Sunday, October 13, 2024
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34. परदेशियों की रोटी

धायभाई जगन्नाथ ने अपनी माँ से पचास हजार रुपये लेकर वेतन भोगी सेना खड़ी की थी जिसमें परदेशी मुस्लिम सैनिकों को मासिक वेतन पर रखा गया था। यह सेना मारवाड़ में भड़ैत सेना के नाम से बदनाम थी। इसमें सिन्धी, बलूच, पठान तथा ईरानी सैनिकों की संख्या अधिक थी। ये विदेशी सैनिक जोधपुर दरबार का कानून कायदा नहीं मानते थे तथा तलवार के बल पर किये गये कार्य को ही सही मानते थे। सब के सब कलहप्रिय, उपद्रवी, अनुशासनहीन और बात-बात में मरने-मारने पर उतारू रहने वाले थे।

एक दिन एक उद्दण्ड भडै़त सिपाही ने एक बैल को तलवार से चोट पहुँचाई। क्रुद्ध लोगों ने इकट्ठे होकर शहर कोतवाल से शिकायत की। शहर कोतवाल जब उस उद्दण्ड सिपाही को पकड़ने गया तो वह उद्दण्ड सिपाही तथा उसके साथी शहर कोतवाल से भिड़ गये। रक्तपात होने की आशंका देखकर शहर कोतवाल वहाँ से तो चुपचाप लौट आया किंतु उसने महाराज की ड्यौढ़ी पर उपस्थित होकर मरुधरानाथ को सारी बात बताई।

मरुधरानाथ ने भड़ैत फौजी बेड़े के जमादार को हुक्म भेजा कि वह उस उद्दण्ड सिपाही को लेकर ड्यौढ़ी पर हाजिर हो। मरुधरानाथ का आदेश मिलने पर जमादार उसी समय मरुधरानाथ के महल की ड्यौढ़ी पर हाजिर हो गया।

-‘क्यों जमादार! बैल को तलवार मारने वाला तुम्हारा बहादुर सिपाही कहाँ है, उसके दर्शन तो करवाओ।’

-‘गलती हो गई हुजूर। अब भविष्य में ऐसा नहीं होगा।’ फौजी बेड़े के जमादार ने हाथ जोड़कर याचना की।

-‘भविष्य तो किसने देखा है खान, तुम उस सिपाही को हमारे सामने हाजिर करो।’

-‘आप जो चाहे सजा दें, मैं आपकी सेवा में हाजिर हूँ।’

-‘हमें तुम्हारी हाजिरी नहीं चाहिये, उस हरामखोर को हाजिर करो जिसने हमारे राज्य में बैल को तलवार से मारने का अपराध किया है।’

-‘जो हुकुम, अन्नदाता।’ जब जमादार ने देखा कि मरुधरानाथ कुछ सुनने को तैयार नहीं है, वह तो केवल उस सिपाही को हाजिर करने की रट लगाये हुए है, तो वह मुजरा करके बाहर आ गया।

उसने अपने डेरे में आकर अपने सिपाहियों से बात की और उद्दण्ड सिपाही को दरबार के हुजूर में हाजिर होकर माफी की गुजारिश करने का हुक्म दिया तो सारे भड़ैत सिपाही बिगड़ गये-‘हम राजा विजयसिंह की रियाया नहीं है। हमें सिर्फ उसकी ओर से उसके दुश्मनों के खिलाफ जंग करने की तन्खाह मिलती है। राजा हमें जंग के अलावा और कोई हुक्म नहीं दे सकता।’ वही उद्दण्ड सिपाही बोला जिसने बैल को तलवार से चोट पहुँचाई थी।

-‘यह बजा कहता है।’ दूसरे सिपाहियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई।

-‘यदि आप हमें राजा के पास जाकर माफी मांगने के लिये मजबूर करेंगे तो रखिये अपनी नौकरी।’ कुछ सिपाहियों ने उत्तेजित होकर अपने हथियार संभालने आरंभ कर दिये।

जब फौजी जमादार ने अपने सिपाहियों का यह रुख देता और उन्हें बगावत करने पर उतारू देखा तो वह भी चुप लगा कर डेरे में बैठ गया। जब काफी समय तक जमादार उद्दण्ड सिपाही को लेकर मरुधरानाथ की ड्यौढ़ी पर उपस्थित नहीं हुआ तो मरुधरानाथ ने अपने ड्यौढ़ीदार आईदान को जमादार के पास पूछताछ करने के लिये भेजा।

उद्दण्ड सिपाहियों ने ड्यौढ़ीदार आईदान को भी अपमानित करके लौटा दिया। मरुधरानाथ ने किलेदार को बुलाकर आदेश दिया-‘बेड़े के डेरे पर तोपें फेर दो और इन कृतघ्नों को गोली से उड़ा दो।’

-‘क्या गजब करते हैं राजन्? सारे जागीदार हमारे शत्रु हैं और इन्हीं परदेशी सैनिकों के बल पर राज्य चलता है।’ मरुधरानाथ का आदेश सुनकर मुख्तियार गोवर्धन खीची ने निवेदन किया।

-‘राज मत चलो, हमको गाय और बैल मरवाकर राज करना और हुक्म चलाना मंजूर नहीं है।’ मरुधरानाथ ने चिढ़कर कहा

-‘अन्नदाता! एक बार मुझे प्रयास करने की अनुमति प्रदान करें।’ खीची ने अनुरोध किया।

-‘ठीक है, आप भी प्रयास कर लें ठाकरां किंतु स्मरण रहे या तो फौजी जमादार उस हरामखोर सिपाही को लेकर हमारे हुजूर में हाजिर होगा या फिर फिर आज संध्या तक उन कृतघ्नों के डेरों पर तोपें फेरी जायेंगी। इन दो बातों के अतिरिक्त तीसरी कोई बात नहीं होगी।’

-‘जो हुकुम अन्नदाता!’ खीची अपनी पगड़ी संभालता हुआ, मरुधरानाथ से आज्ञा लेकर बाहर आ गया।

गोवर्धन खीची फौजी बेड़े के जमादार से मिला और आँखें गरम करके बोला- ‘क्यों अपनी जान और पाँच हजार परदेशियों की रोटी गंवाते हो? चलकर दरबार से माफी क्यों नहीं मांग लेते?’

-‘मैं क्या करूँ? सिपाही चलने को राजी ही नहीं होते।’ फौजदार ने धरती की तरफ देखते हुए उत्तर दिया।

-‘तुम हिन्दू राज्य की रोटी भी खाओगे और गाय बैल की हत्या करके जवाब देने को बुलाने पर भी हाजिर नहीं होओगे?’

-‘लेकिन तुम हिन्दुओं का यह राज्य हमारे भरोसे पर ही तो टिका हुआ है।’ जमादार ने भी आवेशित होकर उत्तर दिया।

-‘जमादार! एक बात अच्छी तरह समझ लो। राजा राज छोड़ देगा किन्तु उस सिपाही को नहीं जिसने बैल को तलवार मारी है।’

-‘राजा हमारा कुछ नहीं कर सकता।’ उसी उद्दण्ड सिपाही ने खीची को जवाब दिया।

-‘अभी तोपों पर बला पड़ेगी। तुम यहीं भून दिये जाओगे। भागोगे तो भी जीते नहीं बचोगे क्योंकि जोधपुर से बाहर सारे जागीरदार-सरदार तुमसे जले-भुने बैठे हैं। दिल्ली तक तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगे। एक-एक आदमी चुन-चुन कर मार दिया जायेगा। अब तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो।’ गोवर्धन अपनी बात पूरी करके उठ गया।

यह बात सुनकर जमादार के होश ठिकाने आ गये। वह उद्दण्ड सिपाही को अपने साथ लेकर महाराजा की ड्यौढ़ी पर हाजिर होने के लिये सहमत हो गया। गोवर्धन खीची फौजी जमादार और उद्दण्ड सिपाही को अपने संरक्षण में लेकर महल की ड्यौढ़ी पर पहुँचा। गोवर्धन के निर्देशानुसार फौजदार तथा उद्दण्ड सिपाही ने महल की ड्यौढ़ी पर अपने हथियार रखकर मरुधरानाथ से क्षमा याचना की। महाराजा ने दोनों हरामखोरों को आया देखकर उन्हें खूब गालियाँ दीं और बेड़ी हथकड़ी लगाने के आदेश दिये किंतु गोवर्धन के अनुरोध पर मरुधरानाथ ने दोनों को क्षमा कर दिया तथा भविष्य में सावधान रहने के निर्देश देकर छोड़ दिया। वे दोनों किसी तरह अपनी जान बची देखकर जमीन पर माथा टेककर महल से बाहर हो गये। गोवर्धन खीची के आदमी उन्हें अपने संरक्षण में फौजी बेड़े के डेरों तक पहुँचाने के लिये गये।

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