हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर का आश्रित लेखक अल्बदायूनी[1] भी उपस्थित था। उसने इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन इस प्रकार किया है-
जब मानसिंह और आसफखां गोगून्दा से 7 कोस पर दर्रे (घाटी) के पास शाही सेना सहित पहुँचे तो राणा लड़ने को आया। ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, सियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दाह कज्जाक, अलीमुराद उजबक और राजा लूणकरण तथा बहुत से शाही सवारों सहित मानसिंह हाथी पर सवार होकर मध्य में रहा और बहुत से प्रसिद्ध जवान पुरुष, हरावल के आगे रहे। चुने हुए आदमियों में से 80 से अधिक लड़ाके सैय्यद हाशिम बारहा के साथ हरावल के आगे भेजे गये और सैय्यद अहमदखां बारहा दूसरे सय्यदों के साथ दक्षिण पार्श्व में रहा। शेख इब्राहीम चिश्ती के रिश्तेदार अर्थात् सीकरी के शेखजादों सहित काजीखां वाम पार्श्व में रहा और मिहतरखां चन्दावल में।
राणा कीका (प्रतापसिंह) ने दर्रे (हल्दीघाटी) के पीछे से 3000 राजपूतों सहित आगे बढ़कर अपनी सेना के दो विभाग किये। एक विभाग ने, जिसका सेनापति हकीम सूर अफगान था, पहाड़ों से निकलकर हमारी (मुगल सेना की) हरावल पर आक्रमण किया। भूमि ऊँची-नीची, रास्ते टेढ़े-मेढ़े और कांटों वाले होने के कारण हमारी हरावल में गड़बड़ी मच गई, जिससे हमारी (हरावल की) पूरी तौर से हार हुई। हमारी सेना के राजपूत, जिनका मुखिया राजा लूणकरण था और जिनमें से अधिकतर वाम पार्श्व में थे, भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकले और हरावल को चीरते हुए अपनी रक्षा के लिये दक्षिण पार्श्व की तरफ दौड़े।
इस समय मैं (अल्बदायूनी) ने, जो कि हरावल के खास सैन्य के साथ था, आसफखां से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे कर सकें? उसने उत्तर दिया कि तुम तो तीर चलाये जाओ, चाहे जिस पक्ष के आदमी मारे जावें, इस्लाम को तो उससे लाभ ही होगा। इसलिये हम तीर चलाते रहे और भीड़ ऐसी थी कि हमारा एक भी वार खाली नहीं गया और काफिर को मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। इस लड़ाई में बारहा के सैय्यदों तथा कुछ जवान वीरों ने रुस्तम की सी वीरता दिखाई। दोनों पक्षों के मरे हुए वीरों से रणखेत छा गया।
राणा कीका के सैन्य के दूसरे विभाग ने, जिसका संचालक राणा स्वयं था, घाटी से निकलकर काजीखां के सैन्य पर, जो घाटी के द्वार पर था, हमला किया और उसकी सेना का संहार करता हुआ, उसके मध्य तक पहुँच गया, जिससे सब के सब सीकरी के शेखजादे भाग निकले और उनके मुखिये शेख मन्सूर के, जो शेख इब्राहीम का दामाद था, भागते समय एक तीर ऐसा लगा कि बहुत दिनों तक उसका घाव न भरा। काजीखां मुल्ला होने पर भी कुछ देर तक डटा रहा, परन्तु दाहिने हाथ का अंगूठा तलवार से कट जाने पर वह भी अपने साथियों के पीछे भाग गया।
हमारी फौज पहले हमले में ही भाग निकली थी, नदी (बनास) को पार कर 5-6 कोस तक भागती रही। इस तबाही के समय मिहतरखां अपनी सहायक सेना सहित चंदावल से निकल आया। उसने ढोल बजाया और हल्ला मचाकर[2] फौज को एकत्र होने के लिये कहा। उसकी इस कार्यवाही ने भागती हुई सेना में आशा का संचार कराया जिससे उसके पैर टिक गये। ग्वालियर के राजा मान के पोते रामशाह ने, जो हमेशा राणा की हरावल में रहता था, ऐसी वीरता दिखाई , जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है। मानसिंह के राजपूत, जो हरावल के वाम पार्श्व में थे, भगे, जिससे आसफखां[3] को भी भागना पड़ा और उन्होंने दाहिने पार्श्व के सय्यदों की शरण ली। यदि इस अवसर पर सैय्यद लोग टिके न रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार होती।
दोनों सेनाओं के मस्त हाथी अपनी-अपनी फौज में से निकलकर एक दूसरे से खूब लड़े और हाथियों का दरोगा हुसैनखां, जो मानसिंह के पीछेवाले हाथी पर सवार था, हाथियों की लड़ाई में शामिल हो गया। इस समय मानसिंह ने महावत की जगह बैठकर बहुत वीरता दिखाई। उनमें से बादशाह का एक खासा हाथी राणा के रामप्रसाद नामक हाथी से खूब लड़ता रहा। अन्त में रामप्रसाद का महावत तीर लगने से जमीन पर गिर गया तो शाही हाथी का महावत फुर्ती से उछलकर उस पर जा बैठा।[4]
ऐसी दशा में राणा टिक न सका और भाग निकला जिससे उसकी सेना हताश हो गई। मानसिंह के जवान अंगरक्षक बहादुरों ने बड़ी वीरता दिखाई। इस दिन से मानसिंह के सेनापतित्व के सम्बन्ध में मुल्ला शीरी का यह कथन ‘हिन्दू इस्लाम की सहायता के लिये तलवार खींचता है’, चरितार्थ हुआ।[5] इस लड़ाई में चित्तौड़ वाले जयमल का पुत्र राठौड़ रामदास और ग्वालियर का राजा रामशाह अपने पुत्र शालिवाहन सहित बड़ी वीरता के साथ लड़कर मारे गये। तंवर खानदान का एक भी पुरुष न बचने पाया।[6] माधवसिंह के साथ लड़ते समय राणा पर तीरों की बौछार की गई और हकीम सूर, जो सैय्यदों से लड़ रहा था, भागकर राणा से मिल गया।
इस प्रकार राणा के सैन्य के दोनों विभाग फिर एकत्र हो गये। फिर राणा लौटकर पहाड़ों में जहाँ चित्तौड़ की विजय के बाद वह रहा करता था और जहाँ वह किले के समान सुरक्षित रहता था, भाग गया।[7] उष्णकाल के मध्य के इस दिन गर्मी इतनी पड़ रही थी कि खोपड़ी के भीतर मगज भी उबलता था। ऐसे समय लड़ाई प्रातःकाल से मध्याह्न तक चली[8] और 500 आदमी खेत रहे, जिनमें 120 मुसलमान और शेष 380 हिन्दू थे।[9] 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए।
उस समय लू, आग के समान चल रही थी और सेना में यह भी खबर फैल गई थी कि राणा छल के साथ पहाड़ के पीछे घात लगाये खड़ा होगा। इसी से हमारे सैनिकों ने राणा का पीछा न किया। वे अपने डेरों में लौट गये और घायलों का इलाज करने लगे। सैय्यद अहमदखां बारहा ने कहा- ‘ऐसे फेहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व आदमी मारा नहीं गया। इस समय तो खाने के सामान का बंदोबस्त करना चाहिये।’
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अबुल फजल की हल्दीघाटी
अबुल फजल इस युद्ध में स्वयं उपस्थित नहीं था किंतु वह अकबर का दरबारी लेखक था। इसलिये स्वाभाविक था कि वह अकबरनामा में हल्दीघाटी युद्ध का भी वर्णन करता। उसने लिखा है-
महाराणा की सेना के दायें पक्ष ने पहले तो अकबर की सेना के बायें पक्ष को पीछे धकेल दिया तथा उसके बाद अकबर की सेना के हरावल को भी दबोच लिया। इससे शाही सेना के पैर उखड़ गये। अब शाही कोतल सेना[10] आगे बढ़ी और यह अफवाह फैल गई कि शांहशाह अकबर अपने घोड़े पर चढ़कर हवा की तेजी से आ पहुंचा है और रणांगण उसकी शक्ति की परछाईं से छा गया है। इस समाचार के फैलते ही मुगल पक्ष के योद्धा जोर-जोर से चिल्लाने लगे और शत्रु (मेवाड़ी सेना), जो बराबर जोर पकड़ता जा रहा था, की हिम्मत टूट गई।
ईश्वरीय सहायता की ओर से आयी विजय की वायु भक्तों की आशाओं के गुलाब के पौधों को हिलोरें देने लगी और स्वामिभक्ति में अपने को न्यौछावर करने को उत्सुक लोगों की सफलता की गुलाब-कलियां खिल उठीं। अहंकार और अपने को ऊँचा मानने का स्वभाव अपमान में बदल गया। सदा-सर्वदा रहने वाले सौभाग्य की एक और नयी परीक्षा हुई। सच्चे हृदय वालों की भक्ति बढ़ गई। जो सीधे-सादे थे, उनके दिल सच्चाई से भर गये। जो शंकाएं किया करते थे उनके लिये स्वीकार-शक्ति और विश्वास की प्रातःकालीन पवित्र वायु बहने लगी, शत्रु के विनाश का रात का गहन अन्धकार आ गया। लगभग 150 गाजी रणक्षेत्र में काम आये, और शत्रु पक्ष के 500 विशिष्ट वीरों पर विनाश की धूल के धब्बे पड़े।
युद्ध की भयावहता का वर्णन करते हुए अबुल फजल ने काव्यमय शैली में लिखा है-
सेना की जब सेना से मुठभेड़ हुई,
पृथ्वी पर स्वर्ग जाने का दिन जल्दी आ गया।
खून के दो समुद्रों ने एक दूसरे को टक्कर दी,
उनसे उठी उबलती लहरों ने पृथ्वी को रंग-बिरंगा कर दिया।
जान लेने और जान देने का बाजार खुल गया।
दोनों ओर के योद्धाओं ने अपना जीवन दे दिया
और अपना सम्मान बचा लिया।
बहुसंख्यक वीर एक दूसरे से लड़े,
रण क्षेत्र में बहुत सा रुधिर बहने लगा।
दिल बलने लगे, चिल्लाहटें गूंजने लगीं,
गरदनें फन्दों से भिंच गईं।
[1] इसे अब्दुल कादिर बदायूनी भी कहते हैं। इसे सेना के साथ मुसलमानों की धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भेजा गया था, इसने हल्दीघाटी युद्ध का आँखों देखा विवरण अपनी पुस्तक मुन्तखबुत्तवारीख में अंकित किया है। उसके द्वारा दिया गया अधिकांश विवरण सत्य है।
[2] मिहतरखां ने हल्ला मचाकर क्या कहा, इस विषय में बदायूनी ने कुछ नहीं लिखा, परंतु अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि सरसरी तौर से देखनेवालों की दृष्टि में तो राणा की जीत नजर आती थी, इतने में एकाएक शाही फौज की जीत होने लगी, जिसका कारण यह हुआ कि सेना में यह अफवाह फैल गई कि बादशाह स्वयं आ पहुँचा है। इससे बादशाही सेना में हिम्मत आ गई और शत्रु सेना की, जो जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी, हिम्मत टूट गई। (अकबरनामा का अंग्रेजी अनुवाद, जि. 3, पृ. 246)
[3] अल्बदायूनी, आसफखां के साथ था परंतु आसफखां के भागने के साथ वह अपने भागने का उल्लेख नहीं करता, उसके ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवादक टिप्पणी करता है कि हमारा ग्रंथकर्ता भी अवश्य ही आसफखां के साथ भागा होगा। (जि. 2, पृ. 238, टिप्प. 1)।
[4] अल्बदायूनी ने दोनों पक्षों के हाथियों की लड़ाई का विवरण संक्षेप में लिखा है जबकि अबुल फजल ने अकबरनामा में हाथियों की लड़ाई को विस्तार से लिखा है- ‘दोनों पक्ष के वीरों ने लड़ाई में जान सस्ती और इज्जत महंगी कर दी। जैसे पुरुष वीरता से लड़े, वैसे ही हाथी भी लड़े। राणा की तरफ के, शत्रुओं की पंक्ति को तोड़ने वाले लूणा हाथी के सामने जमालखां फौजदार गजमुक्त हाथी को ले आया। शाही हाथी घायल होकर भाग ही रहा था कि शत्रु के हाथी का महावत गोली लगने से मर गया जिससे वह लौट गया। फिर राणा का प्रताप नामक एक सम्बन्धी मुख्य हाथी रामप्रसाद को ले आया, जिसने कई आदमियों को पछाड़ डाला। हारती दशा में कमालखां गजराज हाथी को लाकर लड़ाई में शरीक हुआ। पंजू, रामप्रसाद का सामना करने के लिये रणमदार हाथी को लाया, जिसने अच्छा काम दिया। उस हाथी (रणमदार) के पांव भी उखड़ने वाले ही थे कि इतने में रामप्रसाद हाथी का महावत तीर से मारा गया। तब वह हाथी पकड़ा गया, जिसकी बहादुरी की बातें शाही दरबार में अक्सर हुआ करती थीं। (अबुलफजल, अकबरनामा का अंग्रेजी अनुवाद, जि. 3, पृ. 245-46)।
[5] ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 435.
[6] कुछ लेखकों के अनुसार रामशाह का पोता बलभद्र इस युद्ध में घायल तो हुआ पर जीवित बच गया।
[7] तबकाते अकबरी का कर्त्ता निजामुद्दीन अहमद बख्शी, महाराणा के दो घाव, एक तीर का और एक भाले का लगना लिखा है (तबकाते अकबरी, इलियट, जि. 5, पृ. 399), परंतु अल्बदायूनी और अबुलफजल उसके घायल होने का उल्लेख नहीं करते।
[8] अबुलफजल पहर दिन चढ़े लड़ाई का प्रारम्भ होना लिखता है (अकबरनामा, अंग्रेजी अनुवाद, जि. 3, पृ. 245.), जो ठीक नहीं है। उदयपुर के जगदीश के मंदिर की प्रशस्ति की पहली शिला के श्लोक 41 में प्रतापसिंह का प्रातःकाल युद्ध में प्रवेश करना लिखा है, यही विवरण सही है।
[9] यह संख्या पूरी तरह अविश्वसनीय है। इस सम्बन्ध में सैय्यद अहमदखां बारहा का यह वक्तव्य विचारणीय है जिसमें उसने कहा था कि ऐसी फेहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व आदमी मारा नहीं गया। अनुमान लगाया जाना कठिन नहीं है कि इस युद्ध में बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मारे गये थे किंतु मुगलों द्वारा महाराणा की पराजय और अकबर की विजय सिद्ध करने के लिये मृत मुगल सैनिकों की संख्या चालाकी से छिपा ली गई।
[10] पीछे खड़ी हुई आरक्षित सेना जो आपातकाल में आगे बढ़ती थी।
Nice