रही गिरफ्तार किये गये। माणिक्यलाल वर्मा को उग्र आंदोलन से रोकने के लिये राज्य की तरफ से समझाने का प्रयास किया गया किंतु माणिक्यलाल वर्मा नहीं माने।

महाराणा भूपालसिंह ने ग्वालियर से प्रजामण्डल कार्यकर्ताओं को उदयपुर बुलाकर माणिक्यलाल वर्मा को समझाने के लिये कहा किंतु उनके समझाने पर भी माणिक्यलाल वर्मा ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। इस पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को उदयपुर बुलाया गया। उन्होंने 7 मार्च 1942 को माणिक्यलाल वर्मा को समझाने का प्रयास किया। राजगोपालाचारी ने वर्मा को यहाँ तक आश्वासन दिया कि यदि वे महाराणा को दिया गया अल्टीमेटम वापिस ले लें तो महाराणा, उदयपुर में उत्तरदायी शासन की स्थापना कर देंगे किंतु वर्मा ने इस बात को भी स्वीकार नहीं किया।

इस पर राज्य के प्रधानमंत्री सर टी. विजयराघवाचार्य ने प्रजामण्डल के अन्य नेताओं को समझाने का प्रयास किया किंतु प्रजामण्डल के नेताओं ने आंदोलन जारी रखा। प्रजामण्डल द्वारा अपनाये गये इस अड़ियल रवैये पर भी सरकार की ओर से अमानवीय सख्ती देखने को नहीं मिली। मेवाड़ राज्य में पुलिस तथा प्रशासन की ओर से बरता गया संयम निःसंदेह महाराणा के धैर्य एवं राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम के प्रति सहानुभूति का परिचायक था।

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