Saturday, July 27, 2024
spot_img

महाराणा प्रताप द्वारा मुगलों और कच्छवाहों को दण्ड

हल्दीघाटी के युद्ध को सात साल बीत चुके थे। चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, गोगूंदा और उदयपुर पर मुगलों का अधिकार था तथा महाराणा प्रताप पहाड़ी गांवों में रह रहा था। अकबर अपनी सारी शक्ति मेवाड़ के विरुद्ध झौंककर पूरी तरह निराश हो गया था। अक्टूबर 1583 में महाराणा ने कुंभलगढ़ पर अधिकार करने की योजना बनाई। सबसे पहले उसने दिवेर थाने पर आक्रमण किया जहाँ अकबर की ओर से सुल्तानखां नामक थानेदार नियुक्त था। जब प्रताप की सेना ने दिवेर पर आक्रमण किया तो आसपास के पांच और मुगल थानेदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिवेर पहुँच गये। [1]

प्रताप की सेना दिवेर के बाहर मोर्चा बांधकर बैठ गई। एक दिन जब मुगलों की सेना घाटी में गश्त लगाने निकली तो प्रताप ने उस पर धावा बोल दिया। प्रताप के वीर सैनिक सोलंकी परिहार ने सुल्तानखां के हाथी के पांव काट दिये। प्रताप ने अपने भाले से हाथी के कुंभ स्थल को फोड़ दिया। प्रताप के कुंवर अमरसिंह ने भी भाले से वार किया जिससे हाथी के कुंभ स्थल के दो टुकड़े हो गये और वह मर गया।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO.

इसके बाद अमरसिंह ने सुल्तानखां की छाती में अपना भाला दे मारा। अमरसिंह के वार से ही थानेदार की मृत्यु हुई। थाने के दूसरे अधिकारी भी मारे गये तथा थाने पर महाराणा का अधिकार हो गया। इसके बाद वहाँ पहुँचे आसपास के चौदह मुगल थानेदार भी प्रताप का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाये। दीवेर के युद्ध के बाद अमरसिंह ने एक ही दिन में मेवाड़ से मुगलों के पांच थाने हटा दिये। यह क्रम शेष 36 थाने उठाये जाने तक जारी रहा। इसके बाद महाराणा ने कुम्भलगढ़, जावर एवं चावण्ड को जीता।[2]

कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मेरेथान कहा है। दिवेर तथा मेरेथान के युद्धों में अवश्य समानता है।[3] दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों से अपनी धरती ठीक उसी तरह वापस छीन ली थी जिस तरह मेरेथान के युद्ध में यूनानियों ने ईरानियों को अपने देश से बाहर निकाल दिया था। मेवाड़ में अपने थानेदारों का पराभव देखकर अकबर ने मिर्जाखां (अब्दुर्रहीम खानखाना) को मेवाड़ भेजा ताकि वह महाराणा को समझा-बुझाकर अकबर की अधीनता स्वीकार करवाये।

मिर्जाखां ने भामाशाह से बात की किंतु भामाशाह ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार दिया। इसके बाद महाराणा प्रताप ने अपने ही कुल के उन दो राजाओं को दण्डित करने का निर्णय लिया जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। महाराणा ने बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर पर आक्रमण किया तथा उनके शासकों से अपनी अधीनता स्वीकार करवाई।[4]

ई.1576 में हल्दीघाटी में हुई मुगलों की पराजय का बदला ई.1584 तक नहीं लिया जा सका था, इसलिये अकबर की उद्विग्नता बढ़ती ही जाती थी। हल्दीघाटी की असफलता के बाद से, हिन्दू सेनापतियों को महाराणा प्रताप के विरुद्ध नहीं भेजा जा रहा था किंतु जब समस्त मुसलमान सेनापति भी प्रताप के विरुद्ध असफल सिद्ध हुए तो 6 दिसम्बर 1584 को अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये भेजा। मिर्जा जफर बेग को बख्शी बनाकर उसके साथ किया गया।[5]  जगन्नाथ कच्छवाहा दो वर्ष तक पहाड़ों में भटकता रहा किंतु महाराणा का बाल भी बांका नहीं कर सका। ई.1586 में वह चुपचाप काश्मीर चला गया।[6]

अकबर समझ चुका था कि हिन्दुओं के इस सूर्य को ढंक लेना उसके वश की बात नहीं। अकबर के सेनापति एक-एक करके पराजय का कलंकित जीवन जीने पर विवश हुए थे। अतः अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहे के बाद फिर किसी को मेवाड़ नहीं भेजा। जगन्नाथ के लौट जाने के बाद महाराणा प्रताप 11 वर्ष तक अपनी प्रजा का पालन करते रहे। इस बीच उन्होंने एक वर्ष की अवधि में ही अकबर के उन समस्त थानों को उठा दिया जो अकबर ने प्रताप के जीवन काल में प्रताप से छीने थे। ई.1586 तक केवल चित्तौड़गढ़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर महाराणा प्रताप ने पूरा मेवाड़ अपने अधीन कर लिया।[7]

मुगलों का गर्व धूल में मिलाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने कच्छवाहों को दण्डित करने का संकल्प लिया। प्रताप ने आम्बेर राज्य पर आक्रमण करके कच्छवाहों के धनाढ्य नगर मालपुरा को लूट कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।[8] प्रबल प्रतापी कच्छवाहे जिनकी लड़कियां अकबर के महलों में बैठी थीं और जिन कच्छवाहों का डंका पूरे भारत में बजता था, महाराणा प्रताप के विरुद्ध कुछ न कर सके।


[1] सूर्यवंश, पृ. 54, ग्रंथांक 827, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर।

[2] अमरकाव्य वंशावली, उद्धृत, डॉ. गिरीशनाथ माथुर, पूर्वोक्त, पृ. 190.

[3] यह प्रसिद्ध रणक्षेत्र ग्रीस देश की राजधानी एथेंस से 22 मील पूर्वोत्तर ऐटिका प्रांत में है। यहाँ ई. पू. 490 में यूनानियों की ईरानियों के साथ गहरी लड़ाई हुई थी, जिसमें यूनानियों ने सेनापति मिल्टियाडेस की अध्यक्षता में अद्भुत वीरता दिखाई तथा ईरानियों को अपने देश से मार भगाया।

[4] जेम्स टॉड, पृ. 159.

[5] अकबरनामा, पूर्वोक्त, जि. 3, पृ. 661.

[6] मुंशी देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. 42.

[7] मुंशी देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. 44; श्यामलदास, पूर्वोक्त, पृ. 164.

[8] जेम्स टॉड, पूर्वोक्त, जि. 1, पृ. 388-89; मुंशी देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. 44.

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source