महाराणा रत्नसिंह के बाद उसका छोटा भाई विक्रमादित्य (ई.1531-36) मेवाड़ का महाराणा हुआ। वह शासन करने के अयोग्य था। अपने खिदमतगारों के अतिरिक्त उसने दरबार में सात हजार पहलवानों को रख लिया जिनके बल पर उसको अधिक विश्वास था। अपने छिछोरेपन के कारण वह सरदारों की दिल्लगी उड़ाया करता था जिससे अप्रसन्न होकर वे अपने-अपने ठिकानों में चले गये और राज्य व्यवस्था बहुत बिगड़ गई।
इस स्थिति का लाभ उठाने के लिये गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने मेवाड़ पर दो अभियान किये। ई.1532 में हुए पहले अभियान में किसी भी पक्ष ने एक दूसरे पर आक्रमण नहीं किया। नवम्बर 1532 में बहादुरशाह ने फिर से मेवाड़ पर अभियान किया। विक्रमादित्य निकम्मा था, सरदारों के प्रति उसका व्यवहार अच्छा नहीं था। इसलिये सरदारों ने महाराणा की सहायतार्थ अपनी सेवाएं अर्पित नहीं कीं। बात ही बात में बहादुरशाह ने चित्तौड़ का दुर्ग चारों ओर से घेर लिया तथा उसके कई दरवाजों पर अधिकार कर लिया।
जब गुजराती सैनिक, चित्तौड़ दुर्ग की दीवारों को बारूद से उड़ाने की तैयारी करने लगे तो राजमाता कर्मवती ने मुगल बादशाह हुमायूं से सहायता मांगी किंतु हुमायूं ने कर्मवती की सहायता नहीं की। इस पर राजमाता कर्मवती ने बहादुरशाह के वकील से संधि की बात चलाई तथा उसके माध्यम से बहादुरशाह को कहलवाया कि महमूद खिलजी से लिये गये मालवा के समस्त जिले बहादुरशाह को सौंप दिये जाएंगे और महमूद का वह जड़ाऊ मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भी दे दी जायेगी। इसके अतिरिक्त राजमाता ने 10 हाथी, 100 घोड़े और नगद राशि भी देना स्वीकार किया। बहादुरशाह ने इस संधि को स्वीकार कर लिया। 24 मार्च 1533 को बहादुरशाह ये सब वस्तुएं लेकर चित्तौड़ से लौट गया।
बहादुरशाह से जो संधि हुई उसमें महाराणा विक्रमसिंह ने राजकुमार उदयसिंह को सुल्तान की सेवा में भेजना स्वीकार कर लिया जिससे सुल्तान उसे भी साथ ले गया। सुल्तान के कोई शहजादा नहीं था इसलिये वजीरों ने सुल्तान से कहा कि वे किसी भाई-भतीजे को गोद बैठा लें तो अच्छा होगा। इस पर सुल्तान ने कहा कि राणा का भाई ठीक है। वह बड़े घराने का है, मुसलमान बनाकर वह गोद रख लिया जायेगा। उदयसिंह के राजपूतों ने जब यह बात सुनी तो वे उसको वहाँ से ले भागे। दूसरे दिन यह बात सुनते ही बादशाह ने दूसरी बार चित्तौड़ को आ घेरा।
उधर हुमायूं भी चित्तौड़ को लेने की नीयत से आगरा से ग्वालियर आ गया। राजमाता कर्मवती ने हुमायूं से सहायता पाने के लिये उसे राखी भेजी इस पर बहादुरशाह ने हुमायूं को पत्र लिखा कि इस समय मैं जेहाद पर हूँ। अगर तुम हिन्दुओं की सहायता करोगे तो खुदा के सामने क्या जवाब दोगे? यह पत्र पढ़कर हमायूं चित्तौड़ में ही ठहर गया और चित्तौड़ के युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करता रहा। इस पर कर्मवती ने मेवाड़ के सरदारों को पत्र लिखे- ‘अब तक तो चित्तौड़ राजपूतों के हाथ में रहा, पर अब उसके हाथ से निकलने का समय आ गया है। मैं किला तुम्हें सौंपती हूँ। चाहे तुम रखो चाहे शत्रु को दे दो। मान लो तुम्हारा स्वामी अयोग्य ही है। तो भी जो राज्य वंश परम्परा से तुम्हारा है, वह शत्रु के हाथ में चले जाने से तुम्हारी बड़ी अपकीर्ति होगी।
यह पत्र पाकर मेवाड़ के सरदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर चित्तौड़ आ गये। महाराणा विक्रमादित्य तथा उसके छोटे भाई कुंवर उदयसिंह को दुर्ग से बाहर भेज दिया गया। दोनों पक्षों में हुए युद्ध में मेवाड़ की पराजय हो गई तथा कई हजार राजपूत सैनिक मारे गये। दुर्ग में स्थित हिन्दू स्त्रियों ने राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में जौहर किया। यह चित्तौड़ दुर्ग का दूसरा साका था।
जैसे ही हुमायूं को ज्ञात हुआ कि चित्तौड़ का पतन हो गया तो वह बहादुरशाह के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये आगे बढ़ा। बहादुरशाह का सेनापति रूमीखां गुप्त रूप से हुमायूं से मिल गया। मंदसौर के निकट हुमायूं तथा बहादुरशाह की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। बहादुरशाह पराजित होकर माण्डू भाग गया। हुमायूं ने उसका पीछा किया जिससे बहादुरशाह माण्डू से चांपानेर और खम्भात होता हुआ दीव के टापू में पुर्तगालियों के पास गया जहाँ से लौटते समय नाव उलटने से समुद्र में ही डूबकर मर गया। जब चित्तौड़ दुर्ग में स्थित बहादुरशाह के सैनिकों को सुल्तान के मरने की सूचना मिली तो वे दुर्ग छोड़कर भाग गये। मेवाड़ के सरदारों ने पांच-सात हजार सैनिकों को एकत्रित करके चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। महाराणा विक्रमादित्य तथा कुंवर उदयसिंह भी दुर्ग में आ गये।
महाराणा उदयसिंह और शेरशाह सूरी
ई.1537 में विक्रमादित्य का छोटा भाई उदयसिंह, चित्तौड़ का महाराणा हुआ। उसने गिरते हुए मेवाड़ को सम्भालने का कार्य आरम्भ किया। उसे शासन करते हुए अभी छः वर्ष ही हुए थे कि बिहार से प्रकट हुआ एक और प्रबल धूमकेतु मेवाड़ को निगल जाने के लिये तेजी से चित्तौड़ की ओर अग्रसर हुआ। इस धूमकेतु का नाम शेरशाह सूरी था, जो था तो सहसराम के छोटे से जमींदार का बेटा किंतु मुगल बादशाह हुमायूं को भारत की सीमाओं से परे धकेल कर अपनी सामरिक एवं राजनीतिक शक्ति के चरम पर पहुंच चुका था। ई.1543 में शेरशाह सूरी जोधपुर के राजा मालदेव को परास्त करके, मेवाड़ की ओर बढ़ा। महाराणा उदयसिंह के पास इतनी सेना नहीं थी कि वह शेरशाह का मार्ग रोक सके। इसलिये जब शेरशाह चित्तौड़ से केवल 12 कोस दूर रह गया तो उदयसिंह ने उसे चित्तौड़ दुर्ग की चाबियां भिजवा दीं। शेरशाह, चित्तौड़ आया तथा खवासखां के छोटे भाई मियां अहमद सरवानी को वहाँ छोड़कर स्वयं लौट गया।
उदयपुर नगर की स्थापना
अरावली की पहाड़ियों में हजारों साल से, दूर-दूर तक भीलों की बस्तियां बसी हुई थीं। ये लोग पहाड़ियों की टेकरियों पर झौंपड़ियां तथा पड़वे बनाकर रहते थे और छोटे-छोटे तीर-कमान से बड़े-बड़े वन्य पशुओं का शिकार करते थे। अपने शिकार के पीछे भागते हुए वे एक पहाड़ी से उतर कर दूसरी पहाड़ी पर तेजी से दौड़ते हुए चढ़ जाते थे। भीलों में सैनिक संगठन जैसी व्यवस्था नहीं थी किंतु संकट के समय ये लोग मिलकर लड़ते थे। भील योद्धा स्वाभाविक रूप से पहाड़ियों के दुर्गम मार्गों से परिचित होते थे। इस कारण बड़ी से बड़ी शक्ति के लिये पहाड़ों में आकर भीलों से युद्ध करना, बहुत बड़े संकट को आमंत्रण देने जैसा था। सौभाग्यवश इन भीलों से गुहिल शासकों के सम्बन्ध आरम्भ से ही अच्छे थे। महाराणा कुम्भा ने भीलों से अपनी मित्रता को और अधिक सुदृढ़ बनाया। तब से भील, मेवाड़ राज्य के विश्वसनीय साथी बने हुए थे।
जब उदयसिंह महाराणा बना तो उसने अपने राज्य की सीमाओं के दोनों तरफ मालवा तथा गुजरात जैसे प्रबल शत्रु-राज्यों की उपस्थिति के कारण भीलों के महत्त्व को और अधिक अच्छी तरह से समझा। उदयसिंह जानता था कि खानुआ के मैदान में अपनी तोपों के बल पर सांगा को पछाड़ने वाले मुगल, अथवा सुमेल के मैदान में मालदेव को पटकनी देने वाले अफगान, किसी भी दिन चित्तौड़ तक आ धमकेंगे और तब चित्तौड़ की दीवारें मेवाड़ राज्य को सुरक्षा नहीं दे पायेंगी। वैसे भी वह महाराणा विक्रमादित्य के समय में चित्तौड़ दुर्ग की दुर्दशा अपनी आँखों से देख चुका था। इसलिये उसने अपनी राजधानी के लिये प्राकृतिक रूप से ऐसे सुरक्षित स्थान की खोज आरम्भ की जहाँ तक शत्रुओं की तोपें न पहुँच सकें। उसकी दृष्टि मेवाड़ राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भाग पर गई।
मेवाड़ राज्य का यह क्षेत्र विकट पहाड़ियों से घिरा हुआ था तथा बीच-बीच में उपजाऊ मैदान भी स्थित थे जिनमें खेती तथा पशुपालन बहुत अच्छी तरह से हो सकता था। यह पूरा क्षेत्र भील बस्तियों से भरा हुआ था। महाराणा उदयसिंह ने इस क्षेत्र में उदयपुर नगर की नींव डाली। उसने गिरवा तथा उसके आसपास के क्षेत्र में किसानों एवं अन्य जनता को लाकर बसाया और नई बस्तियां बनानी आरम्भ कीं। शीघ्र ही इस क्षेत्र में बड़े भू-भाग पर खेती-बाड़ी एवं पशु-पालन आदि गतिविधियां होने लगीं। बढ़ई तथा लुहार आदि दस्तकार और छोटे-मोटे व्यापारी एवं व्यवसायी भी आकर बस गये। उदयसिंह के इस कार्य ने राजा और प्रजा के बीच के सम्बन्धों को भी नया आकार दिया जिससे परस्पर सहयोग, मैत्री एवं विश्वास का वातावरण बना और प्रजा अपने राजा को पहले से भी अधिक चाहने लगी। —- चित्तौड़ की निर्बलता (2)