Sunday, December 22, 2024
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महाराणा भूपालसिंह द्वारा भारत संघ योजना को समर्थन

भारत संघ योजना

बीसवीं सदी के आरम्भ में ब्रिटिश भारत तथा रियासती भारत दोनों ही क्षेत्रों में यह मांग उठने लगी थी कि इन दोनों ‘भारतों’ में एक जैसी शासन व्यवस्था, एक जैसा संविधान तथा एक जैसी नागरिक सुविधाएं उपलब्ध की जाएं। अंग्रेज शासक भी इस बात के इच्छुक थे कि ‘आसेतु हिमालय’ एक भारत संघ का निर्माण हो जिसमें ब्रिटिश भारत के साथ-साथ समस्त देशी रियासतें भी भागीदार बनें। 31 अक्टूबर 1929 को लॉर्ड इरविन ने घोषणा की कि साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद शीघ्र ही ब्रिटिश सरकार एक गोलमेज सम्मेलन का आयोजन करेगी जिसमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार से मिलेंगे और भारत के लिये नवीन संविधान के सिद्धांतों पर विचार करेंगे।

इस घोषणा से यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय रियासतों को ब्रिटिश प्रांतों के साथ एक समान राजनीतिक व्यवस्था में लाने को उत्सुक थी। साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद इंग्लैण्ड की गोरी सरकार ने, भारत में निवास करने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, हरिजन, व्यापारी, जमींदार, श्रमिक, राजनीतिक दल एवं विभिन्न संगठन तथा संस्थाओं के नेताओं से वार्त्ता करने के लिये ई.1930, 1931 एवं 1932 में लंदन में एक-एक गोलमेज सम्मेलन बुलाये जिनमें भारत संघ के निर्माण एवं उसके भावी स्वरूप के निर्धारण सम्बन्धी विचार-विमर्श किये गये।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन: प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राजाओं ने बीकानेर नरेश गंगासिंह आदि के नेतृत्व में, भारत संघ के निर्माण की दिशा में उत्साहजनक रुचि दिखाई तथा तेज बहादुर सपू्र द्वारा राजाओं को भारत संघ में सम्मिलित होने के लिये दिये गये निमंत्रण का जोर-शोर से स्वागत किया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन: द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राजाओं के मध्य तीव्र मतभेद उभर कर सामने आये। ये मतभेद संघीय विधान में राज्यों के प्रतिनिधित्व तथा संघ में सम्मिलित होने वाली रियासतों की वित्तीय जवाबदेही को लेकर थे। संघीय विधान में राज्यों के प्रतिनिधित्व के बारे में राजाओं के तीन धड़े बन गये। हैदराबाद, मैसूर और बड़ौदा जैसी बड़ी रियासतों ने मांग की कि प्रतिनिधित्व रियासतों की जनसंख्या के अनुपात में हो। महाराजा बीकानेर ने मांग की कि उच्च सदन में 250 सीटें हों जिनमें से 50 प्रतिशत सीटें रियासतों को मिलें ताकि नरेन्द्र मण्डल के प्रत्येक सदस्य को सीट मिल सके। वे बड़े राज्यों को एक-दो सीटें अधिक देने के लिये भी तैयार थे। पटियाला महाराजा की मांग थी कि अखिल भारतीय संघ के निर्माण से पूर्व, समस्त रियासतों का एक महासंघ बने।

तृतीय गोलमेज सम्मेलन: द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के बाद राजाओं को समझ में आ गया कि भारत संघ में सम्मिलित होने पर उन्हें अपने अपरिमित अधिकारों से वंचित होना पड़ सकता है। इसलिये उन्होंने तीसरे सम्मेलन में स्वयं न जाकर अपने मंत्रियों को भेज दिया। 17 नवम्बर 1932 को तृतीय गोलमेज सम्मेलन का समापन हुआ। इस संक्षिप्त सत्र में संघीय संविधान के संगठन तथा संघ में सम्मिलन के लिये राज्यों की ओर से निष्पादित किये जाने वाले प्रविष्ठ संलेख ;प्छैज्त्न्डम्छज् व्थ् ।ब्ब्म्ैैप्व्छद्ध पर विचार विमर्श किया गया।

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उदयपुर द्वारा उच्च सदन में राज्यों को बराबर प्रतिनिधित्व दिये जाने का विरोध

तृतीय सम्मेलन में छोटे राज्यों द्वारा यह राय बनाने का प्रयास किया गया कि प्रस्तावित संघ के उच्च सदन में प्रत्येक राज्य का कम से कम एक प्रतिनिधि अवश्य हो ताकि प्रत्येक राज्य को प्रतिनिधित्व मिल सके। बड़े राज्य इस फार्मूले से सहमत नहीं थे। इसलिये 10 दिसम्बर 1932 को हैदराबाद के प्रतिनिधि सर अकबर हैदरी ने ब्रिटिश गवर्नमेंट के राज्य सचिव होअरे को सूचित किया कि हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा तथा संभवतः जोधपुर एवं उदयपुर चाहते हैं कि उच्च सदन में 200 से कम सीटें हों जिनमें से 50 प्रतिशत देशी राज्यों को मिलें तथा उच्च सदन में समस्त राज्यों को बराबर प्रतिनिधित्व न दिया जाकर सीटों का बंटवारा राज्य के महत्त्व एवं आकार के हिसाब से हो।

उदयपुर द्वारा राज्यों के लिये वित्तीय सुरक्षा की मांग

अप्रेल 1933 में उदयपुर, जयपुर एवं जोधपुर द्वारा एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया गया जिसमें, प्रस्तावित संघ में प्रवेश करने वाले राज्यों के लिये वित्तीय सुरक्षा की मांग की गई। इन तीनों प्रमुख राज्यों ने नरेन्द्र मण्डल के वक्तव्य पर दुबारा खेद व्यक्त करते हुए कहा कि वे परमोच्चता के विषय में नरेन्द्र मण्डल द्वारा पारित किये गये प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं। भारत संघ में प्रवेश तथा परमोच्चता दो अलग-अलग मामले हैं।

राष्ट्रीय राजनीति को संतुलित करने का प्रयास

गोलमेज सम्मेलनों में अब तक बीकानेर, हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा, पटियाला तथा अलवर आदि गिने-चुने राज्य ही भारतीय राजाओं की ओर से पैरवी कर रहे थे किंतु ई.1933 में उदयपुर, जपयुपर एवं जोधपुर द्वारा संयुक्त वक्तव्य जारी करके भारत संघ में प्रवेश के विषय पर स्पष्ट राय रखने का प्रयास वास्तव में उस काल की देशी नरेशों की राजनीति को संतुलित करने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिये। वस्तुतः राजपूताने में उदयपुर, जयपुर एवं जोधपुर ही वे तीन राज्य थे जिनका स्टेटस राजपूताने के एजीजी से भी बढ़कर था और भारत संघ में प्रवेश के विषय पर ये तीनों राज्य, एक स्वर में बोल रहे थे।

भारतीय राजाओं का भारत संघ में मिलने से इन्कार

गोलमेज सम्मेलनों की कार्यवाहियों के आधार पर लंदन की सरकार द्वारा एक श्वेतपत्र जारी किया गया तथा इसके अध्ययन के लिये मारकीस ऑफ लिनलिथगो की अध्यक्षता में संयुक्त प्रवर समिति का गठन किया गया। इस समिति द्वारा दी गई अनुशंसाओं के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 का निर्माण किया गया जिसमें प्रावधान किया गया कि ब्रिटिश भारत और स्वेच्छा से सम्मिलित होने वाली देशी रियासतों के अखिल भारतीय संघ में पूर्ण उत्तरदायित्व युक्त सरकार का निर्माण हो स्वेच्छा वाले उपबंध का लाभ उठाते हुए, भारतीय राजाओं ने संघ में सम्मिलित होने से मना कर दिया।

मारकीस ऑफ लिनलिथगो का भारत आगमन

ई.1936 में मारकीस ऑफ लिनलिथगो को भारत का वायसराय बनाया गया। लिनलिथगो संयुक्त प्रवर समिति का अध्यक्ष रह चुका था। वह भारत संघ के उद्घाटन की इच्छा लेकर भारत आया। लिनलिथगो को भारतीय राजाओं से सहानुभूति थी। वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहता था जिससे राजाओं का दिल दुखे। उसकी राय में राजा ही भारत से ब्रिटिश सम्बन्धों का प्रमुख आधार एवं तत्व थे। फिर भी वह चाहता था कि भारत संघ का निर्माण हो तथा राजा उसमें स्वेच्छा से भागीदार बनें।

भारत सरकार द्वारा वार्त्ताकारों की नियुक्ति

राजाओं को संघ योजना में अड़ंगा लगाते हुए देखकर लिनलिथगो ने देशी राज्यों में अपने तीन विशेष प्रतिनिधियों- सर कोर्टने लेटीमर, सर फ्रांसिस वायली तथा सर आर्थर लोथियान को भेजा। फ्रांसिस वायली को राजपूताना के नरेशों से वार्त्ता करने के लिये भेजा गया। लिनलिथगो का मानना था कि संघ योजना देशी राज्यों के शासकों के हित में थी। इसलिये उसने अपने प्रतिनिधियों को दायित्व सौंपा कि वे राजाओं तथा उनके मंत्रियों को संघ में सम्मिलन की प्रक्रिया तथा उसका अर्थ समझायें।

भारत सचिव, वायसराय की इस कार्यवाही को उचित नहीं मानते थे किंतु बाद में वे सहमत हो गये। इन अधिकारियों को प्रविष्ठ संलेख की प्रतियाँ उपलब्ध करवायी गयीं जो कि राज्यों को पहले से ही भेजी जा चुकी थीं। इन अधिकारियों को वायसराय के लिखित आदेश भी दिये गये। वायसराय के इन विशेष अधिकारियों ने ई.1936-37 की सर्दियों में विभिन्न राज्यों का दौरा किया।

देशी राजाओं का सतर्क रवैया

जैसे ही शासकों को वायसराय के इस निर्णय की जानकारी हुई, वे चौकन्ने हो गये। वे पहले से ही कांग्रेस द्वारा प्रजामण्डलों के माध्यम से बनाये जा रहे इस दबाव से त्रस्त थे कि शासक अपने आंतरिक शासन लोकप्रिय सरकारों को समर्पित कर दें। शासकों ने समझा कि अब परमोच्चसत्ता राज्यों का आंतरिक शासन, भविष्य में बनने वाले संघ को समर्पित कर देने के लिये दबाव बना रही है तथा परमोच्चसत्ता, शासकों से सौदा करना चाहती है। इसलिये शासकों ने इन विशेष प्रतिनिधियों से वार्त्ता करने के लिये चालाक मंत्रियों एवं संवैधानिक विशेषज्ञों को नियुक्त किया।

वायसराय के प्रतिनिधियों ने देशी राज्यांे के राज्याधिकारियों एवं शासकों से हुए विचार विमर्श के दौरान पाया कि राज्यों के शासकों का मानस, संघ में सम्मिलन का नहीं था। वे प्रस्तावित संघ को अपनी सुरक्षा तथा सम्प्रभुता के लिये सबसे बड़ा खतरा समझते थे। इन विचार विमर्शों के दौरान शासकों ने स्पष्ट कर दिया कि शासकों के लिये देश की एकता की प्रेरणा प्रमुख नहीं थी और न ही वे संघ में सम्मिलन के लिये चिरौरी करने की इच्छा रखते थे। उन्हें जिस प्रश्न ने विचलित कर रखा था वह यह नहीं था कि संघ का निर्माण उन्हें सम्पूर्ण भारत के हित के लिये भागीदारी निभाने का अवसर देगा, अपितु उनके समक्ष विचलित करने वाला प्रश्न यह था कि उनकी अपनी स्थिति, संघ के भीतर अधिक सुरक्षित और बेहतर होगी अथवा संघ से बाहर।

भारत संघ योजना पर महाराणा से विचार विमर्श

अगस्त 1936 में वायसराय लिनलिथगो ने उदयपुर के महाराणा को वायली की नियुक्ति के बारे में सूचित किया जो संघ के प्रभावों को स्पष्ट करने के लिये वायसराय के निजी दूत के रूप में उदयपुर की यात्रा करेगा। 20 नवम्बर 1936 को ऑग्लिवी तथा वायली ने उदयपुर में संघ सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं पर महाराणा भूपालसिंह तथा उनके प्रधानमंत्री पं. धर्मनारायण से विचार विमर्श किया।

मेवाड़ राज्य, भारत की सनातन राज्यधर्म परम्परा का प्रतिनिधित्व करता था जिसमें उच्च हिन्दू आदर्श, उदात्त राष्ट्रभाव तथा वैदिक मान्यताओं को सर्वोपरि समझा जाता था। जबकि प्रस्तावित संघ में हिन्दू राज्यों के साथ बड़ी संख्या में मुस्लिम राज्यों को भी एक ही शासन व्यवस्था के नीचे आना था। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में विश्वास करने वाले पठानों, पख्तूनों, पिण्डारियों, मुगलों, अवध के नवाबों, हैदराबाद के निजामों, सिंध के शहजादों, बलूच सरदारों, दक्खिन के मराठों, पंजाब के सिक्खों, असम क्षेत्र की मंगोल एवं नागा जातियों से लेकर दक्षिण भारत के विविध राज्यों को एक ही शासन व्यवस्था के अंतर्गत आना था।

अतः स्वाभाविक था कि महाराणा तथा उनके प्रधानमंत्री, प्रस्तावित भारत संघ में होने वाली व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में अंग्रेज अधिकारियों से खुलकर विचार-विमर्श करते। महाराणा तथा उनके प्रधानमंत्री ने अपनी शंकाएं वायसराय के प्रतिनिधियों के समक्ष रखीं तथा जो कठिनाइयां भावी संघ के निर्माण से भारतीय प्रजा और देशी राजाआंे के समक्ष उत्पन्न हो सकती थीं, उनके बारे में उन्हें सावधान किया।

महाराणा और उनके प्रधानमंत्री के प्रश्नों और शंकाओं ने ऑग्लिवी को आशंकित कर दिया। उन्हें लगा कि महाराणा, प्रस्तावित संघ में सम्मिलित न होने के लिये ही यह सब कर रहे हैं। इसलिये 21 नवम्बर को ऑग्लिवी ने ग्लांसी को लम्बा पत्र लिखकर अपने विचार-विमर्श का सारांश सूचित किया-

‘कल उदयपुर के हिज हाइनेस तथा उनके मुसाहिबे आला (प्रधानमंत्री) दीवान बहादुर पण्डित धर्मनारायण के साथ संघीय वार्त्तालाप हुआ जिसका परिणाम संतोषजनक नहीं रहा। महाराणा को संघ के मसले की कोई जानकारी नहीं है तथा मुसाहिबे आला पं. धर्मनारायण ने बहुत बड़ी संख्या में अस्वीकार्य बाधाएं प्रस्तुत की हैं जिनका उद्देश्य स्पष्टतः संघीय मामलों में राज्य की संप्रभुता तथा आंतरिक अधिकार क्षेत्र को किंचित भी चोट नहीं आने देना है। आज प्रातः मैंने पं. धर्मनारायण से लम्बी वार्त्ता की तथा राज्य द्वारा इस प्रकार का रुख अपनाये जाने पर असंतोष तथा आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने मुझे बताया कि उनके लिये संघ के मार्ग में आने वाली प्रत्येक संभावित कठिनाई को सामने लाना अत्यंत आवश्यक था क्योंकि राज्य के ऐसे कई हित हैं जो हिज हाइनेस के आत्मविश्वास को डगमगाने के लिये अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि कोई भी व्यक्ति बाद में मुझे यह नहीं कहे कि मैंने यह बात हिज हाइनेस को नहीं बताई। हालांकि उन्होंने संघ में सम्मिलित नहीं होने की इच्छा का खण्डन किया है किंतु मेरा विश्वास है कि इतने सारे पूर्वाग्रहों के कारण वे संघ में सम्मिलन के लिये ऐसी शर्तें लगायेंगे जिन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकेगा।

प्रधानमंत्री की सलाह पर कुछ समय पहले ही महाराणा ने राजपूताने के समस्त राजाओं को संघ के प्रश्न पर विचार विमर्श करने के लिये दिसम्बर में उदयपुर आने का निमंत्रण दिया है। यदि 6 साल पहले महाराणा ने इस प्रकार का कदम उठाया होता तो उसमें कोई उद्देश्य निहित होता किंतु निर्णय की इस अंतिम घड़ी में राजपूताना के राजाओं को सामूहिक रूप से बुलाने के पीछे मुझे तथा वायली को अत्यंत खराब सलाह जान पड़ती है। मैंने पं. धर्मनारायण से कहा कि क्या इस तरह का कदम उठाने के पीछे तथा कल जो वार्त्तालाप हुआ है उसके पीछे महाराणा की इच्छा राजपूताने के अन्य राजाओं को यह सलाह देने की है कि वे संघ में सम्मिलित न हों?

यदि हिज हाइनेस की इच्छा मशीन में धूल डालने की है तो इसके परिणाम बुरे होंगे। यदि महाराणा स्वयं संघ में सम्मिलित न होना चाहें तो यह उनका अपना मामला है किंतु अन्य छोटे राज्यों को अपने स्वतंत्र चिंतन से रोकने की सलाह नहीं दी जा सकती। उन्हें बिना किसी बाह्य दबाव के, स्वतंत्रता पूर्वक अपने निर्णय पर पहुंचना है। मैंने धर्मनारायण से यह भी कहा कि यदि छोटे राज्यों ने उदयपुर में विचार विमर्श के बाद संघ में न मिलने का निर्णय लिया तो उसका केवल यही अर्थ निकाला जायेगा कि महाराणा ने उन्हें उकसाया है। इस पर धर्मनारायण ने कहा कि यदि यह प्रस्ताव महामहिम वायसराय को पसंद नहीं है तो हिज हाइनेस इस पर आगे नहीं बढ़ेंगे। मैंने धर्मनारायण से कहा कि यही उचित होगा कि इस समय उदयपुर में राजाओं का सम्मेलन न बुलाया जाए।

जब 28 नवम्बर को वायसराय महाराणा से मिलेंगे तो इस विषय पर बात करने की स्थिति में होंगे। अब तक की स्थिति के अनुसार मैं समझता हूँ कि धौलपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, बंूदी, सिरोही तथा झालावाड़ के शासकों ने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है जबकि बीकानेर महाराजा ने महाराणा को आगे आने के लिये बधाई का तार भेजा है तथा स्वयं उनकी उपस्थिति अनिश्चित है। जबकि दूसरी तरफ जोधपुर महाराजा ने जवाब दिया है कि इस अंतिम समय में उन्हें संघ पर विचार विमर्श करने में आपत्ति है। मुझे संदेह है कि जयपुर महाराजा, जिन्होंने अब तक कोई जवाब नहीं भेजा है, उदयपुर आयेंगे। पं. धर्मनारायण ने मुझे कहा है कि महाराणा यह कहकर इस बैठक को निरस्त कर सकते हैं कि चूंकि जोधपुर के महाराजा इसमें भाग लेने के लिये नहीं आ रहे हैं इसलिये इस बैठक का कोई औचित्य नहीं है।

22 नवम्बर 1936 को महाराणा भूपालसिंह ने वायसराय को लिखा कि आपके विशेष दूत तथा राजपूताना के ए.जी.जी. की यात्रा मेरे लिये अत्यंत मूल्यवान रही है। मेरी इच्छा उच्च अभिसंधान व्यक्त करने की है जो महामहिम की संतुष्टि तथा अपनी सहमति के लिये है। 23 नवम्बर 1936 को वायली ने वायसराय के राजनीतिक सचिव को पत्र लिखा कि उदयपुर में संघीय विचार विमर्श कल हुआ तथा उसी दिन समापन भी हो गया……. सिरोही के अतिरिक्त अन्य किसी राज्य ने, जिनमें कि मैं गया हूँ, ने इतनी अधिकता के साथ भारत संघ की योजना के लिये प्रंशसा का अभाव नहीं दिखाया है जितना कि उदयपुर ने दिखाया है। पूरे राज्य का वातावरण इतना संकुचित है……. यदि उदयपुर में राजपूताना के राजाओं का सम्मेलन हो जाता है तो महाराणा तथा उनके सलाहकार राजपूताना के राजाओं को कोई उचित सलाह नहीं दे पायेंगे क्योंकि उन्हें इस योजना का कोई ज्ञान ही नहीं है।’

राष्ट्रहित में महाराणा का सकारात्मक प्रत्युत्तर

ऑग्लिवी तथा वायली की आशंकाओं के विपरीत महाराणा का उत्तर अत्यंत सकारात्मक था। उन्होंने प्रस्तावित संघ के लिये की जाने वाली उन समस्त व्यवस्थाओं को स्वीकार कर लिया था जो भारत की सनातन परम्पराओं के अनुकूल थीं तथा उन धाराओं को मानने से इन्कार कर दिया जो सनातन परम्पराओं के प्रतिकूल थीं। महाराणा के प्रत्युत्तर से राजपूताना के ए.जी.जी को आश्चर्य हुआ। उसने 10 फरवरी 1937 को भारत सरकार को मेवाड़ राज्य से प्राप्त जवाब भिजवाया- ‘राज्य से प्राप्त जवाब मेरी तथा मि. वायली की आशा से कहीं अधिक संतोषजनक है। महाराणा ने सारा मामला भारत सरकार के हाथ में यह कहकर छोड़ दिया है कि जिन मामलों में महाराणा की शर्तें हैं, उन मामलों में भारत सरकार मेवाड़ राज्य के साथ वही बर्ताव करेगी जो वह अन्य प्रमुख राज्यों के साथ किया जाना सुनिश्चित करेगी।

महाराणा 47 मदों में से कुल 24 मद, मद संख्या 2, 4, 6, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 16, 18, 21, 22, 23, 25, 27, 28, 37, 38, 40, 41, 42, 43, तथा 52 बिना किसी शर्त के स्वीकार करते हैं। महाराणा, मद संख्या 1, 3, 5, 7, 17, 19, 20, 24, 26, 29, 30, 31, 32, 33, 34, 35, 39, 44, 45, 46, 47, 53 तथा 59 अर्थात् कुल 20 मद कुछ शर्तों के साथ स्वीकार करते हैं तथा मद संख्या 15 एवं 36 को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका मानना है कि शेष मदों पर इस समय प्रवेश करना आवश्यक नहीं है। मद संख्या 45 पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है तथा इसके बारे में बाद में सूचित करने का आश्वासन दिया है।’

भले ही महाराणा ने भारत राष्ट्र के हितों को देखते हुए प्रस्तावित भारत संघ के प्रति अपने समर्थन का संकेत कर दिया था किंतु वास्तविकता यह थी कि ब्रिटिश भारत के राजनैतिक दलों की प्रतिक्रियावादी और शत्रुतापूर्ण प्रवृत्ति ने राजाओं के मन में एक स्वाभाविक अविश्वास और संदेह उत्पन्न कर दिया था। न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये, जो एक मूल प्रवृत्ति है, बल्कि संघ की अपनी मूल धारणा को पूर्ण न होते देखकर भी राजा लोग निराश हो गये।

4 मार्च 1939 को वायसराय लिनलिथगो उदयपुर आया। उसके सम्मान में राज्य की ओर से आयोजित भोज के अवसर पर महाराणा ने अपने भाषण में कहा कि चूंकि वे प्रविष्ठ संलेख के प्रारूप पर विचार कर रहे हैं इसलिये उसके बारे में कोई रुख स्पष्ट करना अवधि पूर्व कदम होगा। इस पर लिनलिथगो ने अपने भाषण में महाराणा को जवाब दिया कि मैं केवल यह दोहराना चाहूंगा कि भारतीय राज्यों तथा वस्तुतः संपूर्ण भारत के सम्बन्ध में मूलभूत महत्व के इस प्रकरण में निर्णय केवल एक ही है कि उसे सम्बन्धित राजा के व्यक्तिगत निर्धारण के लिये छोड़ दिया गया है।

संघ योजना स्थगित होने की घोषणा

राजाओं के सौभाग्य से 3 सितम्बर 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रिटिश सरकार ने प्रजातंत्र और स्वतंत्रता के नाम पर भारतीयों से अपील की कि वे साम्राज्य की रक्षा करें। 11 सितम्बर 1939 को वायसराय ने दोनों सदनों में घोषणा की कि अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण भारत संघ के निर्माण की योजना स्थगित की जा रही है। इस प्रकार भारत संघ योजना असफल हो गयी तथा विगत 12 वर्षों से भी अधिक समय में व्यय किया गया धन, श्रम एवं समय व्यर्थ चला गया।

द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों को सहयोग

द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने पर ब्रिटिश सरकार को राजाओं से आदमी, धन तथा सामग्री के रूप में सहायता की आवश्यकता थी। राजपूताने के राजाओं ने ब्रिटिश सरकार की भरपूर सहायता की। मेवाड़ महाराणा भूपालसिंह ने युद्ध आरंभ होते ही 75 हजार रुपये युद्धकोष में भिजवाये तथा युद्ध चलने तक प्रतिवर्ष 50 हजार रुपये भिजवाने का वचन दिया। ई.1940 में मेवाड़ लांसर्स तथा मेवाड़ इन्फेंट्री को मध्य-पूर्व में लड़ने के लिये भेजा गया। युद्धकाल में राजसमंद झील का उपयोग नौसैनिक वायुयानों के लिये लैंण्डिंग बेस के रूप में किया गया। ब्रिटिश आर्मी के लिये मेवाड़ी नौजवान भर्ती किये गये तथा युद्ध सामग्री भी प्रदान की गयी।

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