16 जुलाई 1874 को महाराणा शम्भुसिंह का निधन हो गया। महाराणा के निःसंतान होने के कारण बागोर के महाराज शक्तिसिंह का 15 वर्षीय पुत्र सज्जनसिंह महाराणा की गद्दी पर बैठाया गया।
महाराणा द्वारा बड़ौदा नरेश के पीछे बैठने से इन्कार
8 नवम्बर 1875 को इंगलैण्ड का युवराज एडवर्ड एल्बर्ट भारत आया। मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट हर्बर्ट ने महाराणा सज्जनसिंह से एडवर्ड एल्बर्ट के स्वागत के लिये बम्बई जाने का अनुरोध किया। महाराणा ने इस शर्त पर बम्बई जाना स्वीकार किया कि दरबार में अपनी बैठक निजाम के अतिरिक्त और किसी राजा या महाराजा की बैठक से नीचे न हो।
ओझा ने लिखा है- ‘पालवा बंदरगाह पर राजाओं के लिये रखी गई कुर्सियां मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट से हुए समझौते के अनुरूप नहीं थीं। इस पर महाराणा किसी कुर्सी पर नहीं बैठा तथा टहलता रहा और युवराज के आने पर उससे भेंट करके अपने डेरे पर चला गया।’
जगदीशसिंह गहलोत ने लिखा है- ‘महाराणा सज्जनसिंह ई.1875 में प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के लिये भारत भर के राजाओं के साथ बम्बई में उपस्थित हुआ किंतु उसने बड़ौदा के महाराजा के पीछे बैठना स्वीकार नहीं किया और वह उल्टे पांव वापस आ गया।’
बारहठ कृष्णसिंह ने लिखा है- ‘वहां रईसों की बग्गियां नम्बरवार खड़ी की रही जिसमें इन महाराणा की बग्गी हैदराबाद के वजीर सर सालारजंग की बग्गी से पीछे रखी गई। इससे महाराणा नाराज होकर सवारी से जुदा निकल गये और आम-दरबार में भी इनकी कुर्सी सर सालारजंग की कुर्सी से नीचे लगाई गई थी, इससे नहीं बैठे। इस तकरार की वजह से इसी दिन से सरकार अंगरेजी में रईसों की बैठक आम-दरबार में नम्बरवार रखना बंद हो गया तथा प्रांतों के अनुसार बैठक व्यवस्था आरम्भ की गई। महाराणा ने बम्बई में गवर्नर जनरल लॉर्ड नॉर्थबु्रक, बम्बई के गवर्नर सर फिलिप वुडहाउस तथा कई राजाओं से भेंट की। चार दिन बाद लॉर्ड नॉर्थबु्रक उदयपुर आया। उदयपुर आने वाला वह पहला गवर्नर जनरल था।
देशी राजाओं को ब्रिटिश भक्त बनाये जाने के प्रयास
ई.1876 में लॉर्ड लिटन ने घोषणा की कि इंग्लैण्ड की राजशाही को अब से एक शक्तिशाली देशी अभिजाततंत्र की आशाओं, आकांक्षाओं, सहानुभूतियों और हितों के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना होगा। राजाओं, जागीरदारों और जमींदारों ने इस घोषणा का अर्थ यह लगाया कि वे तब तक बने रहेंगे जब तक कि ब्रिटिश शासन बना रहेगा। अंग्रेज अधिकारियों ने राजाओं को और अधिक स्वामिभक्त बनाने के क्रम में राजाओं, राजकुमारों तथा अन्य लोगों को अंग्रेजी उपाधियों से सम्मानित करने का सिलसिला आरंभ किया। इसी वर्ष रानी विक्टोरिया ने संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश प्रभुसत्ता जताने के लिये ‘कैसरेहिन्द’ अर्थात् ‘भारत साम्राज्ञी’ की उपाधि धारण की।
1 जनवरी 1877 को लॉर्ड लिटन ने दिल्ली में साम्राज्यिक दरबार का आयोजन किया जिसमें सम्मिलित होने के लिये भारत के समस्त राजाओं और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया। मेवाड़ महाराणा ने इस दरबार मंे भाग लिया। इस अवसर पर महाराणा को तमगे एवं झण्डे आदि दिये गये तथा महाराणा की तोपों की व्यक्तिगत सलामियों की संख्या 19 से बढ़ाकर 21 कर दी गयी जबकि जोधपुर नरेश जसवंतसिंह की तोपों की सलामी की संख्या 17 से बढ़ाकर 19 की गयी।
महारानी के सम्मान में इम्पीरियल सर्विस ट्रूप्स तथा भारतीय राजाओं के लिये इम्पीरियल कैडेट कोर की स्थापना की गयी। राजाओं को सेना में ऑनरेरी कमीशन दिये गये ताकि वे अधीनस्थ स्थिति को प्राप्त कर सकें। महाराणा सज्जनसिंह ने दिल्ली में गवर्नर जनरल लॉर्ड लिटन, जोधपुर, जयपुर, किशनगढ़, झालावाड़, इंदौर, रीवां तथा मण्डी के राजाओं से भेंट की।
ई.1878 में अंग्रेज सरकार ने देशी राज्यों के साथ नमक संधियां कीं। ऐसी ही एक संधि मेवाड़ राज्य के साथ भी की गई। इस संधि के अनुसार मेवाड़ राज्य ने नमक बनाना बंद कर दिया तथा क्षतिपूर्ति के रूप में सरकार द्वारा महाराणा को 2 लाख रुपये वार्षिक देना तय किया गया।
लॉर्ड रिपन का चित्तौड़ दरबार में उपस्थित होना
ई.1881 में भारत सरकार ने महाराणा सज्जनसिंह को ग्रैण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया मैडल देना चाहा। इस पर महाराणा ने अपने वंश का प्राचीन गौरव तथा पूर्वजों का बड़प्पन बताते हुए कई आपत्तियां व्यक्त कीं परन्तु अंत में महाराणा ने इस शर्त में मैडल लेना स्वीकार किया कि भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन, स्वयं यह मैडल मेवाड़ में आकर दे। 23 नवम्बर 1881 को लॉर्ड रिपन स्वयं चित्तौड़ आया। इस अवसर पर चित्तौड़ दुर्ग में भव्य दरबार हुआ। गवर्नर जनरल ने स्वयं अपने हाथों से महाराणा को मैडल, चोगा, हार आदि पहनाया।
महाराणा द्वारा अन्य देशी राज्यों के शासकों से सम्पर्क
महाराणा सज्जनसिंह ने जोधपुर, जयपुर, कृष्णगढ़, झालावाड़, रीवां, इंदौर आदि अनेक राजाओं से मेलजोल बढ़ाया तथा उदयपुर एवं जोधपुर नरेशों की शिरस्ते की मुलाकातों का जो सिलसिला बहुत वर्षों से टूट गया था उसे फिर से आरम्भ किया। ओझा ने लिखा है- ‘महाराणा राजसिंह (प्रथम) के पीछे मेवाड़ की दशा को उन्नत करनेवाला उसके जैसा और महाराणा हुआ ही नहीं।’
महाराणा सज्जनसिंह द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य सेवा
महाराणा सज्जनसिंह साहित्यानुरागी तथा विद्वान राजा था। उसके राज्य में कविराजा श्यामलदास, ऊजल फतहकरण, बारहठ किशनसिंह, स्वामी गणेशपुरी आदि कवि रहते थे। उसने भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र को मेवाड़ में आमंत्रित कर कई दिनों तक बड़े सम्मान के साथ रखा तथा विदा होते समय सिरोपाव के अतिरिक्त 1000 रुपये प्रदान किये। कोई कवि, गुणी या विद्वान, देश के किसी भाग से उदयपुर आता तो महाराणा उसका यथोचित आदर-सत्कार करता तथा विदा होते समय सिरोपाव आदि देकर उनका उत्साहवर्द्धन करता। उसके समय में उदयपुर में दूर देशों के विद्वानों, कवियों और गुणिजनों का आश्रय एवं समागम स्थल हो गया था। वहाँ प्रति सोमवार को कवियों तथा विद्वानों की सभा होती जिसमें काव्य एवं शास्त्रचर्चा हुआ करती थी।
महाराणा ने इतिहास कार्यालय की स्थापना कर कविराजा श्यामलदास को वीर विनोद नामक ग्रंथ तैयार करने का काम सौंपा। इस कार्य पर एक लाख रुपया व्यय किया गया। इतिहास कार्यालय में विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता नियुक्त किये गये, विभिन्न भाषाओं के प्राचीन एवं नवीन ग्रंथों का संग्रह करवाया और प्राचीन शिलालेखों की छापें तैयार करवाईं। महाराणा ने राजपूतों के विभिन्न वंशों के बड़वे (वंशावली लेखक) बुलाकर उनका सम्मान किया और उनकी बहियों एवं वंशावलियों के आवश्यक अंशों की प्रतिलिपियां तैयार करवाईं।
इस प्रकार महाराणा द्वारा इतिहास संरक्षण एवं लेखन को जो कार्य कराया गया, उसने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। आज भी वीर विनोद, देश के इतिहासकारों के लिये मार्गदर्शी एवं संदर्भ ग्रंथ के रूप में काम आता है। महाराणा ने राजधानी में मुद्रणालय स्थापित करवाकर उसमें सज्जन-कीर्ति-सुधाकर नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना आरम्भ किया।
चित्तौड़ से उदयपुर तक रेल निर्माण की योजना
महाराणा राष्ट्रीय स्तर पर आ रहे परिवर्तनों के साथ चलने के इच्छुक रहता था। जब अंग्रेजों ने भारत में रेल का प्रसार किया तो महाराणा ने भी उसमें रुचि ली तथा चित्तौड़ से उदयपुर तक रेलवे बनाने का काम आरम्भ करवाने के लिये एक इंजीनियर भी बुला लिया किंतु अचानक महाराणा का निधन हो जाने से महाराणा के समय में यह कार्य आरम्भ नहीं हो सका।
महाराणा द्वारा दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज की सहायता
उन्नीसवीं सदी में भारत में सामाजिक पुनर्जागरण का कार्य आरम्भ हुआ जिसके अग्रणी प्रणेता महर्षि दयानंद सरस्वती ने हिन्दू धर्म, सभ्यता और भाषा के प्रचार के लिए 10 अप्रेल 1875 को बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। स्वामीजी के विचारों में भारतीय समाज की जागृति का संदेश था। वे चाहते थे कि सोया हुआ भारत अपने पुरखों के ज्ञान और स्वाभिमान को पहचाने तथा दासता की बेड़ियां काटकर स्वतंत्र हो जाए। इसलिये उन्होंने भारत के अनेक नगरों में घूम-घूम कर प्रवचन दिये जिससे भारत की जनता को अपने प्राचीन गौरव का ज्ञान हुआ।
सदियों से सोई हुई जनता अंगड़ाई लेकर उठ खड़ी हुई तथा उसमें स्वाधीता प्राप्त करने का भाव जागृत होने लगा। जन सामान्य की इस हुंकार के कारण अँग्रेज अधिकारी, आर्य समाज को उग्र हिन्दुत्व का रूप मानते थे जो ब्रिटिश सत्ता का घोर विरोधी था। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अन्तिम वर्ष राजपूताने में व्यतीत हुए। अनेक राजाओं तथा जागीदारों ने उनकी शिक्षा से प्रभावित होकर अपने राज्यों एवं जागीरों में उनके उपदेश करवाये।
ई.1881 में उदयपुर राज्य की बनेड़ा जागीर के जागीदार राजा गोविन्दसिंह के निमन्त्रण पर स्वामीजी बनेड़ा आये जहाँ वे सोलह दिन रहे। इस दौरान स्वामीजी ने राजा गोविन्दसिंह के दोनो पुत्रों- अक्षयसिंह और रामसिंह को सस्वर वेद पाठ करना सिखाया। इसके बाद स्वामीजी चितौड़गढ़ आ गये। महाराणा सज्जनसिंह ने अपने सामंतों के साथ बैठकर, चित्तौड़ के दुर्ग में स्वामीजी से मनुस्मृति, पातंजलि योगसूत्र और वैशेषिक दर्शन के उपदेश सुने तथा उन्हें उदयपुर आने का निमंत्रण दिया।
स्वामीजी ने महाराणा का अनुरोध स्वीकार कर लिया तथा चित्तौड़ से बम्बई की यात्रा करने के बाद स्वामीजी 11 अगस्त 1882 को उदयपुर आये। महाराणा तथा उसके सरदारों ने स्वामीजी से राजनीति तथा राजधर्म की शिक्षा ग्रहण की। महाराणा एक घण्टे में मनुस्मृति के 22 श्लोकों का आशय याद कर लेता था। स्वामीजी के उपदेशों को सुनकर स्वाभिमानी महाराणा तथा उनके सामंतों के मन में अपने पूर्वजों के गौरव का ज्ञान उत्पन्न हुआ।
स्वामी दयानंद ने उदयपुर में ही सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण को समाप्त कर उसकी भूमिका लिखी और वहीं रहते समय परोपकारिणी सभा की स्थापना कर महाराणा को उसका सभापति नियत किया। महाराणा ने परोपकारिणी सभा के लिये 10 हजार रुपये दिये। उनके सरदारों ने भी इस कार्य में सहयोग दिया जिससे एक अच्छी राशि एकत्रित हो गई। स्वामीजी ने अपने संग्रह किये हुए ग्रंथ, धन और यंत्रालय आदि को परोपकार में लगाने की आज्ञा देकर उदयपुर में ही उसका स्वीकार पत्र तैयार किया और उसके 23 ट्रस्टियों में महाराणा तथा मेवाड़ के सात प्रमुख व्यक्ति- बेदला का राव तख्तसिंह, देलवाड़ा का राव फतहसिंह, आसींद का रावत अर्जुनसिंह, शाहपुरा का राजाधिराज नाहरसिंह, शिवरती का महाराज गजसिंह, कविराजा श्यामलदास और पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या को सम्मिलित किया।
महाराणा ने स्वामीजी से षड्दर्शन का भाष्य छपवाने का अनुरोध किया और उसके लिये 20 हजार रुपये व्यय करने का वचन दिया। 27 फरवरी 1882 को जब महर्षि ने महाराणा से विदा ली। महाराणा ने स्वामीजी की सेवा में उपस्थित होकर 2000 रुपये भेंट किये किंतु स्वामीजी ने वह राशि लेने से मना कर दिया। इस पर महाराणा ने वह राशि परोपकारिणी सभा को दे दी। यह महर्षि की महाराणा से अंतिम भेंट थी। जोधपुर में विष दे दिये जाने के कारण 30 अक्टूबर 1883 को दयानंद का अजमेर में निधन हो गया।
जब महाराणा ने महर्षि के निधन का शोक सुना तो शोक में डूब गया। इस अवसर पर उसने यह छंद रचा –
दोहा
नभ चव ग्रह ससि दीप-दिन, दयानंद सह सत्त्व।
वय त्रैसठ वत्सर बिचै, पायो तन पंचत्व।।
कवित्व
जाके जीह-जोर तें प्रपंच फिलासिफन को,
अस्त सो समस्त आर्य्य मण्डल में मान्यो मैं।
वेद के विरुद्धी मत-मत के कुबुद्धि मंद,
भद्र-मद्र आदिन पै सिंह अनुमान्यो मैं।।
ज्ञाता षट्ग्रंथन को वेद को प्रणेता जेता,
आर्य-विद्या अर्क हू को अस्ताचल जान्यो मैं।
स्वामी दयानंदजू के विष्णु-पद प्राप्त हू तें,
पारिजात को सो आज पतन प्रमान्यो मैं।।
दुर्भाग्य से महाराणा सज्जनसिंह का भी लगभग एक वर्ष बाद 23 दिसम्बर 1884 को निधन हो गया। यदि दयानंद अथवा महाराणा में से कोई भी एक व्यक्ति अधिक काल तक जीवित रहा होता तो आर्य समाज का इतिहास किसी अन्य रूप में लिखा जाता।