महादजी सिन्धिया ने मरुधरानाथ से संधि तो कर ली थी किंतु वह संतुष्ट नहीं था। वह तो मारवाड़ को नष्ट-भ्रष्ट करके मरुधरानाथ को हमेशा के लिये ऐसा सबक सिखाना चाहता था कि फिर कभी राजपूताना का कोई राजा-महाराजा मराठों के समक्ष उठ खड़े होने का प्रयास नहीं करे किंतु अन्य मराठा सरदारों के दबाव के कारण महादजी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया था। इसलिये वह मरुधरानाथ के विरुद्ध कुछ न कुछ षड़यंत्र रचता ही रहता था।
विद्रोही राजकुमार रतनसिंह इन दिनों कुंभलमेर पर अधिकार करके बैठा था और स्वयं को महाराणा कहता था। मरुधरानाथ रतनसिंह के विरुद्ध, महाराणा अड़सी को कई वर्षों से सैनिक सहायता उपलब्ध करवाता आया था तथा उसने नाथद्वारा में एक स्थाई चौकी स्थापित कर रखी थी जिससे रतनसिंह कुंभलमेर से निकलकर उदयपुर तक नहीं पहुँच पाता था। जब महाराणा अड़सी मर गया तब महादजी ने विद्रोही रतनसिंह को पत्र लिखकर उकसाया कि चाणोद का ठाकुर विष्णुसिंह युद्ध में काम आ गया है। आप उसकी मातमपुरसी के लिये गोड़वाड़ जायें तथा गोड़वाड़ का परगना राठौड़ों से छीनकर अधिकार जमा लें। हमारी सेनाएं आपसे कुछ ही दूरी पर रहेंगी और आवश्यकता होने पर आपकी सहायता करेंगी।
रतनसिंह मरुधरानाथ से रुष्ट तो था ही, जब महादजी ने उसे उकसाया तो वह शक्ति के बल पर मरुधरानाथ से गोड़वाड़ छीनने को तैयार हो गया। वह विष्णुसिंह की मातमपुरसी के लिये ससैन्य गोड़वाड़ पहुँचा। उसने घाणेराव ठिकाणे के सरदार राठौड़ दुर्जनसिंह को उसका मन टटोलने के लिये अपनी योजना बताई। ठाकुर दुर्जनसिंह, रतनसिंह का साथ देने के लिये तैयार हो गया। उसने घाणेराव से महाराजा विजयसिंह की सत्ता समाप्त होने की घोषणा कर दी तथा रतनसिंह को अपना स्वामी स्वीकार कर लिया।
इसके बाद रतनसिंह चाणोद पहुँचा। चाणोद की ठकराणी धावलिये की आड़ करके महाराणा से मिली। मातमपुरसी की औपचारिकता के बाद रतनसिंह अपने वास्तविक उद्देश्य पर आया और ठकराणी से अपने मन की बात कही-‘राणी साहिबा, आप जानती ही हैं कि घाणेराव के ठाकुर दुर्जनसिंहजी ने मरुधरानाथ की प्रभुसत्ता मानने से मना करके हमें अपना स्वामी मान लिया है।’
-‘वे अपनी मर्जी के मालिक हैं।’ ठकराणी ने बात को टालने के लिये संक्षिप्त उत्तर दिया।
-‘हम चाहते हैं कि आप भी मारवाड़ को त्यागकर हमारे साथ आ जायें।’ रतनसिंह ने सीधे-सीधे प्रस्ताव रखा।
-‘उदयपुर के महाराणा ने गोड़वाड़ का परगना मरुधराधीश को दिया था। हम तब से उनके नौकर हैं।’ विधवा ठकराणी ने अत्यंत शांत स्वर में रतनसिंह को जवाब दिया।
-‘लेकिन गोड़वाड़ तो उदयपुर के महाराणाओं की थी और आगे भी रहेगी।’
-‘स्वामी! आप उदयपुर के महाराणा नहीं हैं। जब आप उदयपुर के महाराणा बनेंगे और शक्तिशाली होकर इस परगने पर अधिकार करेंगे तो हम आपकी सेवा में रहेंगे। मरुधराधीश से दगा करके आपके साथ सम्मिलित होने से हम नमकहराम हो जाते हैं। इस प्रकार अपना सर्वनाश कराना उचित नहीं है।’
-‘किस के सर्वनाश की बात कर रही हैं राणीसा, अपने या हमारे?’ रतनसिंह ने उत्तेजित होकर कहा।
-‘सिसोदिया वंश के सौभाग्य का सूरज दिन रात आकाश में चमकता रहे। सर्वनाश तो हम छोटे ठाकुरों का ही हो सकता है।’ ठकराणी ने शांत स्वर से उत्तर दिया।
-‘आप निश्चिंत रहें, मरुधरानाथ आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे।’
-‘आप कुंभलमेर पधारें! यदि चाणोद चाहिये तो या तो महाराणा से बात करें या फिर मरुधरानाथ से।’
-‘महादजी सिंधिया चाहते हैं कि चाणोद हमारे पास रहे।’
-‘मराठा सरदार के चाहने से कुछ नहीं होगा। अभी आप राठौड़ों को अच्छी तरह जानते नहीं। वे जान दे सकते हैं किंतु अपनी भूमि नहीं।’
-‘जो राठौड़ ऐसे ही वीर हैं तो मराठों को खण्डनी क्यों देते हैं।’
-‘ये तो राठौड़ के स्वामी ही जानें। मैं फिर आपसे विनती करती हूँ कि राठौड़ों को न छेड़ें। उन्हें आप जानते नहीं, आप उनका कुछ भी नहीं कर सकेंगे। अब आप पधारें।’ ठकराणी ने रतनसिंह को जाने के लिये कह दिया।
रतनसिंह इस प्रत्यक्ष अपमान से तिलमिला गया किंतु एक विधवा ठकराणी के समक्ष अपने क्रोध को प्रकट करके स्वयं को दुर्बल नहीं कहलवाना चाहता था। इसलिये चुपचाप उठ गया। कुंभलगढ़ पहुँचकर उसने अपने सेनापति को आदेश दिया कि गोड़वाड़ से राठौड़ों के थाने उठाकर सिसोदियों की चौकियां बैठा दी जायें।
इसमें कोई संदेह नहीं कि रतनसिंह निरा मूर्ख था। उसने चाणोद की बुद्धिमती विधवा ठकुराइन की सीख को मन में नहीं धरा और बलपूर्वक गोड़वाड़ प्राप्त करने का उद्यम किया। जब यह समाचार महाराजा विजयसिंह को मिला कि सिसोदिये राठौड़ों के थाने उठा रहे हैं तो उसने हमदानी के पुत्र फजलखाँ को अपने चार हजार सैनिक और पाँच सौ घुड़सवार देकर गोड़वाड़ की रक्षा करने के लिये भेजा।
भाग्य की विडम्बना इसी को कहते हैं! जिस समय राठौड़ों और सिसोदियों को एक साथ रहकर मराठों के विरुद्ध लड़ना था, उस समय वे एक छोटे से पहाड़ी टुकड़े के लिये आपस में कट-मर रहे थे। इस युद्ध में मारवाड़ की सेना ने सरलता से रतनसिंह की सेना को परास्त कर दिया। रतनसिंह गुसाईयों के साथ भागकर कुंभलनेर चला गया और घाणेराव का ठाकुर पहाड़ों में भाग गया।
जब घाणेराव का ठाकुर पहाड़ों में भाग गया तो उसके सिपाही शहर में मोर्चे बांध कर बैठ गये। इस पर मरुधरानाथ ने जोधपुर से दो तोपें भेजकर घाणेराव के शहर कोट को गिराने के आदेश दिये। इससे घबराकर घाणेराव वालों ने मरुधरानाथ से क्षमा मांगते हुए दो लाख रुपये का जुर्माना भरने की अनुमति चाही। मरुधरानाथ ने उनसे नौ लाख रुपये हर्जाना मांगा। महादजी सिन्धिया की ओर से रघुनाथ चिटनिस सेना लेकर घटनास्थल से बीस कोस की दूरी पर ठहरा हुआ था किंतु वह रतनसिंह की कोई सहायता नहीं कर सका।