जोधाबाई मारवाड़ नरेश मोटाराजा उदयसिंह की पुत्री थी। उसके गर्भ से शहजादे खुर्रम का जन्म हुआ। महाराजा उदयसिंह की मृत्यु के बाद जोधाबाई के सोलह भाइयों में सबसे बड़ा सूरसिंह, जोधपुर का राजा हुआ तथा जोधाबाई के पन्द्रहवें नम्बर का भाई किशनसिंह, आसोप तथा दोदर का जागीरदार हुआ।
ये अच्छी आय वाली जागीरें थीं किंतु शीघ्र ही दोनों भाइयों में खटपट हो गई और किशनसिंह अपने भाई के राज्य में मिली जागीरें छोड़कर शहंशाह अकबर की सेवा करने उसके पास चला गया। उन दिनों अकबर अजमेर में रह रहा था। उसने किशनसिंह को बहादुर राजपूत जानकर अपनी सेवा में रख लिया और गुजारा करने के लिए अजमेर परगने में हिन्दुआन की छोटी सी जागीर दे दी।
किशनसिंह वीर और पराक्रमी राजकुमार था। उसने यह जागीर स्वीकार तो कर ली किंतु वह इससे संतुष्ट नहीं था। इससे कई गुना बड़ी जागीरें तो उसके भाई सूरसिंह ने उसे दे रखी थीं जिन्हंे वह छोड़ आया था। इसलिए किशनसिंह अपनी उन्नति के लिए हाथ-पैर मारने लगा। एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि मेरवाड़ा की दुर्गम पहाड़ियों के मार्ग में मेर लुटेरों ने फतहपुर सीकरी को जा रहा शाही खजाना लूट लिया है। किशनसिंह ने इस घटना को अपने लिए भाग्य का दरवाजा समझा तथा वह अपने मुट्ठी भर राठौड़ साथियों को लेकर मेर लुटेरों के पीछे दौड़ा।
अपने बहुत से सिपाहियों को गंवाकर तथा स्वयं अपने प्राणों को संकट में डालकर किशनसिंह ने मेरों से शाही खजाना छीन लिया। मुट्ठी भर राठौड़ों के लिए यह एक अद्भुत सफलता थी। किशनसिंह ने वह खजाना फतहपुर सीकरी ले जाकर शाही कोष में जमा करवा दिया और अकबर को इस सफलता की सूचना दी।
अकबर, किशनसिंह के इस पराक्रम से बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने किशनसिंह को पुरस्कार स्वरूप अजमेर के निकट सोठेलाव की जागीर और राजा की उपाधि प्रदान की। कहने को अब वह जागरीदार नहीं रहा था, राजा हो गया था किंतु राजपूत राजाओं के बीच उसकी हैसियत अब भी एक जागीदार से अधिक नहीं थी।
राजा का खिताब मिल जाने के बाद किशनसिंह ने उन्नति की नई सीढ़ियां चढ़नी आरंभ कीं। जब अकबर मर गया तब राजा किशनसिंह अपने बहनोई जहाँगीर की सेवा में उपस्थित हुआ। जहाँगीर ने अपने इस छोटे साले को महाराजा की उपाधि प्रदान की और उसकी इच्छानुसार उसे स्वतंत्र राज्य स्थापति करने की अनुमति भी दे दी।
इस प्रकार 1611 ईस्वी में किशनसिंह ने अपनी जागीर सोठेलाव को किशनगढ़ रियासत में बदल दिया। आठ सौ अट्ठावन वर्ग मील के रेगिस्तानी मैदान में सिमटी हुई यह छोटी सी रियासत जोधपुर और जयपुर जैसी विशाल रियासतों के मध्य ठीक उसी तरह उग आई थी जिस तरह दो बड़े समुद्रों के बीच छोटा सा टापू उभर आता है।
जहाँगीर द्वारा स्वतंत्र रियासत स्थापित करने की अनुमति देने के कारण महाराजा किशनसिंह, मुगलों के उपकार के बोझ तले दब गया और उसने जहाँगीर की बड़ी सेवा की। इसके कारण जहाँगीर उसे पसंद करने लगा तथा महाराजा किशनसिंह को बड़ी जिम्मेदारियां देने लगा। महाराजा किशनसिंह उन जिम्मेदारियों को पूरा करता था अपनी सफलताओं की सूचनाएं लेकर, मुगल दरबार में बड़े ठसके के साथ हाजिर होता।
जोधपुर वालों को उसकी उन्नति पसंद नहीं आई और देखते ही देखते एक ही परिवार की दो शाखाओं में वैर पनप गया। किशनगढ़ रियासत की स्थापना के चार साल बाद ही जोधपुर के राजकुमार गजसिंह ने अपने चाचा महाराजा किशनसिंह की हत्या कर दी। किशनसिंह का ज्येष्ठ पुत्र सहसमल उस समय केवल सत्रह साल का युवक था।
सहसमल के लिए यह संकट की घड़ी थी। उसे लगा कि जोधपुर में रह रहे उसके ताऊ-चाचा, किशनगढ़ राज्य को भी चबा जाएंगे तथा जहाँगीर से अपने अच्छे सम्बन्धों के कारण मुगलिया कोप से भी बच जाएंगे। इसलिए महाराजा सहसमल ने अपने राज्य को जोधपुर रियासत की दाढ़ में जाने से बचाने के लिए अपनी बुआ जोधाबाई के पुत्र खुर्रम से दोस्ती कर ली। समवयस्क और रणप्रिय होने के कारण शीघ्र ही दोनों युवकों में प्रगाढ़ मित्रता स्थापित हो गई।
यह मित्रता तब और भी गहरी हो गई जब मेवाड़ युद्ध में महाराजा सहसमल ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करके खुर्रम के माथे पर मेवाड़ विजय का सेहरा बंधवा दिया। इस विजय ने खुर्रम को दूसरे मुगल शहजादों की तुलना में काफी अच्छी स्थिति में ला दिया।
इतना ही नहीं, जिस मलिक अम्बर को शहंशाह अकबर, अब्दुर्रहीम खानखाना जैसे सेनापति के रहते भी वश में नहीं कर सका था, उसी मलिक अम्बर को खुर्रम ने अपने राठौड़ मित्रों तथा अपने श्वसुर आसफ खाँ के बल पर संधि करने के लिए विवश करके बालाघाट के हीरे-मोती और सोना-चांदी उगलने वाले कीमती प्रदेश जहाँगीर के कदमों में डाल दिए थे।
जब खुर्रम और उसके राठौड़ मित्रों ने दक्षिण में मुगलों की जीत के झण्डे गाढ़ दिए तो जहाँगीर ने कांगड़ा के दुर्गम दुर्ग को विजय करने का दायित्व भी खुर्रम को ही सौंपा। इस दुर्ग को भी महाबली कहलाने वाला शहंशाह अकबर छू तक नहीं सका था किंतु खुर्रम ने यह दुर्ग भी महाराजा सहसमल जैसे मित्रों के बलबूते पर जीतकर जहाँगीर के कदमों में डाल दिया।
एक जमाना था जब खुर्रम और नूरजहां, मुगलिया सल्तनत का तख्त हथियाने के लिए आपस में लड़ रहे थे किंतु जब नूरजहाँ का अपना पुत्र मर गया तथा खुर्रम का सितारा बुलंदियां छूने लगा तो नूरजहाँ ने खुर्रम से दोस्ती कर ली। इस कारण महाराजा सहसमल भी खुर्रम का दोस्त होने के कारण नूरजहाँ का कृपापात्र बन गया। जहाँगीर की दो-दो प्रमुख बेगमों जगत गुसाइन तथा नूरजहाँ की छत्रछाया मिल जाने से जोधपुर के राठौड़, सहसमल को छू भी नहीं सकते थे।
हालांकि कुछ दिनों बाद नूरजहाँ ने अपने पहले पति शेर अफगन की बेटी लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर की अन्य बेगम के पेट से उत्पन्न शहजादे शहरयार से कर दिया तो नूरजहाँ, खुर्रम के स्थान पर अपने जंवाई शहरयार को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाने का प्रयत्न करने लगी। इस कारण नूरजहाँ और खुर्रम की दोस्ती टूट गई। इस पर भी नूरजहाँ ने खुर्रम के दोस्त महाराजा सहसमल से अपने सम्बन्ध पहले की तरह मधुर बनाए रखे ताकि वक्त पड़ने पर महाराजा से काम लिया जा सके।
इस समय ये दोनों दोस्त अर्थात् शहजादा खुर्रम तथा महाराजा सहसमल, आगरा और दिल्ली से सैंकड़ों कोस दूर दक्कन के मोर्चे पर तैनात थे तथा एक के बाद एक सफलताएं अर्जित कर रहे थे जिनके कारण न केवल मुगलिया सल्तनत का आकार और समृद्धि बढ़ती चली जा रही थी अपितु खुर्रम का इकबाल और भी बुलंद होता जा रहा था। खुर्रम इस समय पैंतीस साल का युवक था और किशनगढ़ का तेजस्वी राठौड़ महाराजा सहसमल उससे छः साल छोटा होने से अट्ठाईस साल का बांका जवान था।