Monday, March 10, 2025
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मारवाड़ राज्य का विस्तार

मेहरानगढ़ की स्थापना के बाद राव जोधा ने मारवाड़ राज्य का विस्तार करने का निश्चय किया। इस समय थार मरुस्थल में तीन बड़ी शक्तियां मौजूद थीं जिन्हें परास्त करके जोधा अपने राज्य का विस्तार कर सकता था।

इस काल में थार मरुस्थल की तीन बड़ी शक्तियों में से पहले थे- मुसलमान जागीरदार, दूसरे थे- राठौड़ों की अन्य शाखाओं के राजपूत तथा तीसरे थे- भाटी, चौहान, परमार आदि वंशों के राजपूत जागीरदार। वस्तुतः ये जागीरदार भी नहीं थे, स्वतंत्र अथवा अर्द्धस्वतंत्र शासक थे किंतु उनकी सामरिक शक्ति किसी जागीरदार से अधिक नहीं थी।

मारवाड़ राज्य का विस्तार करने के अभियान के अंतर्गत राव जोधा नेमेड़ता, फलौधी, पोकरण, भाद्राजून, सोजत, जैतारण, सिवाना, शिव, नागौर तथा मेवाड़ राज्य के अंतर्गत स्थित गोड़वाड़ प्रदेश का कुछ भाग आदि क्षेत्र अपने राज्य में सम्मिलित कर लिये। इससे पहले सीहा के वंश के अधिकार में इतना बड़ा राज्य कभी नहीं रहा। जोधा ने अपने राज्य के उत्तर में हिसार तक का क्षेत्र मिलाने का प्रयत्न किया किंतु अफगान प्रतिरोध के कारण जोधा सफल नहीं हो सका।

मेड़ता पर अधिकार

जब जोधा ने मण्डोर पर अधिकार किया तब मेड़ता, माण्डू के सुल्तान की ओर से अजमेर में नियुक्त मुस्लिम सूबेदार के अधीन था। 1461 ई. में राव जोधा ने अपने पुत्रों वरसिंह तथा दूदा को अजमेर पर अधिकार करने भेजा। इन दोनों भाइयों ने थोड़े से युद्ध के बाद ही मेड़ता तथा उसके निकटवर्ती 360 गांवों पर अधिकार कर लिया। इससे मारवाड़ राज्य का विस्तार और अधिक तेजी से किया जाना संभव हो गया। मेड़ता पर अधिकार हो जाने के बाद 1462 ई. में तत्कालीन मेड़ता के दक्षिण में नई बस्ती बसाई गई।

राज्याधिकारियों की नियुक्ति

इतने बड़े राज्य का संचालन राजधानी मण्डोर से करना संभव नहीं था। इसलिये जोधा ने अपने भाइयों और पुत्रों को विभिन्न स्थानों पर नियुक्त कर दिया। चूण्डा ने मारवाड़ राज्य में सामंत व्यवस्था की शुरुआत की थी। जोधा ने उस व्यवस्था को और मजबूत बनाया। जोधा ने अपने पुत्र सातल को फलौदी, नींबा को सोजत तथा वरसिंह एवं दूदा को मेड़ता की जागीर दी। मजबूत सामंती व्यवस्था से मारवाड़ राज्य का विस्तार तेजी से करने में सहायता मिली।

सींधलों के उत्पात

सींधल राजपूत राठौड़ों की ही एक शाखा थे जिनका दमन करके राव जोधा ने मारवाड़ राज्य का विस्तार किया था। इसलिए सींधल राजपूत अवसर की ताक में रहते थे। 1462 ई. में राव जोधा काशी एवं गया आदि तीर्थों की यात्रा पर गया। इस स्थिति का लाभ उठाने के लिये भाद्राजून के सींधल आपमल ने जोधा के पुत्र शिवराज को सिवाना दिलवाने का लालच देकर शिवराज की सहायता से सिवाना के राजा बिजा को मार डाला। इसके बाद आपमल ने सिवाना का अधिकार बिजा को न देकर स्वयं सिवाना पर अधिकार कर लिया।

जब बिजा के पुत्र देवीदास को इस बात की जानकारी हुई तब उसने फिर से सिवाना पर आक्रमण किया तथा आपमल से सिवाना छीन लिया। जब जोधा तीर्थ यात्रा से लौटा तो उसे सारे घटनाक्रम की जानकारी हुई। जोधा आपमल से नाराज हुआ। इस पर देवीदास ने भाद्राजूण पर आक्रमण करके आपमल को मार डाला तथा अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया।

1464 ई. में बीसलपुर का स्वामी जैसा सींधल, पाली से मवेशियों को पकड़कर ले गया। उस समय जोधा का पुत्र नींबा सोजत का प्रबंध कर रहा था। नींबा ने तुरंत जैसा पर चढ़ाई की तथा वटोवड़ा गांव के पास उसको घेर लिया। इस लड़ाई में जैसा तो रणक्षेत्र में ही मारा गया किंतु नींबा भी बुरी तरह घायल हो जाने से पांच माह बाद मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब जोधा ने अपने पुत्र सूजा को फलौधी से बुलाकर सोजत का प्रबंध सौंपा।

मोहिलों के उत्पात

मोहिल राजपूत चौहानों की एक शाखा थे जो सदियों से इस क्षेत्र में शासन करते आ रहे थे। राव जोधा ने इनका भी दमन करके मारवाड़ राज्य का विस्तार किया था। इसलिए मोहिल सरदार भी जब-तब विद्रोह किया करते थे। छापर-द्रोणपुर का स्वामी मोहिल अजीतसिंह, राव जोधा का जामाता था।

1464 ई. में अजीतसिंह ने अपने मंत्रियों के बहकावे में आकर मारवाड़ में उपद्रव करना आरम्भ किया। कुछ दिन तक तो राव जोधा उसे अपना दामाद समझकर चुप रहा परन्तु जब मामला बढ़ता ही गया तब लाचार होकर जोधा को अजीतसिंह के विरुद्ध सेना भेजनी पड़ी। गगराणे के पास संघर्ष होने पर अजीतसिंह मारा गया और उसका भतीजा बछराज छापर-द्रोणपुर का स्वामी हुआ। ख्यातों में इस घटना का वर्णन अत्यंत अतिरंजित करके लिखा गया है।

नैणसी का कथन है कि राव जोधा की एक पुत्री राजबाई का विवाह छापर द्रोणपुर के राजा मोहिल अजीतसिंह से हुआ था। एक बार जब वह अपनी ससुराल मण्डोर आया हुआ था तो राव जोधा ने मोहिलों की भूमि हस्तगत करने का विचार किया परन्तु अजीतसिंह के रहते वह प्रदेश हाथ नहीं आ सकता था। तब राव जोधा ने अपने जामाता अजीतसिंह को मार डालने का विचार किया।

राव जोधा की राणी भटियाणी (अजीतसिंह की सास) को अपने पति के प्रयत्न का पता लग गया और उसने अजीतसिंह के सरदारों को इसकी सूचना दे दी। अजीतसिंह के सरदारों ने यह सोचकर कि अजीतसिंह यहाँ से भागना पसन्द नहीं करेगा, अजीतसिंह से कहा कि छापर से समाचार आया है कि यादवों ने राणा बछराज (सांगावत) पर आक्रमण कर दिया है तथा बछराज ने अजीतसिंह को सहायता के लिए बुलाया है।

यह सुनते ही अजीतसिंह ने तुरंत वहाँ से प्रस्थान किया। राव जोधा को इस बात का पता लगा तो वह समझ गया कि अजीतसिंह पर की जानेवाली चूक का भेद खुल गया और उसने अजीतसिंह का पीछा किया। अजीतसिंह के सरदारों ने अजीतसिंह को सही बात बता दी। इस पर अजीतसिंह अपने सरदारों पर बहुत बिगड़ा। द्रोणपुर से तीन कोस दूर गणोड़ा गांव में दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें अजीतसिंह अपने 85 राजपूतों सहित काम आया। उसी दिन से राठौड़़ों तथा मोहिलों में वैर बंध गया। अजीतसिंह का भतीजा बछराज छापर-द्रोणपुर का राणा बना।

इस घटना के एक वर्ष बाद बछराज ने अपने चाचा का बदला लेने के लिये मारवाड़ राज्य के क्षेत्रों में लूटमार आरम्भ की। इस पर राव जोधा ने सेना लेकर फिर से मोहिलों पर चढ़ाई की। राणा बछराज 165 साथियों सहित मारा गया और राव जोधा की विजय हुई परन्तु बछराज का पुत्र मेघा  वहाँ से निकल भागा। (मेघा, राव जोधा के जामाता अजीतसिंह का भतीजा था।)

छापर के इलाके पर राव जोधा का अमल हो जाने पर मेघा, छापे मार कर जोधा को तंग करने लगा। राव जोधा ने जान लिया कि जब तक मेघा जीवित है छापर-द्रोणपुर जैसे कठिन क्षेत्र पर अधिकार बनाये रखना असम्भव है। अतः जोधा, ने मेघा से संधि कर ली तथा उसे छापर-द्रोणपुर का राज्य सौंपकर मंडोर चला आया। इस समय तक मारवाड़ राज्य का विस्तार दूर-दूर तक हो चुका था।

बीका द्वारा बीकानेर राज्य की स्थापना

जोधा के समय में जांगलू प्रदेश में जाट बड़ी संख्या में निवास करते थे। जाटों के मुखिया परस्पर लड़ते रहते थे। इस कारण इस क्षेत्र में अव्यवस्था बनी हुई थी। राव जोधा ने इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लेने का विचार किया। उसने अपने पुत्र बीका को आदेश दिया कि वह जांगलू की तरफ के प्रदेश में अपना राज्य स्थापित करे।

ख्यातों में लिखा है कि एक दिन कांधल और बीका, दरबार में बैठे हुए बातें कर रहे थे। इतने में राव जोधा वहाँ आ गया। उसने कांधल और बीका की ओर देखकर हँसते हुए कहा कि क्या आज चाचा-भतीजे मिलकर किसी नए प्रदेश को दबाने की सलाह कर रहे हैं? कांधल ने उत्तर दिया कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। ईश्वर चाहेगा तो ऐसा ही होगा। इसके बाद सांखला नापा और जाट निकोदर की सलाह से ये लोग, कुछ चुने हुए वीरों को अपने साथ लेकर जांगलू की तरफ गये।

1593 ई. में जयसोम द्वारा रचित ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनक काव्यम्’ में लिखा है-

जोधा की दूसरी महाराणी जसमादेवी के तीन लड़के- नींबा, सूजा, और सातल नाम के थे और वह राजा का जीवन सर्वस्व थी। जब देवयोग से नींबा की कथा ही बाकी रह गई (अर्थात् वह मर गया) तब जसमादेवी ने जिसे स्त्री स्वभाव से अपनी सौतों के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ- यह होनहार ही है, ऐसा सोचकर एकांत में विक्रम नाम के अपनी सौत के पुत्र की अनुपस्थिति में राजा को अपने पुत्र के विषय में कुछ रोचक कथा कही।

तब राजा ने पत्नी के कपट से मोहित होकर अपने बेटे विक्रम (बीका) को जांगलदेश में निकाल देने की इच्छा से अपने पास बुलाकर यह कहा- ‘हे पुत्र! बाप के राज्य को बेटा भोगे इसमें कोई अचरज की बात नहीं परन्तु जो नया राज्य प्राप्त करे वही बेटों में मुख्य गिना जाता है। पृथ्वी पर कठिनता से वश में आने वाला जांगल नामक देश है, तू साहसी है इसलिए तुझे मैंने इस काम में (अर्थात् उसे वश में करने में) नियुक्त किया है।’

पिता का आदेश पाकर बीका ने 1465 ई. में अपने चाचा कांधल और सांखला नापा आदि को साथ लेकर ससैन्य जांगलू की तरफ प्रस्थान किया। बीका ने मण्डोर से अपने इष्टदेव भैरव की मूर्ति अपने साथ ली। इसके बाद देशणोक पहुंच कर करणीजी का आशीर्वाद लिया।

फिर कुछ दिन चूण्डासर में निवास करने के बाद कोडमदेसर पहुंचकर वहाँ भैरव की मूर्ति की स्थापना की। इसके बाद बीस वर्ष तक बीका जांगलू देश में जाटों, भाटियों एवं सांखलों से लड़ता रहा और उनके क्षेत्रों को छीनकर अपने राज्य में सम्मिलित करता रहा। 1485 ई. में बीका ने नये दुर्ग का शिलान्यास किया तथा 12 अप्रेल 1488 को बीकानेर नामक नगर की स्थापना की।

नागौर पर अधिकार

राव चूण्डा ने 1399 ई. में नागौर पर अधिकार कर लिया था किंतु इस घटना के 24 साल बाद मुसलमानों ने भाटियों की सहायता से, राव चूण्डा को मारकर नागौर पुनः हस्तगत कर लिया था। इसके बाद मेवाड़ के महाराणा मोकल ने नागौर पर अधिकार करने का असफल प्रयास किया था। जब रणमल महाराणा कुम्भा के पास रहता था तब उसने भी मेवाड़ की तरफ से नागौर पर अधिकार किया।

इस युद्ध में रणमल की विजय हुई तथा नागौर के मुस्लिम शासक को गायें काटने के अपराध में भलीभांति दण्डित किया गया किंतु संभवतः मेवाड़, नागौर पर अपना अधिकार बनाये न रख सका। इसलिये अब तक नागौर पर मुसलमानों का शासन चला आता था। 1467 ई. में राव जोधा के तीन पुत्र- करमसी, रायपाल और वणवीर नागौर के कायमखानी शासक फतनखाँ के पास पहुंचे।

फतन खाँ ने करमसी को खींवसर और रायपाल को आसोप की जागीर देकर अपने पास रख लिया। वणवीर अपने बड़े भाई करमसी के पास रहने लगा। जब राव जोधा को इसकी सूचना हुई तो उसने अपने पुत्रों को वापस बुलाया। इस पर तीनों भाई फतन खाँ को छोड़कर अपने बड़े भाई बीका के पास चले गये।

फतनखाँ ने इसे अपना अपमान समझा तथा सेना लेकर मारवाड़ के गांवों को लूटने लगा। इस पर राव जोधा ने नागौर पर चढ़ाई की। फतनखाँ हारकर झुंझुनूं की तरफ भाग गया। इसके बाद राव जोधा ने नागौर पर अधिकार कर लिया तथा करमसी को खींवसर और रायपाल को आसोप की जागीर दी।

अजमेर और सांभर की प्राप्ति

1468 ई. में कुम्भा का राज्य लोभी ज्येष्ठ पुत्र ऊदा (उदयसिंह) अपने पिता महाराणा कुम्भा को कटार से मारकर मेवाड़ का स्वामी बन गया परन्तु उसके इस दुष्ट कार्य से सरदार उसके विरोधी हो गये और उस पितृ-घाती को राज्यच्युत करने का उद्योग करने लगे। ऊदा ने अपना पक्ष मजबूत करने के लिए पड़ौसियों को अपना सहायक बनाने का निश्चय किया और वह उन्हें भूमि देने लगा। राव जोधा को भी उसने अजमेर और सांभार के क्षेत्र दिये। यह भी कहा जाता है कि इससे पहले कि ऊदा की योजना सफल होती, कुम्भा के पुत्र रायमल ने जो कि जोधा का जामाता भी था, ऊदा को माण्डू की तरफ धकेल दिया।

राजपूताने का सबसे प्रभावशाली राजा

1468 ई. में महाराणा कुम्भा की हत्या हो जाने के बाद राव जोधा, राजपूताने का सर्वाधिक अनुभवी और प्रभावशाली राजा बन गया। जोधा ने बहलोल लोदी के सेनापति सारंग खाँ को परास्त करके दूर-दूर तक अपनी धाक जमा ली तथा मरुस्थल की राजनीति को राष्ट्रीय राजनीति में स्थान दिलवाया। जोधा ने 1453 ई. से 1489 ई. तक पैंतीस साल लम्बी अवधि तक मरुस्थल के बड़े भाग पर शासन किया।

छापर-द्रोणपुर पर अधिकार

मुंहणोत नैणसी ने लिखा है-

1473 ई. में छापर-द्रोणपुर के राणा मेघा का देहान्त हो गया तथा उसका पुत्र बैरसल वहाँ का राणा हुआ। वह एक निर्बल शासक था। इसलिये उसके भाई-बंधु स्वाधीन होकर इधर-उधर लूटपाट मचाने लगे। इस कारण मोहिलों के प्रदेश में अराजकता फैल गई तथा मोहिल सरदार परस्पर लड़ने लगे, जिससे उनका बल क्षीण होने लगा। इस कारण 1474 ई. में राव जोधा ने मोहिलों पर चढ़ाई की। राणा बैरसल (यह महाराणा कुम्भा का दौहित्र था।)  तथा उसका छोटा भाई नरबद युद्ध किये बिना ही फतहपुर भाग गये।

रेउ ने लिखा है-

नरबद, जोधा के छोटे भाई कांधल का दौहित्र था। इसलिये जोधा ने नरबद को कहलवाया कि यदि वह जोधा के पास आ जाये तो उसे छापर का राज्य दिला दिया जायेगा किंतु नरबद ने यह बात स्वीकार नहीं की। राव जोधा ने छापर-द्रोणपुर पर अधिकार करके फतहपुर पर आक्रमण किया। तीन दिन के भीषण युद्ध के बाद फतन खाँ हार गया। राव जोधा ने फतहपुर को जला कर भस्म कर दिया। फतनखाँ को नष्ट हुआ देखकर बैरसल और नरबद फतहपुर से भागकर झुंझुनूं और भटनेर होते हुए अंत में मेवाड़ महाराणा के पास पहुंचे किंतु महाराणा ने उनकी कोई सहायता नहीं की।

इस समय जोधा का जामाता रायमल मेवाड़ का महाराणा था। रायमल किसी भी सूरत में राव जोधा से सम्बन्ध बिगाड़ने को तैयार नहीं था।  इस पर नरबद; और कांधल का पुत्र बाघा राठौड़, दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी के पास गये। बहलोल लोदी ने सारंग खाँ पठान को पांच हजार घुड़सवार सेना देकर उनकी सहायता के लिये भेजा। नरबद व बाघा राठौड़, सारंग खाँ के साथ झुंझुनूं के निकट पहुंचे जहाँ राणा बैरसल भी उनसे आ मिला।

राव जोधा छः हजार सैनिक लेकर उनका सामना करने के लिये आया। राव बीका भी अपनी सेना लेकर पिता की सहायता करने आ गया। इस समय तक जोधा के बड़े पुत्र नींबा की मृत्यु हो चुकी थी जिसे राव जोधा ने सोजत का अधिकार दिया था।

युद्ध आरम्भ होने से पहले जोधा ने अपने भतीजे बाघा राठौड़ को गुप्त रीति से अपने पास बुलाया और कहा- ‘शाबाश भतीजे! मोहिलों के वास्ते तू अपने भाइयों पर तलवार उठाकर भोजाइयों और स्त्रियों को कैद करावेगा।’

यह सुन कर बाघा के मन में विचार हुआ कि उसका कार्य अनुचित है और वह जोधा का सहायक हो गया। दोनों पक्षों में हुए भीषण युद्ध में सारंग खाँ 555 पठानों सहित मारा गया, बैरसल मेवाड़ भाग गया तथा नरबद फतहपुर के पास पड़ा रहा। इस प्रकार 1475 ई. में छापर-द्रोणपुर पर राव जोधा का अधिकार हो गया। वह अपने पुत्र जोगा को द्रोणपुर छोड़कर स्वयं मण्डोर लौट गया।

जोगा, द्रोणपुर का शासन नहीं संभाल सका। इस पर राव जोधा ने उसे वापस बुला लिया और उसके स्थान पर अपने दूसरे पुत्र बीदा को भेजा। बीदा ने इस क्षेत्र का कड़ाई से प्रबंध किया। बीदा से पहले यह क्षेत्र मोहिलवाटी कहलाता था किंतु बीदा के शासक बन जाने पर यह क्षेत्र बीदावाटी कहलाने लगा।

दयालदास की ख्यात में इस घटना का वर्णन भिन्न प्रकार से मिलता है-

‘जोधा ने छापर-द्रोणपुर का इलाका बरसल (वैरसल) से लेकर वहाँ का अधिकार जोगा को दिया पर उसके ठीक तरह से राज्य न कर सकने के कारण उसे वहाँ से हटाकर बीदा को वहाँ का स्वामी बनाया, जिसने बड़ी उत्तमता से समस्त प्रबंध कर मोहिलों को अपने अधीन किया। बरसल अपना राज्य खोकर अपने भाई नरबद को साथ ले दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी के पास गया। राव जोधा के भाई कांधल का पुत्र बाघा भी उसके साथ था।

बहुत दिनों बाद जब बादशाह उनकी सेवा से प्रसन्न हुआ, तो उसने बरसल का इलाका उसे वापस दिलाने के लिए हिसार के सूबेदार सारंग खाँ को सेना देकर उसके साथ कर दिया। जब वह सेना द्रोणपुर पहुंची तो बीदा ने उसका सामना करना उचित नहीं समझा तथा बरसल से सुलह करके अपने भाई बीका के पास बीकानेर चला गया। छापर-द्रोणपुर पर पुनः बरसल का अधिकार हो गया। बीदा के बीकानेर पहुंचने पर बीका ने अपनी पिता (जोधा) से कहलवाया कि यदि आप सहायता दें तो बीदा को फिर से द्रोणपुर का इलाका दिला देवें।’

जोधा ने एक बार हाड़ी रानी के कहने से बीदा से लाडणूं मांगा था परन्तु उसने देने से मना कर दिया था। इस कारण जोधा, बीदा से अप्रसन्न था और उसने बीका की प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया। तब बीका स्वयं सैन्य एकत्र कर कांधल, मांडल आदि के साथ बरसल पर गया। इस अवसर पर जोहिये आदि भी उसकी सहायतार्थ साथ थे।

बीका ने देशणोक में करणीजी के दर्शन किये तथा द्रोणपुर की ओर अग्रसर हुआ। देशणोक से चार कोस की दूरी पर बीका की सेना ने डेरा डाला। सारंग खाँ उन दिनों वहीं था। एक दिन बीका ने अपने चचेरे भाई बाघा को, जो बसरल का सहायक था, एकान्त में बुलाकर उपालम्भ दिया कि- ‘काका कांधल तो ऐसे हुए, जिन्होंने जाटों का राज्य नष्ट कर एक नया इलाका कायम किया और तू (कांधल का पुत्र) मोहिलों के बदले में मेरे ऊपर ही चढ़कर आया है। ऐसा करना तेरे लिए उचित नहीं।’

इस पर बाघा, बीका का सहायक बन गया और उसने वचन दिया कि वह मोहिलों को पैदल आक्रमण करने की सलाह देगा जिनके दांई ओर सारंग खाँ की सेना रहेगी। ऐसी दशा में उन्हें पराजित करना कठिन नहीं होगा। दूसरे दिन युद्ध में ऐसा ही हुआ। फलतः मोहिल तथा तुर्क परास्त होकर भाग खड़े हुए। नरबद तथा बरसल मारे गये और बीका की विजय हुई। कुछ दिनों वहाँ रहने के उपरान्त बीका ने छापर द्रोणपुर का अधिकार बीदा को सौंप दिया और स्वयं बीकानेर लौट गया।

उपर्युक्त दोनों विवरणों में से, दयालदास का विवरण अधिक विश्वसनीय प्रतीत हाता है, क्योंकि आगे चलकर मुंहणोत नैणसी ने स्वयं अपने कथन का खण्डन कर दिया है। नैणसी लिखता है कि बीका के कहलवाने पर कांधल को मारने के वैर में राव जोधा ने सारंग खाँ पर चढ़ाई करके उसे मारा था।

उस अवसर पर बीका भी ससैन्य जोधा के साथ था और सेना की हिरोल में था। इससे स्पष्ट है कि सारंग खाँ इसके बाद वाली दूसरी लड़ाई में मारा गया था। साथ ही राव बीका द्वारा बीदा को पुनः छापर द्रोणपुर का राज्य दिलाया जाना ही अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है क्योंकि ये इलाके मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत न होकर बीकानेर के अधीन रहे। बीकानेर राजपरिवार से मैत्री सम्बन्ध रहने से बीदावत बाद में उन्हीं के अधीन हो गये।

जोधपुर राज्य की ख्यात में उपर्युक्त घटना का उल्लेख नही है। आगे की कुछ घटनाएं भी जोधपुर राज्य की ख्यात में नहीं हैं परन्तु दयालदास की ख्यात में उन घटनाओं का विस्तार से विवरण मिलता है। अन्य ख्यातों से भी उनकी पुष्टि होती है।

लाडनूं पर अधिकार

जब राव जोधा ने बीदा को छापर-द्रोणपुर का अधिकार दिया तब लाडनूं पर आक्रमण करके उसे भी राठौड़ों के राज्य में मिला लिया गया। बाद में राव बीका ने लाडनूं, अपनी पिता राव जोधा को भेंट किया।

बीका को जोधपुर पर अधिकार न जताने का निर्देश

ख्यातों में वर्णन आया है कि मोहिल युद्ध की समाप्ति के बाद द्रोणपुर में राठौड़़ों की सेनाओं के डेरे हुए। उस समय राव जोधा ने बीका को अपने पास बुलाकर कहा- ‘बीका तू सपूत है अतः तुझ से एक वचन मांगता हूँ?’

बीका ने उत्तर दिया- ‘आप पिता हैं, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’

जोधा ने कहा- ‘एक तो लाडणूं मुझे दे दे और दूसरे अब तूने अपने बाहुबल से अपने लिए नया राज्य स्थापित कर लिया है, इसलिए अपने भाईयों से जोधपुर के राज्य के लिए दावा न करना।’

बीका ने इन बातों को स्वीकार करते हुए कहा- ‘मेरी भी यह प्रार्थना है कि तख्त, छत्र आदि राज्यचिन्ह तथा आपकी ढाल एवं तलवार मुझे मिली चाहिये, क्योंकि मैं बड़ा हूँ।’

जोधा ने इन सब वस्तुओं को जोधपुर पहुंचकर भेज देने का वचन दिया। अनन्तर दोनों ने अपने अपने राज्य की और प्रस्थान किया।

जोधावास की स्थापना

ख्यातों में वर्णन आया है कि जब राव जोधा, सारंग खाँ को परास्त करके लौट रहा था तब मार्ग में, चमार जाति का एक आदमी जो हकलाकर और तुतलाकर बोलता था, राव जोधा की बड़ी प्रशंसा कर रहा था। जोधा ने प्रसन्न होकर उस आदमी को उसी क्षेत्र में बहुत सी भूमि प्रदान की। उस व्यक्ति ने वहाँ जोधावास नामक गांव की स्थापना की।

जालोर तथा सिरोही के शासकों का दमन

1478 ई. में जालोर के शासक उस्मान खाँ तथा सिरोही के रावल लाखा ने मारवाड़ राज्य में लूटपाट आरम्भ की। जोधा ने अपने चचेरे भाई वरजांग को उन दोनों के विरुद्ध सेना देकर भेजा। वरजांग ने इस अभियान का सफलता पूर्वक संचालन किया। जालोर तथा सिरोही दोनों ही शासकों ने राव जोधा से संधि कर ली।

सांभर की रक्षा

सांभर पर दिल्ली सल्तनत की ओर से मुस्लिम सूबेदार नियुक्त रहता था किंतु राव चूण्डा ने उसे मारकर भगा दिया था। जब चूण्डा मर गया तब मुसलमानों ने फिर से सांभर पर अधिकार कर लिया। जब राव रणमल, महाराणा मोकल की सेवा में मेवाड़ में रहता था तब रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर सांभर पर अधिकार किया तथा उसे मेवाड़ राज्य में मिला दिया।

1468 ई. में जब ऊदा ने महाराणा कुम्भा की हत्या की तो उसने मारवाड़ वालों को शांत बने रहने के लिये अजमेर तथा सांभर प्रदान किये। तब से सांभर, जोधा के राज्य में बना हुआ था। सांभर झील से राज्य को अच्छी आय होती थी इसलिये 1486 ई. में आमेर नरेश चंद्रसेन ने सांभर पर चढ़ाई की। राव जोधा ने समाचार मिलते ही तुरंत एक सेना सांभर भिजवाई। इस कारण आमेर की सेना सांभर पर अधिकार नहीं कर सकी।

शिव की रक्षा

जैसलमेर के रावल देवीदास की आज्ञा से उसकी सेना ने शिव नामक नगर पर अधिकार कर लिया। राव जोधा ने वरजांग के नेतृत्व में एक सेना को शिव पर पुनः अधिकार करने के लिये भेजा। वरजांग ने शिव पहुंचकर प्रबल आक्रमण किया जिससे जैसलमेर की सेना भाग छूटी। इसके बाद वरजांग ने जैसलमेर पर आक्रमण करने का निर्णय लिया किंतु जैसलमेर के भाटियों ने दण्ड स्वरूप कुछ रुपये देकर राव जोधा से समझौता कर लिया। इसलिए जैसलमेर की तरफ मारवाड़ राज्य का विस्तार नहीं किया गया।

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