Saturday, December 21, 2024
spot_img

मध्यकालीन गुहिलों का स्वर्णकाल

हिन्दू राजाओं पर धाक

चीरवा से प्राप्त शिलालेख में कहा गया है- ‘जैत्रसिंह शत्रु राजाओं के लिये प्रलयमारुत के सदृश था, उसको देखते ही किसका चित्त न कांपता? मालवा वाले, गुजरात वाले, मारव (मारवाड़) निवासी और जांगल देश वाले, तथा म्लेच्छों का अधिपति (सुल्तान) भी उसका मानमर्दन न कर सका।  जैत्रसिंह के प्रतिपक्षी धोलका (गुजरात) के वघेलवंशी राणा वीरधवल के मंत्रियों (वस्तुपाल एवं तेजपाल) का कृपापात्र जयसिंह सूरि अपने हंमीरमर्दन नाटक में वीरधवल से कहलाता है कि शत्रु राजाओं के आयुष्यरूपी पवन का पान करने के लिये चलती हुई कृष्ण सर्प जैसी तलवार के अभिमान के कारण मेदपाट (मेवाड़) के राजा जयतल (जैत्रसिंह) ने हमारे साथ मेल न किया।

इन दो उल्लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि जैत्रसिंह अपने काल में प्रतापी राजा हुआ तथा उसने गुजरात, मालवा एवं मारवाड़ के राजाओं को युद्धों में परास्त कर यह प्रतिष्ठा प्राप्त की।

नाडौल राज्य का उच्छेदन

जैत्रसिंह ने नाडौल राज्य को जड़ से उखाड़कर  पूर्व के काल में कीतू द्वारा मेवाड़ राज्य लिये जाने की घटना का बदला लिया। उस समय नाडौल एवं जालौर पर कीतू का वंशज उदयसिंह शासन कर रहा था। उदयसिंह ने अपने पुत्र चाचिगदेव की पुत्री का विवाह जैत्रसिंह से करके इस वैर को समाप्त किया।  जैत्रसिंह ने मालवा के परमार शासक जयमल्ल को तथा गुजरात के चौलुक्य राजा त्रिभुवनपाल को परास्त करके अपने पूर्वजों की पराजय का बदला लिया। इस प्रकार उसने तीनों शक्तियों- चौहानों, चौलुक्यों एवं परमारों को परास्त कर गुहिलों के पुराने शक्ति केन्द्र को पुनर्स्थापित किया।

चौहानों एवं चौलुक्यों की कमजोर स्थिति

इस बात पर विचार अवश्य किया जाना चाहिये कि जो चौहान, गुहिलों का पूरा का पूरा राज्य हड़पने की स्थिति में आ गये थे, अचानक जैत्रसिंह, उनके नाडौल राज्य का उच्छेदन कर जालौर राज्य को परास्त करने तथा उनकी राजकुमारी से विवाह करने में सफल कैसे रहा? वस्तुतः ई.1192 में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद चौहानों की शक्ति को बहुत बड़ा आघात लगा था, उनकी इसी कमजोरी का लाभ उठाकर जैत्रसिंह उन्हें पछाड़ने तथा अपने राज्य का उद्धार करने में सफल रहा।

इसी प्रकार जिस समय जैत्रसिंह चौहानों पर विजय प्राप्त करने में सफल हुआ, गुजरात की राजनीतिक परिस्थतियां विकट हो गईं। चौलुक्य राजा भीमदेव (द्वितीय) अल्पवयस्क था तथा गुजरात के मंत्री और सामंत, स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहे थे। अतः जैत्रसिंह को उनके विरुद्ध कार्यवाही करना सरल हो गया। चौलुक्यों ने जैत्रसिंह से मित्रता करनी चाही किंतु जैत्रसिंह ने उनसे मित्रता का प्रस्ताव ठुकरा दिया। चौहानों पर सफलता प्राप्त करने के बाद वह परमारों की ओर बढ़ा और उनके विरुद्ध भी सफल रहा। चौहानों, चौलुक्यों और परमारों पर विजय प्राप्त करने से उसकी शक्ति में तेजी से वृद्धि हुई जिसका लाभ उसे आगे चलकर इल्तुतमिश के आक्रमणों के समय मिला।

इल्तुतमिश की पराजय

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

चीरवा से प्राप्त शिलालेख में नागदा नगर के टूटने एवं भूताला की लड़ाई में तलारक्ष योगराज के ज्येष्ठ पुत्र पमराज का, सुल्तान  से हुई लड़ाई में मारे जाने का उल्लेख है।  इस लड़ाई के सम्बन्ध में नाटक ‘हंमीरमदमर्दन’ में भी विवरण मिलता है। भूताला की लड़ाई के समय यही जैत्रसिंह, चित्तौड़ का राजा था। इस युद्ध में मुसलमान पराजित होकर भाग गये।

चीरवे तथा घाघसे के शिलालेखों के अनुसार म्लेच्छों का स्वामी भी जैत्रसिंह का मानमर्दन न कर सका। रावल समरसिंह के आबू शिलालेख में जैत्रसिंह को तुरुष्क रूपी समुद्र का पान करने के लिये अगस्त्य के समान बताया है।  चीरवा तथा घाघसे के शिलालेखों में वर्णित म्लेच्छों का स्वामी, और कोई नहीं दिल्ली सल्तनत के गुलाम वंश का शासक इल्तुतमिश था।

डॉ. गोपीनाथ शर्मा एवं गौरीशकंर ओझा के अनुसार इल्तुतमिश ने ई.1222 से 1229 के बीच किसी समय, मेवाड़ पर चढ़ाई की। उसने नागदा को नष्ट कर दिया तथा उसके आसपास की बस्तियों को उजाड़ दिया। इल्तुतमिश की सेना ने मेवाड़ को जला दिया तथा उसकी राजधानी नागदा के निवासियों को तलवार के घाट उतार दिया। लोगों में त्राहि-त्राहि मच गई और मुसलमानों ने बच्चों को निर्दयता से मारा। 

इस पर जैत्रसिंह अपनी सेना के साथ तुर्की सेना का मुकाबला करने आगे बढ़ा। इल्तुतमिश की सेना परास्त होकर भाग गई।  इल्तुतमिश की सेना, गुहिलों की प्राचीन राजधानियों- नागदा एवं आहाड़ को तोड़ने में सफल रही थी। अतः जैत्रसिंह अपनी राजधानी को स्थिर रूप से चित्तौड़ ले आया। जैत्रसिंह की इस विजय का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है- ‘यह जैत्रसिंह का ही प्रताप था कि उसने मुस्लिम सेना को पीछे धकेल दिया जो कि गुजरात की तरफ आगे बढ़ रही थी।’

सिंध की सेना का विनाश

जैत्रसिंह ने इल्तुतमिश की सेना को तो परास्त किया ही, सिंध की तरफ से आई एक मुस्लिम सेना को भी बुरी तरह नष्ट किया। यह सेना सिंध के शासक जलालुद्दीन के सेनापति खवासखां के नेतृत्व में आई थी।  समरसिंह के आबू पर्वत के शिलालेख में लिखा है- सिंधुकों (सिंधवालों) की सेना का रुधिर पीकर मत्त बनी हुई पिशाचियों के आलिंगन के आनन्द से मग्न होकर पिशाच लोग रणखेत में अब तक श्री जैत्रसिंह के भुजबल की प्रशंसा करते हैं। 

सुल्तान नासिरुद्दीन से लड़ाई

दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन का भाई जलालुद्दीन कन्नौज का सूबेदार था। ई.1248 में उसे दिल्ली आने का आदेश मिला किंतु वह सुल्तान के पास न जाकर चित्तौड़ भाग आया तथा पहाड़ियों में छिपकर रहने लगा। सुल्तान नासिरुद्दीन उसके पीछे चित्तौड़ आया। यद्यपि जैत्रसिंह अपनी वृद्धवस्था में था तथापि उसने नासिरुद्दीन का सामना किया। आठ माह तक प्रयास करने के उपरांत भी नासिरुद्दीन, न तो जलालुद्दीन को प्राप्त कर सका और न जैत्रसिंह पर विजय प्राप्त कर सका। अतः वह निराश होकर दिल्ली को लौट गया।

मेवाड़ का स्वर्णकाल

दशरथ शर्मा ने जैत्रसिंह के काल को मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल माना है तथा ओझा ने उसे रणरसिक बताया है। ओझा ने लिखा है- ‘दिल्ली के गुलाम सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और शक्तिशाली राजा जैत्रसिंह ही हुआ। उसकी वीरता की प्रशंसा उसके विपक्षियों ने भी की है।  गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है- ‘जैत्रसिंह ने अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण ही अपने चारों ओर सुयोग्य व्यक्तियों का एक मण्डल बना लिया था जो उसके राज्य विस्तार तथा शासन-कार्य में सहयोग देते थे। 

निःसंदेह जैत्रसिंह महत्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी शासक था। उसने बागड़ कोटड़ा को अपने प्रभुत्व में लाकर मेवाड़ राज्य का विस्तार किया। यह उसकी ही वीरता थी कि जिसके कारण उसने अपने पड़ौसी नरेशों को अपने प्रभुत्व में किया तथा स्वयं को चौलुक्य नरेशों से पूर्णतः मुक्त कर लिया। उसने चित्तौड़ दुर्ग को सुदृढ़ प्राचीर से आवृत्त करवाया।

तेजसिंह द्वारा बलबन की पराजय

जैत्रसिंह का पुत्र तेजसिंह ई.1252 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर के विरुद धारण किये। उसे धौलका के बघेल राजा वीरधवल का आक्रमण झेलना पड़ा जिसमें मेवाड़ को हानि उठानी पड़ी किंतु इस युद्ध के बाद तेजसिंह की राजनीतिक प्रतिष्ठ बढ़ गई जिसके कारण उसने चौलुक्यों की भांति ‘उभापतिवरलब्धप्रौढ़प्रताप’ विरुद धारण किया। उसके काल में गयासुद्दीन बलबन ने रणथम्भौर, बूंदी तथा चित्तौड़ पर आक्रमण किये किंतु तेजसिंह की शक्ति ने उसे पीछे धकेल दिया।

समरसिंह द्वारा बलबन की पराजय

तेजसिंह के बाद भी मेवाड़ के राणाओं को निरंतर मुसलमानों से युद्ध करने पड़े। इन युद्धों के परिणाम स्वरूप, चौदहवीं शताब्दी के आगमन तक चित्तौड़ के गुहिल, मुसलमानों को पूरी तरह अपने राज्य से दूर रखने में सफल हुए। तेजसिंह के पुत्र समरसिंह के समय में (ई.1285 से पूर्व के किसी वर्ष में) गयासुद्दीन बलबन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया। समरसिंह ने उस सेना को परास्त करके भगा दिया।

आबू शिलालेख में कहा गया है कि समरसिंह ने तुरुष्क रूपी समुद्र में गहरे डूबे हुए गुजरात देश का उद्धार किया  अर्थात् मुसलमानों से गुजरात की रक्षा की। समरसिंह के समकालीन जिनप्रभ सूरि ने तीर्थकल्प में लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी का सबसे छोटा भाई उलूगखान ई.1299 में गुजरात विजय के लिये निकला। चित्तकूड़ (चित्तौड़) के स्वामी समरसिंह ने उसे दण्ड देकर मेवाड़ देश की रक्षा की। 

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source